राजा रामपाल सिंह हिन्दी के प्रमियों मे थे। उन्होंने विलायत में 14 वर्ष प्रवास किया था। वहां से हिन्दी और अंगरेजी में एक साप्ताहिक पत्रा ‘हिन्दोस्थान’ निकालते थे। आपने स्वदेश लौटकर हिन्दी में पहले पहल ‘ हिन्दोस्थान’ दैनिक निकाला था उसके पहले कानपुर से ‘भारतोदय’ कुछ दिनों तक उदय होकर अस्त हो गया था। स्थायी रूप से कालाकांकर ‘हिन्दोस्था
न’ ही हिन्दी रसिकों को रोज दर्शन देने वाला हुआ।
राजा रामपाल सिंह देशी नरेशों में उस समय एक हो कांग्रेसी थे। हम बात सन् 1888 ई की कहना चाहते हैं जिन दिनों मिल्टर जार्ज यूलके सभापतित्व में कांग्रेस का चौथा अधिवेशन करने के लिए प्रयाग के सुयशवान कांग्रेसी श्री अयोध्या नाथ महोदय अथक परिश्रम कर रहे थे। उस अधिवेशन के हम इसलिए प्रशंसक हैं कि उसी अधिवेशन में पहले पहल कांग्रेस के सभापति का अभिभाषण हिन्दी भाषा में प्रकाशित हुआ था। उसका प्रकाशन करने वाले कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह ही थे। कालाकांकर हनुमत् प्रेस की एक शाखा प्रयाग स्टेशन के ा शुक्ल थे। उन्हींÙपास ग्रेट ईस्टर्न होटल में थी जिसके मैनेजर श्री गुरुद शुक्ल जी ने जार्ज यूल साहब की स्पीच को हिन्दी में छापकर कांग्रेस के अधिवेेशन में वितरित कराया था। उस होटल को राजा साहब ने खरीदकर उसका नाम राजा-होटल रखा था जब आप प्रयाग पधारते तब उसी में ठहरते थे। उस समय के प्रसिद्ध कांग्रेस महारथी श्री अयोध्या नाथ जी ने राजपूताने में कांग्रेस प्रचार आदि का कार्य-भार कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह को ही सौंप दिया था। राजा साहब अपना अधिक समय कांग्रेस कार्य में व्यतीत होता था। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर आदि रजवाड़े में जाकर इस कार्य के लिए उस साल राजा रामपाल सिंह ने अनेक व्याख्यान दिये।
राजा साहब कोट, पैंट और हैटधारी थे। एकबार महाराजा उदयपुर से इसी अवसर पर जब मिलने गये और समय निश्चय करने के बाद महलों में पहुंचे तब भी भीतर बूट पहने ही चले जा रहे थे। उदयपुरीधीश के यहां जब यह खबर पहुंची तो आपने कोई निश्चित मखमली बहुमूल्य कालीन अगले कमरे में बिछा देने की आज्ञा दी। उसी समय उसकी तामीली हुई।
राजा रामपाल सिंह जब अगले कमरे में जाने के लिए चौखट पर पहुंचे तब उस फर्श को देखकर वह स्वयं एक ब एक रुक गये और झट आपने अपने नौकर को बूट खोलने का इशारा किया। बिना किसी के निवेदन के ही राजा साहब बूट उतार कर अंदर गये। उस कमरे में जो कारचोबी की सजावट से भरा अनमोल कालीन बिछा देखा, उसपर मुग्ध होकर राजा साहब ने स्वयं बूट छोड़ कर ही भीतर जाना उचित समझा। वहां महाराज उदयपुर से राजा रामपाल सिंह की राजनीतिक विषयों पर बहुत बातें हुई। महाराजा साहब को आपने कांग्रेस कार्य उसके उद्देश्य अच्छी तरह समझाये और ाव्य बतलाया।Ùदेशी राज्यों का कांग्रेस के प्रति कर्
ााओं से देशभक्तिपूर्ण कार्यों की सराहना की थी।Ù महाराजा साहब ने सब बातें सहानुभूतिपूर्वक सुनी और कांग्रेस कार्यकर्
