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तार सप्तक की कवयित्रियों के कविता में स्त्री-विमर्श-डॉ. माया दुबे

प्रस्तावना– विश्व की विभिन्न संस्कृतियों के निर्माण में स्त्री का योगदान महत्वपूर्ण है। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति एवं सभ्यता के विरमान में स्त्री की भूमिका नि:संदेह अग्रणी है । भारत में स्त्री को देवी के रूप में पूजा जाता था, ईश्वर की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में है। स्त्री की महत्ता माँ पत्नी, भगिनी, बेटी सभी रूपों में महत्वपूर्ण है। प्राचीनकाल में स्त्री को शिक्षा एवं वर चुनने का अधिकार थ। उपनिषदों में स्त्री शिक्षिकाओं का भी वर्णन है, इन्हें उपाध्याया कहा जाता था। (1) वैदिककाल में स्त्री-पुरुष
को सामान अधिकार प्राप्त थे। (2) भारत में पर्दा प्रथा नहीं था, सामजिक उत्सवों और जन सभाओं में भी स्त्रियाँ उपस्थित होती थी उनका स्वागत होता था। (3) राजकुल की स्त्रियाँ ज्ञान-विज्ञान और ललित कला में प्रवीण होने के साथ युद्धकला में भी सिद्धहस्त थी। लेकिन धीरे-धीरे भारत के विविध शासकों के आगमन तथा सांस्कृतिक उथल-पुथल का असर स्त्री के ऊपर भी पड़ा। पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, बालविवाह, इत्यादि कुरीतियाँ आ गईं जिसका नारी के ऊपर भी प्रभाव पड़ा, आर्थिक रूप से भी कमजोर हुई, शिक्षा का भी आभाव हुआ| कई कुरीतियों के आगमन से नारी सशक्तिकरण की जड़ें कमजोर हो गयी। समाज में स्त्री की स्थिति बद से बदतर होती गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई अधिनियमों के माध्यम से धीरे-धीरे नारी सशक्तिकरण हो रहा है।आज पूरे विश्व में नारी की दशा एवं दिशा में बदलाव आया है। तारसप्तक की कवियित्रियों के कविता में स्त्रीविमर्श- स्त्रीविमर्श एक बहुत बड़ा एवं जटिल विषय है। इतिहास, दर्शन, साहित्य, विज्ञान, समाज सभी में स्त्रियों का योगदान हैं, उनके योगदान को देखते हुए सम्पूर्ण आयोगों का अवलोकन आवश्यक है, तभी स्त्री सशक्तिकरण या विमर्श को समझा जा सकता है। जहाँ तक तारसप्तक का प्रश्न है तो यह हीरानंद सच्चिदानन्द वात्सायन ‘अज्ञेय’ द्वारा सम्पादित काव्य संग्रह है। अज्ञेय नयी कविता के आधार स्तम्भ कवि हैं। इन्होने चार तारसप्तक प्रकाशित किये-

  1. तारसप्तक – 1943
  2. दूसरा तारसप्तक – 1951
  3. तीसरा तारसप्तक – 1956
  4. चौथा तारसप्तक – 1976 में
    पहले तारसप्तक में किसी स्त्री लेखिका को स्थान नहीं मिला। परन्तु दूसरे में शकुन्त माथुर, तीसरे में कीर्ति चौधरी तथा चौथे में डॉ. सुमन राजे को स्थान मिला| प्रयोगवादी कवि होने के कारण अज्ञेय जी ने नारी संवेदनाओं को नारी के द्वारा ही साहित्य के माध्यम से हिंदी जगत तक पहुँचाने का प्रयास किया है| तारसप्तक से पूर्व भी नारी विमर्श पर काव्य रचनाये होती रही हैं| शकुन्त माथुर का काव्य संग्रह ‘चाँदनी चूनर’ तथा ‘अभी और कुछ’ प्रकाशित है| सभी नारी संवेदना एवं नारी विमर्श पर मुखर हैं| डॉ. सुमन राजे भविष्य के प्रति सजग हैं, कहती हैं-
    “ मैं दिया नहीं जला सकती |
    पर दीपक रागिनी तो गा सकती हूँ|”(4)
    दूसरे सप्तक में शकुन्त माथुर अपने वक्तव्य में कहती हैं- ‘नारी का सुख उसके घर-गृहस्थी तक सीमित नहीं है, यह मैं नहीं मानती| गृहस्थी के साज-सँवार के बाद भी वह ज्पूरा संतोष नहीं कर पाती, उसे लगता है जैसे वह अपूर्ण है|(5) और अंत में अपने वक्तव्य में शाकुंत माथुर कहती हैं
    वह महिला सशक्तिकरण की जीवंत अभिव्यक्ति है- “कविता जीवित हो, अर्थात वह जीवन के वास्तविक वातावरण और परिस्थितियों की जमीन पर जन्म ले, इसी में उसकी पूर्णता है, और अब स्त्री दृष्टिकोण के सहारे मैं आगे बढूंगी|”(6)
    शकुन्त माथुर की ‘डर लगता है’ कविता के भाव महिला सशक्तिकरण में नारी के आगे बढ़ते पाँव को किस भावना से डर लगता है,
    सुन्दर अभिव्यक्ति है-
    “मधु से भरे हुए मणि-घट को
    खाली करते डर लगता है|
    जिसमें सारा सिन्धु समाया
    मेरे छोटे जीवन भर का
    दूजे बर्तन में उड़ेलते,
    एक बूँद भी छिटक न जाए,
    कहीं बीच में टूट न जाये,
    छूने भर से जी कंपता है|”(7)

