बेकार की बातें -वंदना

मैं खाट पर पड़े-पड़े धूप में बैठा मोबाइल देख रहा था। मां अपनी दिनभर की दिनचर्या में व्यस्त थी तभी घर का दरवाजा बजा।मां ने बिना देखे ही डिब्बे से दो रोटी निकाली और दरवाजा खोलने चली गई।अब उसके हाथ पहले की तरह काम नहीं करते थे और अब पैरों में भी कहां जान थी।जरा सा आंगन पार कर दरवाजा खोलने में उसे तीन-चार मिनट लगते।मैं निठल्ला बहाने बनाता रहता और सरकारी परीक्षा की तैयारी में लगा रहता।मुझे तो सरकारी नौकरी चाहिए थी। प्राइवेट नौकरी में मेरा मन नहीं लगता था।हाड़ तोड़ मेहनत करवाते छुट्टी के नाम पर हमेशा ना..ना.. ही करते रहते। मां अकेली ही घर का सारा काम करती हमेशा कहती- “बेटा नौकरी कर ले तो तेरा ब्याह कर दूंगी।घर में लाडी आ जाएगी तो मुझे भी थोड़ा आराम मिल जाएगा।

मैंने मां की बातों को कभी सीरियसली नहीं लिया बस यही सोच था कौन अपनी जिम्मेदारियां बढ़ाए अभी अकेला मस्त मौला हूं।बैठे-बैठे मां के हाथों दोनों समय भोजन की थाली मिल रही है और क्या चाहिए।बस ऊपरी मन से मां को धोखा देता। मां भी थोड़ी उम्मीद लगा कर फिर से काम पर लग जाती।मां ने दरवाजा खोला।सामने भिखारिन को देख कर उसे हल्के कापते हाथों से उसे रोटी दी। मैं ऊपर से देख रहा था हमारी गली में दिनभर भिखारियों का ताता लगा रहता।रोज दो चार भिखारी तो दरवाजे खटखटा ही देते।मां भी इतनी उदार कि किसी को खाली हाथ नहीं जाने देती।खुद कष्ट सरकार दूसरों को देने का भाव मां में कूट-कूट कर भरा था।

पिता अपने पीछे घर और दुकान छोड़ गए थे।दुकान पर मेरा छोटा भाई नन्हे बैठता।छोटा भाई और मां ही थे जो जीवन रूपी परिवार की गाड़ी खींच रहे थे।मैं अपनी सरकारी परीक्षा की तैयारी करने के चक्कर में ज्यादा निखट्टू हो गया था।मां भिखारी को रोटी देकर अंदर चली गई।अब सूर्य देवता की विदाई का भी समय हो गया था पर मैं अभी छत पर ही था। फिर से दरवाजा बाजा इस बार मां ने मुझे आवाज दी।कहा – “लखन जरा देख तो बेटा कौन आया है, मैं कपड़े धो रही हूं, देख तो जरा।मैं बेमन से नीचे उतरकर आया दरवाजा खोला सामने फिर एक लड़का भीख के लिए खड़ा था। मैंने कहा- “जाओ भाई, अभी घर में कोई नहीं है,बाद में आना। मां ने मेरी बात सुनी तो अंदर से ही चिल्ला पड़ी। “उसे खाली हाथ मत जाने दे, उसे रोटी दे। मैंने रसोई में जाकर रोटी के डब्बे से रोटी लाकर उसे दी।

अब मेरा पारा भी सातवें आसमान पर चढ़ गया।मैं तुनक कर मां के पास गया बोला- “मां यहां क्या खेरात बट रही है जो भी आता है रोटी ले जाता है। मां ने कहा- “हम जब किसी को एक रोटी देते हैं तो भगवान हमें दस देता है, तू इन सब बातों को कहां समझता है, दान पुण्य मानव जीवन को सार्थक करने का एक सफल तरीका हैं बेटा,अभी मैं जिंदा हूं तो तुम्हें मेरी बातें बेबुनियाद लगती है ,जब मैं मर जाऊंगी तब मेरी बातों को याद करेगा कि मां ऐसा कहती थी,मां वैसा करती थी। कहते हुए मां ने मेरी नजरों में प्यार से देखा। मैं बुद्धू सा सिर खुजाता हुआ मां की बातों को बिना समझे उसे देखकर अपने काम में लग गया।

अचानक उसी रात मां को दिल का दौरा पड़ा और मां हम दोनों भाइयों को छोड़कर परलोक सिधार गई । मैं तो ऐसा हो गया जैसे जल बिन मछली। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आगे की गाड़ी कैसे चलेगी सभी कुछ मां हाथों में दिया करती थी। उसके जाने का गम मुझे ही नहीं पूरे मोहल्ले को हुआ था। मां जैसी उदार मोहल्ले में कोई और नहीं थी सभी आकर मां को श्रद्धांजलि दे रहे थे। मां क्या गई मेरा तो सारा जहां ही उजड़ गया। अब तो सुबह की चाय भी नसीब नहीं होती। खुद ही बनानी पड़ती है। मेरी मां बहुत ही परोपकारी थी सारे मोहल्ले के लोगों को जरूरत पड़ने पर आधी रात को दौड़ी चली जाती। अपने इस स्वभाव के कारण वह सभी की प्रिय थी। मैं मां की अस्थियों को लेकर विसर्जन के लिए हरिद्वार के लिए निकल पड़ा। घर से निकलते वक्त नन्हे ने मुझे पड़ोस की चाची से सब्जी,रोटी लाकर दी।कहने लगा-“भैया रात होने पर खा लेना, मैंने खाना सहेज कर अपनी बैग में रख लिया।

