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वर्तमान समय में हिंदू त्योहारों का बदलता स्वरूप

        धन्य है वह देश, धन्य है वह प्रदेश, धन्य है वह धरती, और धन्य है वह भारतीय संस्कृति, जहा मानव को उच्च उदार और भगवत भक्त बनाने में सहायक व्रत और त्योहारों को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। कालिदास ने उचित कहा है…. 

*उत्सव प्रिया: खलु मनुष्या:*

सभी को उत्सव या त्योहार मनाना अच्छा लगता है चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक विद्वान हो या अतिशय मतिमंद या दीन हीन धनहीन या साधन हीन सभी प्रकार से लोग किसी न किसी आध्यात्मिक, सामाजिक ,राजनीतिक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक घटनाओं और परंपराओं से जुड़े हुए हैं और उनकी गरिमा महिमा उपयोगिता और आवश्यकता को हिंदू धर्म स्वीकार करता है।त्योहार शब्द अपने आप में  *गागर में सागर*  की भांति बहुत व्यापक है यहाँ *सात बार नौ त्यौहार* का चलन है विक्रम संवत के प्रथम मास चैत्र से यदि आरंभ करते हैं गुड़ी पड़वा, गणगौर व्रत ,शीतला माता का त्यौहार ,नवरात्रि का त्यौहार, दुर्गा पूजा, रामनवमी, गंगा दशहरा ,नाग पंचमी रक्षाबंधन ,कृष्ण जन्माष्टमी, अनंत चतुर्दशी ,श्राद्ध पक्ष, विजयादशमी, शरद पूर्णिमा, करवाचौथ ,धनतेरस, दीपावली, अन्नकूट ,यम द्वितीया, गोपाष्टमी कार्तिक पूर्णिमा संकट चौथ, मकर सक्रांति ,बसंत पंचमी , महाशिवरात्रि और वर्ष के अंतिम मास में फागुन में होली का उत्सव।  

भारतीय त्योहारों का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। लेकिन इनमें से कुछ नाम विलुप्त होते जा रहे हैं विलुप्त होती पेड़ों की प्रजाति और पक्षियों पर अगर कार्य चल रहा है तो विलुप्त होते हुए भारतीय त्योहारों पर भी खोजबीन की जाना चाहिए। आज की वर्तमान पीढ़ी इन त्योहारों की महत्ता और लोक कथा से परिचित नहीं है वह जितने जोश- खरोश के साथ जन्मदिन और नव वर्ष या क्रिसमस का त्यौहार मनाती है उतने जोश के साथ हमारा नव वर्ष गुड़ी पड़वा उन्हें ध्यान नहीं रहता या चैत्र नवरात्रि वह भूल चुके हैं। यदि हम नव वर्ष से ही आरंभ करें तो 1 जनवरी हमारा नव वर्ष नहीं है यह पश्चिमी सभ्यता की देन है! और पाश्चात्य देशों में इसको जिस प्रकार मनाया जाता है वह सब हम भारतीय समाज में कर रहे हैं रात्रि कालीन पार्टियां और शराब की दावत यह आज के त्यौहार मनाने का तरीका है। और बचे कुचे 80-85 वर्ष की आयु पार कर चुके बुजुर्ग जन केवल गुड़ी पड़वा पर थोड़ा एक दूसरे को बधाई दे देते हैं लेकिन नौजवान पीढ़ी इससे अनभिज्ञ रहती है।