शकुन्त माथुर की दूसरा सप्तक में संकलित यह कविता नारी सशक्तिकरण में आने वाले परेशानियों, भावनात्मक डर का सुन्दर चित्रण करती है|
इसी प्रकार –
“भरी है जीवन
झूठे बोझों से
जो नहीं छूते हैं
जरा भी जीवन|”(8)

तथा- सुबह में सांझ में है,
घुल रहा यह रक्त का सूरज’|(9)
स्त्री भी घुल रही, सुबह-शाम चलती है, एक नया आसमान तलाश रही,जहाँ उसकी प्रतिष्ठा हो। तीसरा तारसप्तक की स्त्री कवयित्री कीर्ति चौधरी है। उन्होंने अपने वक्तव्य में स्त्री के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है –“ अस्तु, यह कहना शेष है कि जिस भांति असुंदर स्त्री का प्रसाधनो की सहायता से अपने को सुन्दर दिखने का प्रयत्न करना अशोभन जान पड़ सकता है, उसी प्रकार यदि पंगु कविता अपने को व्याख्या की पंगु वैशाखी पर टिकने का व्यर्थ उद्योग करे तो कुछ लोगों को हंसी आ सकती है। यह बात दूसरी है कि असुंदर स्त्री या पंगु कविता को अपने-अपने लिए उद्यम करने का पूरा अधिकार है, और कुछ ऐसे होंगे ही जो इन दोनों को सहानुभूति दिखाये।”(10) यहाँ कीर्ति चौधरी का स्पष्ट मंतव्य है कि नारी को सशक्त होना चाहिए न कि सशक्तिकरण का दिखावा हो, किसी की सहानुभूति से कोई अपना स्थान हासिल नहीं करता, निरंतर चलने से ही मंजिल मिलती है, उनकी कवितायेँ इस सशक्तिकरण की उर्जा से भरी हैं। वे कहती हैं-
‘दिन चढ़ा, दोपहर ढल आई:
वह धीवर की कन्या
डलियों में,
जाल मछलियाँ संग लिए वापस आई|”(11)

यहाँ काम करती नारी उसका आर्थिक उन्मुखीकरण का सुन्दर उदाहरण है। आर्थिक स्वतंत्रता से ही नारी सशक्त हो सकती है, इसके लिए अर्थोपार्जन आवश्यक है। वे आगे कहती हैं-
“जो कभी अशुभ से नहीं मिले|
काँटों से भरे राह-वृन्तों पर नहीं खिले|
जीवन के केवल विजय पाहुने,

आखिर बतलायेंगे भी क्या?
असफलताओं से लड़ने,
गिरने पर थमने की
युक्ति जताएंगे भी क्या?”(12)

सचमुच महिला सशक्तिकरण की रह काँटों भरी है, उठाना-गिरना ये जीवन क्रम है| कीर्ति चौधरी असफलताओं के आगे कहीं सफलता को ढूँढती है| इस प्रकार सकारत्मक सोच से युक्त महिला लेखिका है। इसी प्रकार ‘लता-3’ कविता में उनके भाव दृष्टव्य हैं-
‘नाहक ही मेहनत गयी दिन दो दिन की |
रक्खा तो जतन से था,
चाहा भी मन से था,
कूड़े पर उगी थी…
थाम चम्पक करो में
एक गमला सजा दिया|’ (13)
बहुत ही सुन्दर भावयुक्त कविता | इससे कीर्ति जी के मनोभावों का सुन्दर उद्घाटन होता है| ‘सीमा रेखा’ कविता में कवयित्रि के मनोभाव महिलाओं के आंतरिक सोच को उद्घाटित करते हैं-
‘नभ के कोने में एक सितारा काँपा,
मुझको लगा कि हाँ,
हर चीज कभी तो
यों ही ऊपर चमकेगी|
निस्तब्ध नहर का पानी
कंकड़ से काँपा,
मैंने जाना-