मैं स्टेशन पहुंचा तो गाड़ी थोड़ी लेट थी। मैं वही बेंच पर बैठ गया तभी सामने एक भिखारन आकर खड़ी हो गई उसके साथ 3 वर्ष की छोटी उसकी बेटी भी थी वह बहुत ही दयनीय हालत में थी।”बेटा कुछ खाने को हो तो दे..दे.. बच्ची भूखी है।मैंने पहले उसे हिकारत भरी नजरों से देखा तभी मुझे मां की याद आई मैंने अपना बैग खोला तो मां की अस्थियों के साथ मेरा खाना भी रखा था।मैंने बिना खोल ही खाने का पैकेट उस भिखारिन को दे दिया इसी बीच गाड़ी आ गई।मैं गाड़ी में बैठ अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।मेरे पास खाने को कुछ भी नहीं था।सोचा रास्ते में स्टेशन आएगा तो खरीद लूंगा लेकिन मुझे क्या पता था कि गाड़ी कहीं भी ज्यादा देर तक रुकेगी ही नहीं….।
भूख के मारे मेरी अटरिया गुडगुडाने लगी थी।मेरे नीचे वाली बर्थ पर एक औरत अपने बच्चों के साथ सफर कर रही थी उसके साथ बड़ा भारी सामान था।ट्रेन खचाखच भरी हुई थी मैंने उसकी मजबूरी को देख उसका सामान व्यवस्थित रखवा दिया। उसने चैन की सांस ली और मुझे धन्यवाद दिया।बातों-बातों में बच्चों से मेरी दोस्ती हो गई।हमने खूब अंताक्षरी खेली समय कब निकल गया। मुझे पता ही नहीं चला,मैं अपनी भूख भूल गया।अगले स्टेशन गाड़ी रुकी तो मैं नीचे जाकर कुछ खाने के लिए पर्स निकाल ही रहा था कि ट्रेन चल पड़ी।
आज तो भूखा ही सोना पड़ेगा यही सोच कर मैं चादर निकालकर लेट गया।तभी मुझे नीचे से खाने की खुशबू आने लगी। वह औरत अपने बच्चों को खिलाने के लिए खाना निकाल रही थी।उसे प्लेट निकाली।नीचे से आवाज आई भैया, ओ…. भैया…. यह लो खाना खा लो। मैं सोने का नाटक करने लगा, मुझे लगा किसी और को कह रही हैं।उसके बच्चे ने ऊपर चढ़कर मुझे हिलाया।मैंने चादर हटाई तो वह औरत बोली- “भैया यह लो खाना खा लो.. मैं देख रही हूं, जब से आए हो कुछ खाया नहीं है,खाली पेट सो गए तो नींद नहीं आएगी।
मैंने देखा तो उसमें मुझे सब्जी चार पराठे,नमकीन दो पेठे प्लेट में रखकर दिए।मैंने सहर्ष ही उससे खाना लेकर खा लिया।
सुबह जब गाड़ी रुकी तो मां की अस्थियां विसर्जन कर जब मैं लौटा तो उस वक्त में फफक कर रो पड़ा। अंतर मन की आवाज बस मां को ही याद कर रही थी उसके शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे कि हम एक देते हैं तो भगवान हमें हमेशा दस देता है।
आज सचमुच मुझे मेरी मां के अच्छे कर्मों के फल की वजह से भूखा नहीं रहना पड़ा। आज सचमुच मुझे मेरी मां की बहुत याद आ रही थी।
मैं अस्थि विसर्जन कर कुछ देर पानी में मां के प्रतिबिंब को महसूस कर यूं ही बैठा रहा।जिंदगी में मैंने कभी मां को और उसकी बातों को महत्व नहीं दिया लेकिन अब वह मुझे बहुत ही ज्यादा याद आ रही थी।मैं अपना निठल्ला पन छोड़ आंखों के आंसू पूछते हुए वहा से निकला।अब मुझे छोटे भाई की फिक्र बहुत सता रही थी अब मैं पहले वाला लखन नहीं था मां के जाने के बाद अब मुझे मेरी जिम्मेदारियों का एहसास होने लगा।मैं जल्दी से जल्दी घर के लिए रवाना होने का मन कर रहा था लेकिन ट्रेन लेट थी।मैं मां की उन बातों को बेकार की बातें कहता था आज उसका मतलब समझ चुका था। असल में जिंदगी जीने के यही सही मायने है। यही सोच मन में ठाना कि मैं भी अपनी मां की तरह ही देने वाला बनूंगा,लेने वाला नहीं। अब मुझे मेरी मां की बहुत याद आ रही थी।मेरे पैर घर पहुंचने के लिए बेताब हो रहे थे।


वंदना पुणतांबेकर
इंदौर

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