कांग्रेस का जब प्रयाग में चौैथा अधिवेशन हुआ तब एंटी कांग्रेस कहलाने वाले दो नामी आदमी कांग्रेस के स्टेज पर व्याख्यान देने के लिए उतावले थे एक राजा शिव प्रसाद सितारेहिन्द और दूसरे थे लखनउ$ के मुंशी नवल किशोर साहब, जिनका पुस्तक प्रकाशन कार्य में आज भी प्रांत में सुनाम है।
लेकिन ज्योंही ये दोनों महाशय मंच पर बारी बारी से बोलने गये। कांग्रेस पंडाल में विरोध की आवाज बुलंद हुई कि कुछ भी बोलने से पहले असमर्थ होकर उन्हें लौट जाना पड़ा। विरोधी की बात सुनने की शक्ति या सामर्थ्य उस समय कांग्रेस में नहीं थी।
व्याख्यान वाचस्पति दीनदयाल शर्मा जी उन दिनों भारत वर्ष में सुप्रसिद्ध हिन्दी वक्ता थे, जिनके व्याख्यानों की भारत भर में धूम मची हुई थी। कांग्रेस मंच पर उन्हें व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सदुद्योग महामना पूज्य पंडित मदनमोहन मालवीय जी द्वारा हुआ था। व्याख्यान वाचस्पति जी ने सहर्ष स्वीकार करके यह अभिप्राय प्रकट किया कि वह व्याख्यान हिन्दी में देंगे और विषय दो में से एक कोई हो। पहला गोरक्षा हो या हिन्दी भाषा हो।
उस कांग्रेस अधिकारियों को यह स्वीकार नहीं हुआ।
जब विरोध और हो-हल्ले के मारे राजा शिव प्रसाद और सितारे-हिन्द मुंशी नवलकिशोर महोदय कांग्रेस मंच पर बोलने से वंचित होकर लौटे तब बड़ी छीछालेदर हुई। लेकिन ससम्मान दोनों महाशय पंडाल से विदा हुए।
िटनेंट¶ प्रयाग में कालविन साहब बैरिस्टर कांग्रेस के पक्ष में थे और ले गर्वनर सर कालविन सरकार के। सरकार का जो भाव कांग्रेस के प्रति था और है, वही भाव उनका था। सुना दोनों भाई-भाई थे। मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नाका उदाहरण ामान था। कांग्रेस का काम उनदिनों बहुत जोरों पर था।Ùवहां साक्षात् वर् ीन तैयबजी, के.टी.íसर्व श्री डब्ल्यू. सी. बनर्जी., दादाभाई नौरोजी, बदरू तैलंग जी, लोकमान्य तिलक जी, सर फिरोज शाह मेहता, आनन्दाचार्य, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, हसन इमाम, सर सत्येंद्र प्रसाद सिंह, रहमतुल्ला-सयानी, सी. शंकर ा, दिनशा एदलजी बाचा, लालमोहन घोष,Ùनायर आनंद-मोहन बसु, सर रमेशचंद्र द गोपाल कृष्ण गोखले, रासविहारी घोष, अंबिका चरण मजूमदार, विशन नारायण दर, लभाई पटेल, मोतीलाल नेहरू,êभूपेंद्रनाथ बोस, एनी बेसेंट, सर बि यर, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्र पाल और¸ण्यम अãविजयराघवाचार्य, सुब्र ू ब्राडला आदिîविदेशी सज्जन सर्वश्री हेनरी काटन, बेब साहब, बेव वर्न ह जीवित थे।
राजा रामपाल कहा करते थे कि जो भारतीय श्वेतांगों से मार खाकर या अपमानित होकर अपनी मान मरम्मत के लिए अदालत की शरण में जाते हैं वे कायर ही नहीं भारतीय वीरों के मुंह पर दाग लगाने वाले हैं। श्वेतांग इस कायरपन को बहुत हेय समझते हैं। उनसे अपमानित होने पर जो भारतीय ‘फेस टू फेस’ लड़ जाते हैं, ‘फूट टू फूट’ भिड़ जाते हैं, उनकी वीरता से वे लोग नाखुश नहीं होते। मार खानेपर हिंदुस्तानी श्वेतांगों पर मानहानि की नालिश करते हैं पर श्वेतांग इस व्यहार को इतना नीच समझते हैं कि मार खानेपर किसी से उसका जिक्र भी नहीं करते।