गणगौर का त्योहार या शीतला माता का त्यौहार आज विलुप्त होता जा रहा है शीतला अष्टमी या सप्तमी की पूजा में ठंडा भोजन खाना आज की नौजवान पीढ़ी को मंजूर नहीं। केवल क्षेत्रीय राजस्थान या उत्तर प्रदेश में थोड़ा इसका जोर है महाराष्ट्र और राजस्थान में यह त्यौहार अभी भी काफी उत्साह से मनाया जाता है लेकिन वहीं पर जहां के वरिष्ठ  ,बुजुर्ग ना होकर वृद्धाश्रम की शरण में ना चले गए हो। नवरात्रि या दुर्गा पूजा जितना पवित्र शक्ति  संस्कार देने वाला तैयार है ,वर्तमान में उसका स्वरुप चंदा इकट्ठा करना और गरबा खेलना जिसमें गुजरात की नकल करते हुए हर प्रदेश में नवयुवक और नवयुवतियाँ आपस में देर रात तक गरबा खेलते हैं लिव इन रिलेशनशिप में रहते हुए दुर्घटना के शिकार होते हैं। और महाराष्ट्र और गुजरात का एक आंकड़ा चौंकाने वाला था कि नव रात्रि के समय होने वाले गरबे के पश्चात गर्भपात की संख्या बहुत बढ़ जाती है।

रामनवमी गंगा दशहरा नाग पंचमी यह त्यौहार हम भूलते जा रहे हैं नाग पंचमी तो अब केबल आभासी रूप में मनाई जाती है। भारतीय अधिनियम की धारा 428 और 429 भी वन्यजीवों या सरीसृप को पकड़ना अपराध घोषित करती है और इसके लिए 2 वर्ष की सजा का प्रावधान है।  विलुप्त होती प्रजाति को बचाने के लिए सपेरे भी जुर्माने के डर से नाग को दूध पिलाने से डरते हैं। समाज में वैसे ही दुष्ट रूपी नाग और भेड़िए के लिए कोई कानून क्यों नहीं बनता ।फिर वर्तमान पीढ़ी कैसे जान पाएगी की गंगा दशहरा नाग पंचमी क्या होती है।रक्षाबंधन मनाने की परंपरा अभी विधिवत् चालू है लेकिन उसका स्वरूप बदल गया है भाई बहन की रक्षा करने के वचन देने के बाद भी अपने वादे से मुकर जाता है। और बहन उसका मुंह मीठा कैडबरी चॉकलेट से ही करवा पाती है। और उसके बदले भी मोटी दक्षिणा का प्रावधान है बेटियों को माता पिता की संपत्ति में बराबरी का हक भी इस त्यौहार की चमक को थोड़ा कम कर रहा है। भाई बहन का पवित्र रिश्ता भी अब व्यवसायिक होता जा रहा है।

कृष्ण जन्माष्टमी अनंत चतुर्दशी और श्राद्ध पक्ष 1 दिन में समाप्त हो जाने वाले त्यौहार हो गए हैं आप अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए अगर गया कर आए हैं तो यह केवल श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तक ही सीमित हो गया है। कृष्ण जन्माष्टमी केवल वृंदावन और मथुरा में गोपियों के बीच कन्हैया बने आधुनिक कान्हा और गीतों के बीच ही सुनाई देती है। दीपावली और दशहरा-रामराज्य और रावण का अंत त्यौहार महीने भर तक चलता था और स्कूलों की छुट्टियाँ भी दिवाली के नाम से 25 दिनों की होती थी जो अब चार दिन की चांदनी बनकर रह गई है। रेडीमेड बाजार से मिठाई आ जाती है और लक्ष्मी जी खरीद कर पूजा कर दी जाती है दीयों के प्रकाश में जो बरसात के बाद कीड़े मकोड़े पनपते थे अब वह मरते नहीं चाइनीस झालरों के प्रकाश में आवारा घूमते रहते हैं यह सब पुरानी परंपराओं को तरीकों को विस्मृत कर देने के कारण कोरोना जैसी महामारी सुरसा के मुंह के समान फैलती जा रही है । 5 दिन तक चलने वाला यह त्यौहार केवल बाजार की रोनक बनकर रह गया है। वर्तमान पीढ़ी यह जानती ही नहीं है कि रूप चौदस या नरक चौदस क्या होती है उन्हें तो ब्यूटी पार्लर में सौंदर्य प्रसाधनों पर धन खर्च करना और लिपाई पुताई कराना ज्यादा हितकर लगता है। धनतेरस क्यों मनाई जाती है और भाई दूज जब अम्मा गाती थी…. 

