आज आंखें क्या लगीं, होनहार ही होनहार दिखाई देने लगा। ठीक जैसे पुराने जमाने का रसांजन या सिद्धांजन लगाने से धरती के गड़े खजाने लोगांे को दिखाई देते थे। वैसे ही आज नींद ने मेरी आंखें क्या बंद की, मानो होनहार देखने के लिए ज्ञान की भीतरी आंखें खोल दी। देखा तो मोटे-मोटे सोने के चिकचिकाते अक्षरों से आसमान उज्जवज हो रहा हैं इतना बड़ा विशाल आकाश उन्हीं अक्षरों के प्रकाश से अपनी नीलिमा छोड़ सुनहला हो गया है। मन में आया आंखें बंद हैं। मैं सोता हूं तो भी यह रोशनी कैसे दिखाई दे रही है? फिर आंखें गड़ा कर देखा तो कुछ लिखा है। पहले अक्षरों की चमक से चकाचौंध लगी जाती थी लेकिन मिनट दो मिनट नहीं बीते कि नयनों को ठंडक आई। चकाचौंध जाती रही ठीक जैसे सूर्य का चांद हो गया। आकाश में जो अक्षर पीले-पीले चमकते थे वे सब चांद रंग के हो गए। अब साफ पढ़ा तो देखा यही लिखा है ‘विलायती महाभारत का अंत’ वह उ$पर सबसे मोटे अक्षरों में है। उससे कम मोटे अक्षर दूसरी पांती में है, जिसमें लिखा है, ‘ब्रिटिश विजय मित्रों की गोटी लाल’।
बस इतना ही देखा था कि एक विकट रूपा राक्षसी सामने से दांत बाये हुए दौड़ती दिखाई दी। उसकी बिखरी लटों से आग निकल रही है। मुंह ज्वालामुखी का कंदरा मात करता है। नाक और कान से भी आतिशबाजी के कुजे छूट रहे हैं। सारी देह महाकाली का विकराल रूप है। लेकिन शरीर के सभी रन्ध्रों से आग फेंकती है। ज्यों-ज्यों पास आती गई त्यों-त्यों मेरे प्राण सूखते गए। बहुतेरा चाहा कि पीछे फिर कर भाग जाउ$ं। लेकिन पांव मानों धरती से ऐसे चिपके कि हिल नहीं सके। लेकिन उसके देह से निकलती हुई आग पास आने पर जलाती नहीं, देखकर तसल्ली सी हुई। अच्छी तरह देखा तो उस पूतना के कपार पर ‘होलिका’ लिखा है। मैंने होली महारानी की जय कहकर आठों अंगों से प्रमाण किया। उसने दोनों हाथ उठाकर, मुंह हिलाकर आशीर्वाद दिया, कहा ले बच्चा! पच्चास बरस तेरी आयु और बढ़ी, पूरे सौ बरस की जिंदगी अब तेरी हुई, बोल और कुछ चाहिए?
अब मैं ढीठ हो गया। ‘कहा ना माताजी आपने पच्चास बरस मुझे आयु दी है इसके लिए धन्यवाद है। यह तो आपने अपने आप ही दिया है। ठीेक जैसे पका शरीफ न्यूटन के कपार पर आप ही आप आया था। लेकिन मैं आप से कुछ और मांगना चाहता हूं। दया करके…..
