मैम जो छठी सी की ज्योति थी ना उसने ट्रेन के नीचे आकार अपनी जान दे दी। सातवीं कक्षा में प्रवेश करते ही जब किसी बच्चे से मुझे यह बात पता चली तो कुछ पल के लिए मैं स्तभित हो उठी। परसों ही तो मेरे पास ये कहने आई थी कि मैम, अब कोई प्रतियोगिता हो तो मुझे बताना। मुझे भी हिस्सा लेना है। सुनकर यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक ग्यारह साल की बालिका भी ऐसा करने को विवश हो गई ! आत्महत्या की वजह देखने में भले ही मामूली सी लगे कि उसके भाई को चॉकलेट के लिए पैसे दे दिए गए थे किंतु उसे नहीं दिए गए । इसके पीछे के उन सभी घटनाक्रमों का बोझ उसके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा ! यह पूर्णतया विचारणीय है।
आज फलां शहर में फलां व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली… आए दिन आई ऐसी घटनाएं पढ़ने सुनने में शायद आम जनमानस को सामान्य सी लगें सिवाय उस परिवार के जिसमें ये सब घटित हुआ हो। कोई आर्थिक तंगी के कारण, कोई अपराध बोध से ग्रसित होकर तो कोई आपसी मनमुटाव से तंग आकर, कोई धोखा खाकर, जीवन से तंग हारकर इस तरह की न जाने कितनी परिस्थितियों में इस तरह का कदम उठाने पर विवश हो जाता है। अब प्रश्न ये उठता है कि कष्टों से मुक्ति का विकल्प एकमात्र आत्महत्या ही है? क्या अन्य कोई समाधान नहीं है?
इन प्रश्नों के हल जानने के लिए सर्वप्रथम हमें इसके कारणों पर दृष्टिपात करना होगा। खोजने पर ऐसे विभिन्न कारण मिल जाएंगे जो व्यक्ति को इस महापाप को करने के लिए प्रेरित करते हैं जैसे तनाव, कोई मानसिक अवसाद, आत्मबल की कमी, जीवन के प्रति नकारात्मकता का भाव , रिश्तों में सामंजस्य की कमी, पक्षपाती दृष्टिकोण, आकस्मिक दुर्घटना, संबंध विच्छेद, जन माल की हानि, नशीले पदार्थों का सेवन, कार्य कुशलता की कमी, समय नियोजन का अभाव, शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य, धैर्य की कमी, प्रतिस्पर्धा की भावना, आकांक्षा एवं अपेक्षाओं का पूर्ण न होना इत्यादि । ऐसे में कष्टों से घबराकर इस देह को नष्ट कर देना क्या सही है?
सभी को जीवन में सुख -दुख नियत कर्मों के परिणाम स्वरूप ही प्राप्त होते हैं। चलो एक बार को मान भी लें कि जीवन के कष्टों से मुक्ति मिल गई। लेकिन कब तक! कितने और जन्मों तक? यूं ही भगोड़ों की तरह , हालातों के समक्ष घुटने टेकते रहना भला कहाँ की समझदारी है? मरती केवल देह है , आत्मा नहीं। यदि मारना है तो अपने मन के विकारों, कमियों और दुर्बलताओं को मारना चाहिए। मन की अतृप्तता को मारने का प्रयास करना चाहिए।
यदि हम विभिन्न सर्वेक्षणों द्वारा दिए गए आंकड़ों पर जाएं तो पिछले दशकों की तुलना में आत्महत्याओं की दर कम होने की बजाय दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। जो अत्यंत चिंतनीय है।
इस तरह की घटनाओं से बचने के लिए हमें निम्नलिखित विकल्पों पर ध्यान देना होगा –
अच्छे अविभावक बनें – बच्चे को एक स्वस्थ वातावरण देने की कोशिश करें जिसमें वह खुलकर अपनी हर छोटी बड़ी बात कह सके। समय -समय पर बच्चों में आए बदलाव पर नजर रखें, उनकी बातों को अनसुना न करें। उनकी जिज्ञासाओं और समस्याओं का समाधान संयम और शांति से करें, आवेश में न आएं। बच्चों में कभी भी पक्षपात नहीं करें।
स्वस्थ एवं नियमित जीवन शैली
अपने दिन भर के कार्यों को इस प्रकार विभाजित करें जिसमें योग, ध्यान , रुचि एवं मनोरंजन के लिए भी पर्याप्त समय हो। अपने आहार , विचार , आचार को शुद्ध रखें।
संगति का चुनाव
कुसंगति से बचें, ताकि मादक पदार्थों के सेवन और गलत कार्यों में लिप्त न हो सकें। ऐसे लोगों की संगति में बैठें जहाँ से कुछ सीखा जा सके, आगे बढ़ने की प्रेरणा मिले।
इच्छाओं को स्वयं पर हावी न होने दें
जीवन कभी भी किसी की मांगों को पूरा नहीं कर सकता। दूसरे की थाली में खीर सभी को ज्यादा ही लगती है। अत्यधिक अतृप्तता क्रोध, निराशा, तनाव और विषाद को जन्म देती है।
प्रतिस्पर्धा की भावना का परित्याग करें
इस भावना से मानसिक दवाब में वृद्धि होती है। जिससे बेवजह का तनाव, चिड़चिड़ापन, भोजन में अरुचि, नींद की समस्या,आवेश तथा नकारात्मकता के भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
वाद – विवाद को बढ़ने न दें
संबंधों में आई हुई दरार को भरने का प्रयास करें। एक साथ बैठ कर समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करें।
अधिकतर मनमुटाव गलतफहमियों की वजह से होते हैं। उन्हें दूर करते हुए धैर्य से एक दूसरे की भावनाओं को समझने का प्रयास करें।
काउंसलर या मनोवैज्ञानिक से संपर्क करें
अपने मन की पीड़ा को अपने भीतर घर नहीं करने दें। यदि अपने प्रियजनों को नहीं बता पा रहे तो काउंसलर या फिर किसी मनोवैज्ञानिक से तुरंत संपर्क करें। जो आपको कष्टों से उबारने में आपकी मदद कर सकते हैं ।
पठन और लेखन की आदत विकसित करें
अच्छे साहित्य को पढ़ने की आदत डालें। प्रेरणादायक पुस्तकों को पढ़ें जो आपको सकारात्मकता की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करें। एक डायरी बना लें जिसमें अपने सभी विकार, कुंठा, क्रोध,नफरत, घृणा, तनाव, अपेक्षा, उपेक्षा इत्यादि समस्त भावों को निष्कासित कर सकें।
यदि देखा जाए तो आत्महत्या जैसी परिस्थिति उत्पन्न होने की दशा में स्वयं को एकदम से रोक पाना बहुत कठिन हो जाता है। आपका मनन , चिंतन, धारणाएं सब शून्य हो जाती हैं। मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं रहता। ऐसे में केवल वो ही खुद को संभाल पाते हैं जो अपने आत्मबल को केंद्रित कर के नकात्मकता पर ठोस प्रहार करते हैं । स्थिति को दूसरे नजरिए से समझने की कोशिश करते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पानी से भरे हुए आधे गिलास को कोई आधा भरा तो कोई आधा खाली कहता है। यदि बचपन से ही इन छोटी- छोटी बातों को ध्यान में रखते हुए यदि प्रयत्न किया जाए तो काफी हद तक इससे बचाव हो सकता है।
किरण बाला (चण्डीगढ़)
79 7390 9907
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