ियों का लेखक भी उनके साथ था।ä एक बार राजा साहब बंबई जा रहे थे। इन पं इलाहाबाद स्टेशन पर अपना सामान फर्स्ट क्लास में रखवा कर वे प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। उस कंपार्टमंेट पर ‘यूरोपवालों’ के वास्ते, लिखा था। इतने में जल्दी जल्दी एक साहब वहां पहुंचा और कोई हिंदुस्तानी सवार है सुन कर नौकरों से उनका सामान प्लेटफार्म पर फेंका कर आप उसमें सवार हुए। गाड़ी खुलने के समय जब राजा साहब अपने बर्थ पर पहुंचे तब सामान प्लेटफार्म पर देखकर झल्लाये, साहब से बातें हुई। उन्होंने अपने हाथ की छड़ी से राजा साहब को वहो देखने का इशारा किया जहां ‘फॉर यूरोपियन’ लिखा था। राजा साहब ने छड़ी छीन कर साहब को इतना मारा कि वे गाड़ी से गिर गये। तब उन्हें उठाकर प्लेटफार्म पर रखा दिया। नौकरों ने उनका सामान उतार अपना सामान लादा। गाड़ी सीटी देकर चलने लगी। स्टेशन मास्टर यूरोपियन थे। खबर पाकर पहुंचे लेकिन गाड़ी चल चुकी थी। जब आपने सब हाल सुना और मालूम किया कि राजा रामपाल सिंह थे, वे चुप हो रहे। साहब ने भी कहीं कुछ फरयाद नहीं की। मैंने राजा साहब से ही सुना वह कोई हिन्दुस्तान में रहने वाले साहब थे। उसकी मां प्रसव के समय विलायत गयी और वहां उनके पैदा होने पर फिर भारत लौट आयी। राजा साहब उन्हें मारते वक्त कह रहे थे कि तेरी मां जन्म के समय विलायत गयी तो तू यूरोपियन हो गया। हम चौदह वर्ष तक विलायत में रहकर यूरोपियन नहीं हुए?
एक बार राजा साहब अपने राज्य होटल के कमरे में ठहरे थे। राजा साहब का रात को जगने और दिन को सोने का अभ्यास था। उस रात को गानवाद्य हो रहा था। राजा साहब के किसी नौकर ने आधीरात को खबर दी कि बगल वाले कमरे के द्वार पर कोेई श्वतांग कुछ बक रहा है। राजा साहब ने बाहर आकर सुना तो वह गालियां बक रहा था। वहीं पटक कर बड़ी मार दी। फिर नौकर उन्हें बेहोशी में उनके बिछौने पर कर आये। उनकी इच्छा न होने पर भी मामला अदालत गया।
अदालत में साहब ने जिरह में कह दिया कि जिसने हमको मारा उसके मुंह से शराब की बू आ रही थी। अदालत में राजा साहब के वकील ने कहा कि हमारे राजा साहब कालकांकर नरेश कभी शराब नहीं पीते। इस बयान पर मुकदमा खारिज हो गया। लेकिन दो सिपाही छः महीने के वास्ते मुकर्रर हुए कि देखे राजा साहब शराब पीते हैं या नहीं। राजा साहब ने छः महीने तक शराब की एक बूंद भी ग्रहण नहीं की, यद्यपि निरीक्षण करने वाले सिपाही कालकांकर से बहुत दूर रहते थे लेकिन राजा साहब में ऐसी इच्छा शक्ति थी कि छः महीने तक छुई तक नहीं। राजा साहब जुल्फ रखते थे। जुल्फ के बाल खिचड़ी थे। हमने स्वयं देखा था, वे कभी जुल्फ में तेल नहीं लगाते थे। उनके यहां मिस्टर मेेल्हर नामक एक श्वेतांग उनकी सर्विस में थे। उनको हम उर्दू पढ़ाया करते थे। उस समय उनके दो भाई श्रीमान लाल राम प्रसाद सिंह और श्री नारायण सिंह जी बहादुर थे। राजा साहब की मृत्यु लकवा से हो गयी। उनके पश्चात् श्री मान लाल राम प्रसाद सिंह के माननीय पुत्रा अधिकार हुए। उन्हीं के वंशज कालाकांकर नरेश हैं।
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