आधुनिक युग में अति महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गया है बच्चों का बचपन ‘प्रतियोगिता लेखन
सम्मानित
बचपन अर्थात मौज-मस्ती, आमोद-प्रमोद, खेलकूद, नटखटपन, शरारत, चुहलबाजी ये ही तो सब हैं ना …? ये तभी संभव है जब बच्चों को उसका साथ मिले I ज्यादा ढीलाई या ज्यादा कसना दोनों नुकसान हीं करते हैं I फिर भी पढ़े-लिखे समझने वाले समाज ने बुद्धि पर मायाजाल की टोपी पहन रखी है I बच्चों की आत्महत्याएँ, घर से पलायन, इसके जिम्मेदार कौन…?
इन सब के पीछे ज्यादातर माता-पिता की अति महत्वाकांक्षा ही है जिसमें बच्चों के बचपन की बली चढ़ायी जा रही हैं I देखा जाएँ तो ये बचपन की नहीं अपितु अपने ही बच्चों की आहुति दे रहे हैं I कभी-कभी बच्चों की अति महत्वाकांक्षा को भी नजर अंदाज़ नहीं कर सकते I लेकिन ऐसे उदाहरण विरले हैं I “मेघवाल के लड़के ने शत प्रतिशत अंक पाए हैं मैट्रिक की परीक्षा में, तुम भी उतनी मेहनत करो , बस दिनभर खेल-कूद और उधम मचाते रहते हो I”
प्रत्येक बच्चे का बुद्धि का घड़ा होता है जिसमें अनुपात से ही बुद्धि की समझ रहती है I सख्ती से घड़ा फूट जाएगा या बच्चों को उनकी उदंडता पर उचित प्रकारे समझाया नहीं तो घड़े अंदर ही अंदर रिसाव होकर बुद्धि भ्रष्ट होकर बह जाएगी I बच्चों का रुझान मनपसंद विषय के तरफ़ है फिर भी उसे प्रोत्साहन देने के बदले केवल खुद के अहम के लिए या मैं नहीं बन सका, मेरा लड़का तो बने, इसी पर उनके विचारों का घोड़ा ‘अड़ियल टट्टू’ सा बैठ जाता है I बहुतांश घरों में अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चे पढ़े ये सपना देखा जाता है जो सर्वथा अनुचित है I
गरीब से गरीब मजदूर भी इससे अछूता नहीं है I खुद के पास समय का अभाव या अंग्रेजी ना आना भी ट्यूशन लगाने का एक मात्र बहाना बन गया है I यदि पढ़े-लिखे माता-पिता है तो अवश्य बच्चों के लिए कुछ समय निकाल उन्हें पढ़ाना चाहिए और पढ़ाई के अलावा समय निकाल कर उनसे बात करना, उन्हें आगे जाकर क्या बनना है उसके लिए उचित मार्गदर्शन करना चाहिए I कभी-कभी उन के साथ गपशप, मस्ती, ढुशुम-ढुशुम भी करना फायदेमंद होता है I बच्चे भी खुल जाते हैं और खुलकर अपनी बात भी कह पाते है I
इससे उनका दिमाग भी शांत रहता है I हमेशा पढ़ाई का डंडा लेकर बैठने से और अपनी इच्छाएं उन पर थोपने से बच्चे मानसिक अवसाद में चले जाते हैं I फिर डर से घर से भागना या कुंठित होकर आत्महत्या जैसी घटनाएँ होना स्वाभाविक हैं Iमातृभाषा में शिक्षण होने से बच्चे भी आसानी से समझ जाते हैं , लेकिन बड़ों के दिमाग पर अंग्रेजी का भूत हावी होता जा रहा हैं I मेरा बच्चा कितना होशियार है ये दिखाने के लिए भी मेहमानों के सामने उसे जबरदस्ती पोयम्स बोलने के लिए कहा जाता हैं I बड़ों के साथ बच्चा कैसे बैठ सकता है? उसका दिल तो बाहर जाकर खेलने के लिए मचलता है I केवल अपनी झूठी शान के लिए बच्चों को शिकार बनाया जाता है I माता-पिता के आकांक्षाओं के विकराल जबड़े में उनका बचपन स्वाहा होकर हमेशा एक मानसिक तनाव में बच्चे रहते हैं I