धर मारो वेरियरा….और बेर की कांटेदार दंडी को मुसल से कुचलती थी तो सच में लगता था कि जैसे हमने भाइयों के दुश्मन को समाप्त कर दिया है ।यमुना नदी में भाई दूज पर नहाने की परंपरा बहन भाई दोनों भूल गए हैं इसकी कथा सुनाने की आवश्यकता है।

केवल करवा चौथ को जरूर व्यवसायिक रूप से छलनी में चाँद देखना और पानी पीना महिलाएं नहीं भूलती चाहे उसके बाद पति से अपने पैर दबा लें, या माथा। पति की लंबी आयु के लिए किए जाने वाले उपवास और त्योहार वट अमावस्या या वट पूर्णिमा अब केवल निमित्त मात्र की डंडी पूजा में ही सिमटकर रह गए हैं। आंवला नवमी ,वट अमावस्या , और शमी पूजा के लिए अब जगह नहीं बची है उनके स्थान पर कंक्रीट के महल खड़े हो गए हैं और बोनसाई पौधों की पूजा कर रस्म निभा ली जाती है। अन्नकूट, यम द्वितीया ,गोपाष्टमी कार्तिक पूर्णिमा पर कोई अवकाश नहीं होता अतः उसके गीत और स्नान का महत्व वर्तमान पीढ़ी क्या जाने। सरकार भी इस पर बंदिश लगा देती है और हम भी इसको व्यर्थ के ढकोसला कहकर छोड़ देते हैं।

संक्रांति पर जरूर तिल के लड्डू भले ही वह बाजार से खरीद कर  बनाने का और खाने का रिवाज अभी बाकी है लेकिन सूर्य का मकर राशि में प्रवेश का क्या महत्व  है यह वर्तमान पीढ़ी नहीं जानती बसंत पंचमी और महाशिवरात्रि लगभग एक साथ ही आते हैंऔर वैलेंटाइन डे करोड़ों का व्यापार कर जाता है और हम प्रकृति के संधि काल में वातावरण में जो परिवर्तन होता है और प्रकृति की सुंदरता को निहारने वाला त्यौहार केवल पीले वस्त्र और मीठे पीले चावल खाकर संपूर्ण हो जाता है। वर्ष के अंत में आने वाला होली का उत्सव फागुन में पानी की कमी, केमिकल रंगों का प्रभाव और नई पीढ़ी को रूप सौंदर्य की सुरक्षा के कारण केवल 1 दिन तिलक लगाकर गले मिलने तक ही सीमित है होलिका दहन क्यों किया जाए किससे किया जाए और प्राकृतिक रंग कैसे बनाए जाएं यह नई पीढ़ी अभी नहीं सीख पाई है पानी की बचत के लिए और भी तरीके हैं क्या होली जैसे रंगीन त्यौहार पर पानी की बचत करना उचित है आप पानी को व्यर्थ ना बहाकर  नदी तालाबों को स्वच्छ रखिए यह भी पानी की बचत है।

वर्तमान में भारतीय त्योहारों का रंग केवल फिल्मी और व्यावसायिक हो गया है उसमें से भावना सिमटकर राई के बराबर हो गई हैं हमें चाहिए की वरिष्ठ जन  वर्तमान पीढ़ी को लोककथा के माध्यम से इन त्योहारों  का महत्व बताएं और *राई को पहाड़* बनाने में और संस्कृति और संस्कार में धनी भारत हिंदू राष्ट्र की आवाज को बुलंद कर सके।हम जानते हैं वर्तमान पीढ़ी जागरूक है प्रगतिशील है उन्नति के रास्ते खोज रही है पर पुरातन त्योहारों को अपने पैरों में बंधी बेड़िया ना समझे हर्ष और उल्लास केवल लक्ष्मी से प्राप्त नहीं किया जा सकता लक्ष्मीपति भी दुखी हो सकते हैं पर हम इन त्योहारों को हँसी खुशी मना कर आनंदित हो सकते हैं।

सुधा दुबे

16 सुरुचि नगर भोपाल

मध्य प्रदेश

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