तिनसुखिया मेल के ए.सी. कोच में बैठे प्रोफेसर गुप्ता कोई पुस्तक पढ़ने में मशगूल थे। वे एक सेमीनार में भाग लेने गौहाटी जा रहे थे। सामने की सीट पर बैठी एक प्रौढ़ महिला बार-बार प्रोफेसर गुप्ता की ओर देख रही थी। वह शायद उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही थी। जब वह पूरी तरह आश्वस्त हो गई तो वह उठकर प्रोफेसर गुप्ता की सीट के पास गई और उनसे शिष्टता पूर्वक पूछा-“सर! क्या आप प्रोफेसर गुप्ता हैं ?“ यह अप्रत्याशित सा प्रश्न सुनकर प्रोफेसर गुप्ता असमंजस में पड़ गए। उन्होंने महिला की ओर देखते हुए कहा-“मैंने आपको पहचाना नहीं मैडम।“
“मेरा नाम माधवी है और मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हूँ। मेरी एक सहेली थी प्रोफेसर शिवानी।“ वह महिला बोली।
“थी से आपका क्या मतलब है ?“ प्रोफेसर गुप्ता ने उनकी ओर देखते हुए पूछा। वह अब इस दुनिया में नहीं है। उसने किसी को अपनी किडनी डोनेट की थी। उसी दौरान शरीर में सेप्टिक फैल जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी।
“क्या ?“ प्रोफेसर गुप्ता का मुँह आश्चर्य से खुले का खुला रह गया था।
“जी सर! उसे शायद अपनी मृत्यु का अहसास पहले ही हो गया था। मरने से दो दिन पहले उसने मुझे यह रूमाल और एक पत्र आपको देने के लिए कहा था। उसके द्वारा दिए हुए पते पर मैं आपसे मिलने दिल्ली कई बार गई मगर आप शायद वहां से कहीं और शिफ्ट हो गये थे।“ यह कहकर उन्होंने वह रूमाल और पत्र प्रोफेसर गुप्ता को दे दिया।
वह महिला जाकर अपनी सीट पर बैठ गई। प्रोफेसर गुप्ता बुत बने अपनी सीट पर बैठे थे।
तिनसुखिया मेल अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और उससे भी तेज रफ्तार से अतीत की स्मृतियां प्रोफेसर गुप्ता के मानस पटल पर दौड़ रही थीं।
आज से पच्चीस वर्ष पूर्व उनकी तैनाती एक कस्बे के डिग्री कालेज में प्रोफेसर के रूप में हुई थी। कालेज कस्बे से दो-ढाई किलोमीटर दूर था। कालेज में छात्र-छात्राएं दोनों पढ़ते थे। कालेज का अधिकांश स्टाफ कस्बे में ही रहता था। प्रोफेसर गुप्ता का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था और उनके पढ़ाने का ढंग बहुत प्रभावी। इसलिए छात्र-छात्राएं उनका बड़ा सम्मान करते थे। वे बड़े मिलनसार और सहयोगी स्वभाव के थे इसलिए स्टाफ में भी उनके सबसे बड़े मधुर सम्बन्ध थे। एक दिन वे क्लास में पढ़ा रहे थे, तभी चपरासी उनके पास आया और बोला-“सर! प्रिंसिपल सर आपको अपने आफिस में बुला रहे हैं।“
प्रोफेसर गुप्ता सोच में पड़ गये। फिर वे प्रिंसिपल रूम की ओर चल दिए।
उन्हें देखकर प्रिंसिपल साहब बोले-“प्रोफेसर गुप्ता, बी.ए. सेकेण्ड ईयर की छात्रा शिवानी अचानक क्लास मंे बेहोश हो गई है। उसे किसी तरह होश तो आ गया है, मगर अभी उसकी तबियत पूरी तरह ठीक नहीं है। आप ऐसा करिए उसे अपने स्कूटर से उसके घर छोड़ आइए।“
उस समय स्टाफ के दो-तीन लोगों के पास ही स्कूटर था। शायद इसी कारण प्राचार्य जी ने मुझे यह कार्य सौंपा था।