‘दो कलिया’ फिल्म का ये गाना …‘बच्चे मन के सच्चे’ या
फिर ‘दीदार’ का गाना ….‘बचपन के दिन भुला ना देना’
इन दोनों गानों में बच्चों के मन की कोमलता तथा बचपन के सुहाने दिनों की याद दिलाती है I समय के पहले ही बच्चों का बचपन पतझड़ के पत्तों के समान पाँव के निचे कुचला जाता या इधर-उधर भटकते, हिचकोले खाकर बहते जाता है I विभक्त कुटुंब पद्धति से दादा-दादी का प्यार भी बच्चों को नसीब नहीं होता है I इन बड़ों के अनुभव, दैनंदीन व्यवहार, कार्य कुशलता या बच्चों के साथ मस्ती, खेलकूद करना इन बातों का अभाव स्वाभाविक तरीके से असर करता है I यदि माता-पिता या दोनों में से एक भी बच्चों के साथ अपना समय दे और उनसे मन की बात कहें या उनके मन की बात जानने का प्रयत्न करे तो जो दूरियाँ बढ़कर खाई उत्पन्न होती है उसे दूर किया जा सके I केवल डांटने से नहीं तो प्यार से बात को समझाने से बच्चे समझ जाते हैं I
यदी बच्चा किसी भी विषय में कमज़ोर है और माता या पिता शिक्षित हैं तो बच्चों को उपवन या अन्य ऐसी जगह लेकर जाना चाहिए जहाँ मुक्त वातावरण, फूल-पौंधे , नदी, समुद्र जैसी जगह हो वहाँ भी खेल-खेल में बच्चों को सीखाया जा सकता है I आजकल वैसे भी विषय और पुस्तकों का बोझ इतना होता है कि काँधे पर बस्ता लेकर उठाना या चलना इसका असर उनके काँधे, गर्दन और रीढ़ के हड्डियों पर भी होना लाजमी है I दो किलो की काया पर दस मन का बोझा, ऊपर से घर में पढ़ाई न करना या केवल खेल में ध्यान के लिए बच्चों को हरदम डांटना ठीक नहीं है I कोमल मन के पौधों को आवश्यकता के अनुसार ही स्नेह, प्यार का खाद और समझदारी का पानी डालने से ही वे आगे विशाल वृक्ष बन पाएँगे I परंतु खुद की अति महत्वाकांक्षा के लिए जबरन उन्हें केवल पढ़ाई में बिठाना सही नहीं हैं I उनकी प्रगति में अवरोध होगा I
ये भी देखने में आया है कि बच्चों को पाठशाला के बाद कोचिंग के साथ ही अन्य विषयों के लिए जाना पड़ता हैं जैसे गायन , वादन, टेनिस आदि अन्य विषय I उनके पास अपने पडोसी मित्रों के साथ खेलने के लिए समय ही नहीं बचता है और जो थोड़ा समय है उसमें तुरंत गृहपाठ और खाना खाकर सोना I बस हो गई दिनचर्या I शारीरिक व्यायाम के साथ मानसिक तंदुरुस्ती भी आवश्यक है जिसका विस्मरण बड़ों को कैसे होता है ? वे अपना बचपन भूल गएँ और केवल जिद के कारण बच्चों के ऊपर उनका अहम् थोपा जा रहा हैं I बच्चों का कुम्हलाना भविष्य बिगाड़ता है I प्यार की कोंपले फूटी ही नहीं तो वृक्ष कैसे बनेगा I समझदारी में ही जागरूकता है, नहीं तो परिणाम घातक होते हैं I
अपनी जिद पर अड़े हैं बुजुर्ग
बचपन का हर नन्हा सपना
थककर बुढ़ा होकर लौटा II
किताबों का कीड़ा
चाँद से मुखड़े पर
बैरंग लिफ़ाफा लौट आया II
डॉ .नीलिमा तिग्गा
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