कम से कम जड़ता एक बार में सिहरेगी। ’(14) यहाँ महिला के मन की शंका, प्रयास तथा अनुभव का सुन्दर चित्रण है। शक्तिकरण के लिए प्रयास बहुत महत्वपूर्ण है, कीर्ति जी ने सुन्दर बिम्बों के द्वारा महिलाओं के बदलते सन्दर्भ एवं दिशा को रेखांकित किया है| कवयित्री ‘अमृत’ लाने संकल्प करती है-
“उज्जवल है, उज्जवल लेंगे, उज्जवलतर देंगे|
मानिक मुक्ता बोयेंगे, जी भर काटेंगे|
करने दो मंथन उनको यदि बड़ा चाव है|
अमृत तो हम लायेंगे, सबको बाँटेंगे|”(15)

नारी सशक्त है, ये सोच लेखिका कि दृढ़ है, अमृतत्व कि संवाहिका तथा कल्याण कि समर्थक है, नारी ही नारायणी है। नारी सशक्त है- प्रस्तुत
कविता में कहती है-
मैं प्रस्तुत हूँ
इन कई दिनों के चिंतन एवं संघर्ष के बाद|
यह क्षण जो अब आ पाया है,
उसमें बंधकर मैं प्रस्तुत हूँ|
यह प्रस्तुति ही सशक्तिकरण का आधार स्तम्भ है|
कवयित्री को उस दिन कि प्रतीक्षा है, जब एक सशक्त नारी कह उठेगी –
“करुँगी प्रतीक्षा अभी|
दृष्टि उस सुदूर भविष्य पर टिका कर|
फिर करुँगी काम,
प्रश्न नहीं पूछूंगी,
जिज्ञासा अंतहीन होती है,
आएगा भविष्य कभी।”(16)
एक भविष्य कि आस है, जहाँ दृष्टि टिकी है| इन्ही संभावनाओं को इस कविता में तलाश रही है| ‘केवल एक बात’ कविता में कहती है-
“केवल एक बात थी
कितनी आवृत्ति,
विविध रूप में करके निकट तुम्हारे कहीं|
फिर भी हर क्षण,
कह लेने के बाद,
कहीं कुछ रह जाने की पीड़ा बहुत सही|”
स्त्री अस्मिता एवं स्त्री चेतना से इनकी लेखनी सशक्त रही, ‘स्वयंचेत’
कविता में स्वयं कहती है-

‘घाव तो अनगिन लगे,
कुछ भरे, कुछ रिसते रहे,
कुछ कफ़न ओढ़े,
किरन से सम्बन्ध जोड़े|
कुछ सिन्धुवाणी में समाये
इस तरह हँस रो चले हम’
स्त्री के मनोदशा, संवेदना को व्यक्त करती सुन्दर बिम्बों का कवयित्री ने
निर्माण किया है| घाव भरते-रिसते रहने के माध्यम से स्थितियाँ चौथे

