नवंबर माह की गुलाबी ठंड से मौसम खुशनुमा हो रहा था ।एसे में स्वर्गीय माथुर साहब की बेटी की शादी की रौनक माहौल को और आकर्षक बना रही थी ,दरवाजे पर सजावट हो रही थी, अंदर से ढोलक की थाप पर सुहाग बन्नी गाई जा रही थी । मगर मिसेज माथुर का मन बेचैन था । वे अतीत की यादों से घिरीं थीं । माथुर साहब के बेटी की शादी के बड़े अरमान थे वे बेटी की विदाई में बहुत कुछ करना चाहते थे परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था उनकी असमय मृत्यु ने मिसेज माथुर को तोड़ दिया था । कुछ दिन तो कट गये रिश्तेदार व मित्र थोड़े दिन तो साथ रहे मगर कब तक ? सब अपने जीवन में रम गए। बच्चों की अकेले परवरिश एक कठिन समस्या थी जो मुंह बाए खड़ी थी ।तब मिसेज आशा माथुर ने शिक्षिका के रूप में अपने जीवन की शुरुआत की और बच्चों को मां-बाप दोनों का प्यार देकर अपना उत्तरदायित्व आज तक निभाती चली आ रही हैं।
आज उनकी आंखों में पति की छवि तैर रही थी । वे अजीब कशमकश में थीं कि समधी जी का स्वागत कौन करेगा ? यह रूढ़िवादी समाज क्या एक विधवा औरत को यह अधिकार देगा कि वह स्वयं समधी जी का स्वागत करें और शादी की रस्में पूरी करें ? वह इसी सोच में व्याकुल हो रही थीं । कहने को तो शादी में रश्मि के ताऊ चाचा मामा फूफा मौसा सभी आए हुए हैं तो उन्हें भी तो यह रिश्ता निभाना चाहिए। तभी रश्मि की बुआ ने आवाज दी ।
-“भाभी किस चिंता में हो… बड़े भैया से कहो बारात और समधी जी का स्वागत करने के लिए ।”
उन्हें तो खुद भाई की जगह खड़े होकर अपना फर्ज समझना चाहिए रश्मि तो उनकी भी बेटी है इस में कहने की क्या बात है । ” आशा जी ने बड़ी व्याकुलता से कहा।
ताऊ जी यह वार्तालाप सुन रहे थे बोले
-” अरे बहू मुझे द्वारचार का सामान लाकर दो और जो कुछ भी समधी जी को देना है ।”
आशा जी एक ट्रे में शाल ,इत्र दान ,नारियल और रुपए लेकर आईं उन्हें देते हुए बोलीं
-” लीजिए भाई साहब .. ये समधी जी के स्वागत का सामान है।”
” बहू बारातियों के स्वागत के लिए फूल माला वगैरह कहां है ? उसका सब इंतजाम हुआ कि नहीं ?
आशा जी घबरा गईं उन्हें तो ध्यान ही नहीं रहा .. पता नहीं माला वगैरा आ पाईं है कि नहीं । वे घबराकर बाहर दरवाजे पर आईं और देखती हैं कि एक 28 , 30 वर्ष का युवक हाथ में मालाएं लिए खड़ा है । वह सोचने लगी यह कौन है मैंने पहले तो इसे कभी नहीं देखा । इतने में बारात दरवाजे पर पहुंच गई और सारे कार्यक्रम विधिपूर्वक होने लगे । ताऊ जी ने समधी जी का गले मिलकर स्वागत किया जय माल की रस्म शुरू हो गई , सभी लोग अपने अपने फोटो खिंचवाने में मग्न हो गये ।आशा जी उस युवक के बारे में सोचने लगी आखिर यह कौन है जिसने माथुर साहब जी की इज्जत बचाई , वरना तो माला के बिना जग हंसाई हो जाती , पर उन्हें याद नहीं आ रहा था कि यह कौन है ? पर इस समय वह देवदूत ही लग रहा था वह दौड़ दौड़ कर सब इंतजाम देख रहा था।
रात्रि को फेरों का समय भी आ गया , कन्या दान को लेकर कानाफूसी होने लगी कि कन्या दान कौन करेगा ? कोई आगे नहीं आ रहा था पर विधवा से कन्यादान कैसे करने को दिया जा सकता है ? रिश्तेदारों का तो काम ही है कुछ न कुछ बात उठा कर टांग अड़ाते रहना । आशा जी सब सुन कर मौन खड़ी थीं उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी । रश्मि सुबह से यह सब देख सुन रही थी , मां को कितने वाक्यबाण झेलने पड़ रहे हैं । उसके सब्र का बांध आखिर टूट ही गया कमरे से बाहर आई और तमक कर बोली -” किस शास्त्र में लिखा है की विधवा कन्यादान नहीं कर सकती जो पति के मरने के बाद अपनी सारी जिम्मेदारियां निभाती है किसी से कुछ नहीं मांगती , अपने बच्चों का जीवन संवारने के लिए अपनी सारी खुशियां दांव पर लगा देती है … वह कन्या दान करने का अधिकार भी रखती है मेरा कन्यादान मेरी मां ही करेगी यह हक मैं किसी को नहीं दूंगी ।”
सब कानाफूसी करने लगे कितनी बेशर्म लड़की है अपनी शादी की बातें सबके सामने कैसे कर रही है आजकल तो जमाना ही बदल गया है बाप का साया क्या उठ गया मुंह जोर हो गई है,शर्म हया तो रह ही नहीं गयी हमें क्या ? करने दो विधवा को कन्या दान… ।जो होगा वो होता रहे हमें क्या पड़ी है और सब चुप हो गए और आशा जी ने ही कन्या दान किया ।
श्रीमती शीला श्रीवास्तव
बी 413
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