मैं शिवानी को स्कूटर पर बैठा कर कस्बे की ओर चल दिया। हम लोग कस्बे पहुँचने ही वाले थे कि सड़क के किनारे खड़े बरगद के पेड़ के पास शिवानी ने कहा-“सर स्कूटर रोक दीजिए।“
मैंने स्कूटर रोक दिया और शिवानी से पूछा-“क्या बात है शिवानी क्या तुम्हें फिर चक्कर आ रहा है ?“
“मुझे कुछ नहीं हुआ सर, मैं तो आपसे एकान्त में बात करना चाहती थी, इसलिए मैंने कालेज में बेहोश होने का नाटक किया था।“ उसने बड़े भोलेपन से कहा।
“क्या ?“ मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा। फिर मैंने उससे पूछा-“आखिर तुमने ऐसा क्यों किया ? और तुम मुझसे क्या बात करना चाहती हो ?“ सर! मैं आपसे प्यार करती हूँ, और आपको यही बात बताने के लिए मैंने यह नाटक किया था।“ वह मेरी ओर देखकर मुस्करा रही थी।
मैं हतप्रभ खड़ा था। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं उससे क्या कहूँ।
काफी देर तक मैं चुपचाप खड़ा रहा। फिर मैंने उससे कहा-“यह तुम्हारी पढ़ने की उम्र है, प्यार करने की नहीं। अभी तो तुम प्यार का मतलब भी नहीं जानतीं।“
“आप ठीक कह रहे हैं सर। मगर मैं अपने इस दिल का क्या करूं, यह तो आपसे प्यार कर बैठा है।“ वह मेरी ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोली।
“तुम्हें मालूम भी है कि मैं शादी शुदा हूँ और मेरे दो बच्चे हैं। और मेरी तथा तुम्हारी उम्र में कम से कम बीस साल का अन्तर है।“ मैंने उसे समझाते हुए कहा।
“मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है सर। मैं तो केवल एक ही बात जानती हूँ कि मैं आपसे प्यार करती हूँ, बेपनाह प्यार।“ वह दार्शनिक अंदाज में बोली।
मैंने उसे समझाने का हर सम्भव प्रयास किया मगर उस पर मेरी दलीलों का कोई असर नहीं हुआ।
मैंने उससे यह कहकर कि अब तुम ठीक हो इसलिए यहां से अपने घर पैदल चली जाना मैं कालेज लौट गया।
मैंने इसे उसका बचपना समझा और इस बात को गम्भीरता से नहीं लिया। शिवानी किसी न किसी बहाने से मेरे निकट आने और मुझसे बात करने का प्रयास करती रहती, परन्तु वह मुझसे जितना निकट आने का प्रयास करती मैं उतना ही उससे दूर भागता। मैं नहीं चाहता था कि कालेज में यह बात चर्चा का विषय बने।
कस्बे में छोटे बच्चों का कोई कान्वेंट स्कूल नहीं था इसलिए मैं यहां अकेला ही किराए पर रहता था। मेरी पत्नी और बच्चे मेरे घर मम्मी-पापा के साथ रहते थे।
एक दिन शाम का समय था। मैं कमरे पर अकेला बैठा कोई किताब पढ़ रहा था। तभी दरवाजे पर खटखट हुई मैंने उठकर दरवाजा खोला सामने शिवानी खड़ी थी। उसे इस प्रकार अकेले अपने कमरे पर देख मैं गहरे असमंजस में पड़ गया।
इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह कमरे में आकर एक कुर्सी पर बैठ गई। आज पहली बार मैंने उसे ध्यान से देखा। बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र, लम्बा-छरहरा बदन, गोरा चिट्टा रंग और आकर्षक नयन-नक्श। उसके लम्बे घने बाल उसकी कमर को छू रहे थे। सादे कपड़ों में भी वह बेहद सुन्दर लग रही थी।