सप्तक का प्रकाशन 1979 में हुआ| इसका नाम ‘चौथा सप्तक’ है, इसके कवि निम्न हैं- (1) अवदेश कुमार (2) राजकुमार कुंभज (3) स्वदेश भारती (4) नंदकिशोर आचार्य (5) सुमन राजे (6) श्रीराम वर्मा तथा (7) राजेंद्र किशोर’।
इस सप्तक कि एकमात्र कवयित्री सुमन राजे है| इनका जन्म 23 अगस्त, 1938, उत्तरप्रदेश में हुआ| इन्होने साहित्यिक आन्दोलन ‘नारीवाद’ में बढ़चढ़ कर भाग लिया| ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ तथा साहित्येतिहास: संरचना और स्वरुप | इन्होने लखनऊ विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. तथा कानपूर विश्वविद्यालय से डीलिट् कि उपाधि प्राप्त किया। 26 दिसंबर को 2008 में निधन हुआ। सुमन राजे न केवल कवयित्री वरन एक इतिहासकार, अन्वेषक,दार्शनिक एक समाजसुधारक थी| महिला सशक्तिकरण कि समर्थक तथा महिलाओं के लिए बहुत कार्य किया| ‘सपना एवं लाशघर’ ‘उगे हुए हाथो के जंगल’, ‘यात्रादंश’, एरका’, इक्कीसवीं सदी का गीत’ प्रमुख कविताये हैं। सुमन राजे नारी संवेदना पर कहती हैं-
“अदालत अगर इजाजत दे,
तो कुछ अपनी बात भी कहूँ,
आखिर नारी होकर,
नारी होने को कब तक सहूँ|
आप ही न्याय करें हुजुर
जब समझ का ???????
धारदार चाकू की नोक की तरह,
औरत की जिस्म में
उतारा जाता हो|” (17)
डॉ. सुमन राजे ने नारी सशक्तिकरण पर तथा नारी अस्मिता पर लेखनी चलाई । नारी संवेदना को इस तरह व्यक्त करती हैं-
“जो जीवन हमें जीने के लिए मिला है, उसकी अनिवार्य नियति है- ‘निरंतर जुभती हुई जूते कि कील, हर कदम वह कील जूते को जर्जर करता है, और जख्म को गहराता जाता है। किन्तु चलना ही तो हमारा अस्तित्व है| पैरों और पैरों में कोई भेद नहीं होता इसलिए सबके जख्म भी एक होते हैं| उन जख्मों के आसपास पकती है और फूटती है कविता। कविता अपने शरीर से नहीं अपनी आत्मा से जीवित होती है ।नारी की अपनी जिन्दगी की दास्तान हर मोड़ पर कुछ न कुछ चुभती हुई उसके जख्मों को नासूर बनाती हुई आगे बढती है।” (18) इस प्रकार राजे महिला सशक्तिकरण का खुलकर समर्थन करती है| उनका मानना है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों कि तरह कविता कर सकती है। ज्ञान का संस्कार आत्मा से होता है| प्राचीन काल से नारी सशक्तिकरण के लिए प्रयास रत है।

उपसंहार- इस प्रकार नारी सशक्तिकरण कि दृष्टि से तारसप्तक की स्त्री कवयित्रियों के कविता में नारी विमर्श को देखा जाय तो वह सभी में मिलता है। तारसप्तक में कोई स्त्री कवयित्री नहीं है, जबकि दूसरे, तीसरे एवं चौथे में क्रमश: शकुन्त माथुर, कीर्ति चौधरी तथा डॉ. सुमन राजे हैं। इनकी कविताये मानवीय धरातल पर नारी संवेदना को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। डॉ. सुमन राजे ने नारी विचारों से मुक्ति संघर्षों का उद्घाटन किया है| महिला लेखन अपने लेखों के माध्यम से रक्तहीन क्रांति का सूत्रपात कर रही है| प्रत्येक वर्ग की महिला का सशक्तिकरण में योगदान होता है। संसार की आधी आबादी नारियों की है, फिर भी मुक्ति के लिए संघर्ष चल रहा है| इन स्त्रियों में अपनी कलम से चेतना जगाकर सशक्त एवं समृद्ध बनाना ही इन महिला लेखिकाओं का उद्देश्य रहा है|
सन्दर्भ सूची-

  1. पातन्जलि का महाकाव्य – 4/1/49
  2. ऋग्वेद – 5/61/8
  3. अथर्ववेद – 2/36/1
  4. यात्रादंश, सुमन राजे पृ. 32
  5. दूसरा सप्तक, संपादक- अज्ञेय पृ. 44
  6. वही ——————– पृ. 45
  7. दूसरा सप्तक- संपादक अज्ञेय ‘डर लगता है’ शकुन्त माथुर पृ. 52
  8. वही ——————— जिन्दगी का बोझ, पृ.53
  9. वही ——————— ताज़ा पानी, पृ. 57
  10. तीसरा तारसप्तक – वक्तव्य, कीर्ति चौधरी, पृ.47
  11. वही ——————— पृ.52
  12. तीसरा तारसप्तक – आवाज, कीर्ति चौधरी, पृ.52
  13. वही ——————— पृ. 55
  14. वही ————— अनुभव, कीर्ति चौधरी, पृ. 56
  15. वही ——————— पृ. 59
  16. वही ————-, प्रतीक्षा, कीर्ति चौधरी पृ. 74
  17. चौथा सप्तक – अज्ञेय, पृ. 85
  18. यात्रादंश – सुमन राजे, पृ. 1

डॉ. माया दुबे
बरकतउल्ला विश्वविद्यालय,
भोपाल

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