बस बस बोल क्या मांगता है। नहीं तो घड़ी तो बीती जाती है। एक, दो, तीन बस तीन ही मिनट और हैं इतने में जो मांगेगा सो पावेगा। लेकिन अपने मतलब की कुछ न मांगना।
ना माताजी! मुझे अपने मतलब की कुछ नहीं चाहिए। पहली बात तो मैं यही मांगता हूं कि युरोप में जो महाभारत हो रहा है उसका अंत इसी साल जून में ठीक ब्रिटिश विजय के साथ हो आया।
दूसरी बात यह है कि हमारी ब्रिटिश सरकार को ऐसी सुमति हो कि इस साल जो नए टैक्स लगने हैं वे मेरे कहे मुताबिक लगें। उसका विवरण मैं आगे देकर अपनी याचना समाप्त करता हूं।
‘बोलता जा! बेलता जा! की आवाज सुनकर ही मैंने कहा, ‘पहला टैक्स तो उनपर लगे तो पुराने ख्याल के खूसट आज पश्चिमी रोशनी में भी व्याह शादी में नाच फांच, रंडी, भंडुए, भांड भगतियों के बिना अपनी रस्म नहीं पूरा कर सकते। उन पर टैक्स यही लगे कि जितना इन कामों में खर्च करते हैं वह बंद करके उसका आधा टैक्स देवें आधा बचत में रखें।
दूसरा टैक्स उन धनकुबेर, महंथ और पुजारियों पर लगे जो बेकामधाम के बैठे ती बैठे दूसरों का मु-चाभ कर उत्तानपाद हो रहे हैं। जिनको¶का माल मलीदा चाभ दीन दुनिया से कुछ नेह-नाता नहीं है। संसार में आगे लगे चाहे ब्रज पड़े, मरकी माहमारी आए चाहे हैजा हो, विकराल अकाल धरती धुआंधार हो, चाहे युद्ध से संसार का संहार हो, इनकी सदा पाचों घी में हैं।
तीसरा टैक्स उनपर लगे जो अपने देश मंे बनी अच्छी चीज छोड़कर शौक से बड़े आदमी बनने के लिए विलायती चीज खरीदते हैं।
चौथा टैक्स उन ब्रज कृपण कंजूसों पर लगे जो अपना धन धरती मंे गाड़ रखते हैं। आप खाते हैं न दूसरों को खिलाते हैं। न किसी रोजगार में लगाते हैं न लोकोपकार में खर्च करते हैं। सांप की तरह फन काढ़े उस धन पर रखवार बनकर बैठे हैं। यदि कोई उनसे भलाई के काम में खर्च करने के लिए कहने आता है तो उसपर ऐसे फुफुआते हैं कि वह सिर से पांव तक झुलस का भाग जाता है।
पांचवा टैक्स नारद के उन वंशधरों पर लगे जो सदा अपना धन मुकदमें बाजी में लगाकर स्वाहा करते हैं ओर खाली हो जाने पर लोगों को आपस में लड़ाकर घर फूंक देखते हैं। उनको अदालत का दरवाजा देखे बिना रोटी हजम नहीं होती। बात-बात में मुकदमा लड़े बिना पानी नहीं पचता।
छठा टैक्स उनी धनी धनदूसरों पर लगे जो बैकुण्ठ के गुमाश्ते बनाकर काशी, मथुरा, प्रयाग, पुरी, गया, रामेश्वर, द्वारिका आदि धामों में बैठकर यात्रियों को धेनु गाय की तरह फूंका देकर दुहते हैं और लोक शिक्षा, देश शिक्षा एवं सर्वाहित के लिए कौड़ी खरच करने में जिनकी नानी मर जाती है।
सातवां टैक्स उन नादिहंद करमुंहों पर लगे जो सालभर साहूकार की तरह नियम से अषवार डकारते चले जाते हैं लेकिन दाम देने के समय लुआठ दिखाते हैं, मांगने पर किवाड़ बंद कर लेते हैं, निवेदन करने पर निबुआ नून ट हो जाते हैं और नाट नोन चाटते हें और वी पी भेजने से कभी ले या नाट क्लेम्ड का जामा पहन कर घाघरे की आर में छिप जाते हैं।
इतना कह चुकने पर ‘एवमस्तु-एवमस्तु’ की इतनी बुलंद आवाज आई कि आसमान फटने लगा मैं भी आवाज सुनकर उठ बैठा तो देखा चौकीदार जागते रहो, जागते रहो, कहकर चिल्ला रहा था। अब कहीं न होली है न होली की आग है। होश में आया तो अभी फागुन की फसल चारों ओर हरी भरी खड़ी है। लोग खेत खलिहान में एंेडे़, गौंड़े, राह, घाट सर्वत्रा होरी और कबीर बोलते है। ‘यह सपना मैं कहों विचारी, होईहें सत्य गए दिन चारी’।
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Tags गोपाल राम गहमरी साहित्य सरोज
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