कमरे के एकान्त में एक बेहद सुन्दर नवयुवती मेरे सामने बैठी है और वह मुझसे प्यार करती है यह सोचकर मेरे मन में गुदगुदी सी होने लगी। मैंने अपने मन को संयत करने का बहुत प्रयास किया मगर मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने में असफल रहा। मन में तरह-तरह की हसीन कल्पनाएं उठने लगीं। मेरे चेहरे का रंग पल-पल बदलने लगा।
इस सबसे बेखबर शिवानी कुर्सी पर शान्त और निश्चल बैठी थी। उसके एक हाथ में सफेद रंग का एक रूमाल था। मैं उठकर उसके पास गया और उसके गालों को थपथपाते हुए उससे पूछा-“शिवानी तुम यहां अकेले क्या करने आई हो ?“
उसने मेरी आँखों में झांककर देखा पता नहीं उसे मेरी आँखों में क्या दिखाई दिया। वह झटके के साथ कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई। उसके चेहरे के भाव एकाएक बदल गये थे। मेरे हाथों को अपने गालों से झटके के साथ हटाते हुए वह बोली-“प्लीज डोन्ट टच मी। आई डोन्ट लाइक दिस।“
मेरे ऊपर पड़ा बुद्धिजीवी का लवादा फटकर तार-तार हो चुका था। शिवानी का यह व्यवहार मेरे लिए अप्रत्याशित था। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं उससे क्या कहूँ ?“
“तुम तो कहती हो कि तुम मुझसे बहुत प्यार करती हो।“ मैंने उसकी ओर देखते हुए कहा।
“हाँ, सर मैं आपको बहुत प्यार करती हूँ। मगर मेरा प्यार गंगाजल की तरह पवित्र और कंचन की तरह खरा है। उसने दृढ़ स्वर में कहा।
“यह सब फिल्मी डायलाॅग है।“ मैंने खिसियानी हंसी हंसते हुए कहा।
“सर जरूरत पड़ने पर मैं यह साबित कर दूंगी कि आपके प्रति मेरा प्यार कितना गहरा है।“ यह कहकर वह कमरे से चली गयी थी। काफी देर तक मैं अवाक खड़ा रहा था फिर अपने काम में लग गया था।
इसके बाद शिवानी ने मुझसे बात करने या मिलने का प्रयास नहीं किया। मैं भी धीरे-धीरे उसे भूल गया। कुछ समय बाद मेरा उस कालेज से स्थानान्तरण हो गया। सरकारी सेवा होने के कारण कई जगह स्थानान्तरण हुए और अन्त में मैं दिल्ली में सेटल्ड हो गया।
दो साल पहले मुझे किडनी प्रॉब्लम हो गई। कई महीने तक तो डायलिसिस पर रहा फिर डॉक्टरों ने कहा कि अब किडनी ट्रांसप्लांट के अलावा और कोई चारा नहीं है। मैंने अपने परिवार में इस सम्बन्ध में सबसे बातचीत की। मेरी पत्नी दोनों बेटों और बेटी ने राय दी कि पहले हमें किडनी के लिए विज्ञापन देना चाहिए, हो सकता है कि कोई जरूरतमंद पैसे के लिए अपनी किडनी डोनेट करने के लिए तैयार हो जाये। अगर दो-तीन बार विज्ञापन देने के बाद भी काई डोनर नहीं मिलता है तो हम लोग फिर इस बारे में बातचीत करेंगे।
बेटे ने राजधानी के सभी अखबारों में किडनी डोनेट करने वाले को बीस लाख रुपये देने का विज्ञापन छपवाया। विज्ञापन में मेरा नाम पूरा पता भी दिया गया। विज्ञापन दिये एक महीना हो गया था। जिस अस्पताल मंे मेरा इलाज चल रहा था। एक दिन वहां से फोन आया-“सर आपके लिए गुड न्यूज है, आपको किडनी देने के लिए एक डोनर मिल गई है। उसकी उम्र पैंतालीस साल के करीब है और वह आपको किडनी डोनेट करने के लिए तैयार है, मगर उसकी एक शर्त है कि किडनी ट्रांसप्लांट होने से पहले उसका नाम पता किसी को नहीं बताया जाये।
मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि डोनर अपना नाम पता क्यों नहीं बताना चाहती है। फिर हम सबने सोचा कि शायद उसकी कोई मजबूरी होगी।
ट्रांसप्लांट की सारी फार्मल्टीज पूरी कर ली गईं और नियत तारीख पर मेरी किडनी का ट्रान्सप्लांटेशन हो गया जो पूरी तरह से सफल रहा।
इसके कई दिन बाद जब मैं अपने को काफी सहज अनुभव करने लगा तो मैंने एक दिन डॉक्टर साहब से पूछा-“डाक्टर साहब वह लेडी कैसी है जिन्होंने मुझे अपनी किडनी डोनेट की थी।“
कुछ देर तक डाक्टर साहब खामोश रहे फिर वे बोले-“वह लेडी तो परसों बिना किसी को कुछ बताये अस्पताल से चली गई। हैरानी की बात यह है सर कि वह अपनी डोनेशन फीस भी नहीं ले गई।
“क्या ?“ मेरा मुँह विस्मय से खुले का खुला रह गया था। जब मैंने यह बात अपने परिवार के लोगों को बताई तो उन सबको बड़ी हैरानी हुई। हम लोगों को यह बात समझ मंे ही नहीं आ रही थी कि आज के इस आपाधापी के दौर मंे बीस लाख रुपये ठुकरा देने वाली यह लेडी आखिर कौन थी ? काफी दिनों तक मैं इसी उधेड़बुन में रहा। मैंने उस लेडी का पता लगाने की हर सम्भव कोशिश की मगर इसके बारे में कुछ पता नहीं चला।
“आपको कहां तक जाना है सर। अचानक टी.टी.ई. ने आकर प्रोफेसर गुप्ता की तन्द्रा को भंग कर दिया। वे अतीत से वर्तमान में लौट आए। टिकट चेक करने के बाद टी.टी. चला गया।
प्रोफेसर गुप्ता ने वह रूमाल उठाया जो शिवानी ने उन्हें देने के लिए प्रोफेसर माधवी को दिया था। उन्होंने रूमाल को पहचानने की कोशिश की। यह शायद वही कढ़ा हुआ रूमाल था जो शिवानी उन्हें देने उनके कमरे पर आई थी। सफेद रंग के उस रूमाल के एक कोने में सुनहरे रंग से एस. कढ़ा हुआ था। एस. यानी शिवानी के नाम का पहला लेटर।
अब प्रोफेसर गुप्ता को डोनर की सारी पहेली समझ में आ गई थी। उन्होंने रूमाल मंे रखे हुए तुड़े-मुड़े पत्र को खोलकर पढ़ा, लिखा था-
प्रोफेसर साहब,
आपका जीवन मेरे लिए बहुत बहुमूल्य है इसलिए मैंने अपने जीवन को संकट में डालकर आपके प्राणों को बचाया। मगर मैंने ऐसा करके आप पर कोई एहसान नहीं किया। मुझे तो इस बात की खुशी है कि मैं जिसे हृदय की गहराइयों से प्यार करती थी उसके किसी काम आ सकी।
आपकी शिवानी
पत्र पढ़कर प्रोफेसर गुप्ता का मन गहरी वेदना से भर उठा था। शिवानी का यह निःस्वार्थ प्यार देखकर उनकी आँख से आँसू बहने लगे। उन्होंने शिवानी का दिया हुआ रूमाल उठाया और उससे अपने आँसुओं को पोछने लगे। ऐसा करके शायद उन्होंने शिवानी के अमर प्रेम को स्वीकार कर लिया था।
सुरेश बाबू मिश्रा
ए-979, राजेन्द्र नगर,
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मोबाइल नं. 9411422735
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Tags गोपाल राम गहमरी साहित्य सरोज
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