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गोलगप्पे खाने जैसा मजा : बातें कम स्कैम ज्यादा

गोलगप्पे खाने जैसा मजा : बातें कम स्कैम ज्यादा

पुस्तक चर्चा बातें कम स्कैम ज्यादा

व्यंग्यकार … नीरज बधवार

प्रभात प्रकाशन ,नई दिल्ली

पृष्ठ .. 148 मूल्य 250 रु

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल

बड़े कैनवास के युवा व्यंग्यकार नीरज उलटबासी के फन में माहिर मिले . किताब पर बैक कवर पर अपने परिचय को ही बड़े रोचक अंदाज में अपराधिक रिकार्ड के रूप में लिखने वाले नीरज की यह दूसरी किताब है . वे अपने वन लाइनर्स के जरिये सोशल मीडीया पर धाक जमाये हुये हैं . वे टाइम्स आफ इण्डिया समूह में क्रियेटिव एडीटर के रूप में कार्य कर रहे हैं . वे सचमुच क्रियेटिव हैं . सीमित शब्दों में विलोम कटाक्ष से प्रारंभ उनके व्यंग्य अमिधा में एक गहरे संदेश के साथ पूरे होते हैं . रचनायें पाठक को अंत तक बांधे रखती है।

. “मजेदार सफर” शीर्षक से प्राक्कथन में अपनी बात वे अतिरंजित इंटरेस्टिंग व्यंजना में प्रारंभ करते हैं ” २०१४ में मेरा पहला व्यंग्य संग्रह “हम सब फेक हैं” आया तो मुझे डर था कि कहीं किताब इतनी न बिकने लगे कि छापने के कागज के लिये अमेजन के जंगल काटने पड़ें , किंतु अपने लेखन की गंभीरता वे स्पष्ट कर ही देते हैं ” यदि विषय हल्का फुल्का है तो कोई बड़ा संदेश देने की परवाह नहीं करते किन्तु यदि विषय गंभीर है तो हास्य की अपेक्षा व्यंग्य प्रधान हो जाता है , पर यह ख्याल रखते हैं कि रचना विट से अछूती न रहे . उन्हीं के शब्दों मे ” व्यंग्य पहाड़ों की धार्मिक यात्रा की तरह है जो घूमने का आनंद तो देती ही है साथ ही यह गर्व भी दे जाती है कि यात्रा का एक पवित्र मकसद है . “संग्रह में ४० आस पास से रोजमर्रा के उठाये गये विषयों का गंभीरता से पर फुल आफ फन निर्वाह करने में नीरज सफल रहे हैं . पहला ही व्यंग्य है “जब मैं चीप गेस्ट बना” यहां चीफ को चीप लिखकर , गुदगुदाने की कोशिश की गई है , बच्चों को संबोधित करते हुये संदेश भी दे दिया कि ” प्यारे बच्चों जिंदगी में कभी पैसों के पीछे मत भागना ” पर शायद शब्द सीमा ने लेख पर अचानक ब्रेक लगा दिया और वे मोमेंटो लेकर लौट आये तथा दरवाजे के पास रखे फ्रिज के उपर उसे रख दिया . यह सहज आब्जर्वेशन नीरज के लेखन की एक खासियत है .”घूमने फिरने का टारगेट” भी एक सरल भोगे हुये यथार्थ का शब्द चित्रण है , कम समय में ज्यादा से ज्यादा घूम लेने में अक्सर हम टूरिस्ट प्लेसेज में वास्तविक आनंद नहीं ले पाते , जिसका हश्र यह होता है कि पहाड़ की यात्रा से लौटने पर कोई कह देता है कि बड़े थके हुये लग रहे हैं कुछ दिन पहाड़ो पर घूम क्यों नहीं आते . बुफे में ज्यादा कैसे खायें ? भी एक और भिन्न तरह से लिखा गया फनी व्यंग्य है . इसमें उप शीर्षक देकर पाइंट वाइज वर्णन किया गया है . सामान्य तौर पर व्यंग्य के उसूल यह होते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष , या उत्पाद का नाम सीधे न लिया जाये , इशारों इशारों में पाठक को कथ्य समझा दिया जाये किन्तु जब नीरज की तरह साफगोई से लिखा जाये तो शायद यह बैरियर खुद बखुद हट जाता है , नीरज बुफे पचाने के लिये झंडू पंचारिष्ट का उल्लेख करने में नहीं हिचकते . “फेसबुक की दुनियां ” भी इसी तरह बिंदु रूप लिखा गया मजेदार व्यंग्य है , जिसमें नीरज ने फेसबुक के वर्चुएल व्यवहार को समझा और उस पर फब्तियां कसी हैं . दोस्तों के बीच सहज बातचीत से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे हास्य व्यंग्य तलाश लेते हैं ,और उसे आकर्षक तरीके से लिपिबद्ध करके प्रस्तुत करते हैं , इसलिये पढ़ने वाले को उनके लेख उसकी अपनी जिंदगी का हिस्सा लगता है , जिसे उसने स्वयं कभी नोटिस नहीं किया होता . यह नीरज की लोकप्रियता का एक और कारण है . फेसबुक पर जिस तरह से रवांडा , मोजांबिक , कांगो , नाइजीरिया से फेक आई डी से लड़कियों की फोटो वाली फ्रेंड रिक्वेस्ट आती हैं उस पर वे लिखते हैं ” रिक्शेवाले को दस बीस रुपये ज्यादा देने का लालच देने के बाद भी कोई वहां जाने को तैयार नही हुआ …. जिस तरह गजल में अतिरेक का विरोधाभास शेर को वाह वाही दिलाता है , कुछ उसी तरह नीरज अपनी व्यंग्य शैली में अचानक चमत्कारिक शब्दजाल बुनते हैं और पराकाष्ठा की कल्पना कर पाठक को हंसाते हैं . बीच बीच में वे तीखी सचाई भी लिख देते हैं मसलन ” प्रकाशक बड़े कवियों तक से पुस्तक छापने के पैसे लेते हैं ” । शीर्षक व्यंग्य “बातें कम स्कैम ज्यादा” में एक बार फिर वे नामजद टांट करते हैं , ” बड़े हुये तो सिर्फ एक ही आदमी देखा जो कम बोलता था .. वो थे डा मनमोहन सिंह . इसी लेख में वे मोदी जी से पूछते हैं सर मेक इन इंडिया में आपका क्या योगदान है , आप क्या बना रहे हैं ? नीरज, मोदी जी से जबाब में कहलवाते हैं “बातें” . वे निरा सच लिखते हैं ” कुल मिला कर बोलने को लेकर घाल मेल ऐसा है कि सोनिया जी क्या बोलती हैं कोई नहीं जानता . राहुल गांधी क्या बोल जायें वे खुद नहीं जानते . और मोदी साहब कब तक बोलते रहेंगे ये खुदा भी नही जानता . नीरज अपने व्यंग्य शिल्प में शब्दों से भी जगलरी करते हैं , कुछ उसी तरह जैसे सरकस में कोई निपुण कलाकार दो हाथों से कई कई गेंदें एक साथ हवा में उछालकर दर्शको को सम्मोहित कर लेता है . सपनों का घर और सपनों में घर , स्क्रिप्ट का सलमान को खुला खत , आहत भावनाओ का कम्फर्ट जोन , इक तुम्हारा रिजल्ट इक मेरा , सदके जावां नैतिकता , चरित्रहीनता का जश्न , अगर आज रावण जिंदा होता , हमदर्दी का सर्टिफिकेट आदि कुछ शीर्षकों का उल्लेख कर रहा हूं , व्यंग्य लेखों के अंदर का मसाला पढ़ने के लिये हाईली रिकमेंड करता हूं , आपको सचमुच आनंदआ जायेगा . सड़क पर लोकतंत्र छोटी पर गंभीर रचना है . … सड़क यह शिकायत भी दूर करती है कि इस मुल्क में सभी को भ्रष्टाचार करने के समान अवसर नहीं मिलते ” … “लोकतंत्र चलाने वाले नेताओ ने आम आदमी को सड़क पर ला दिया है , वह भी इसलिये कि लोग लोकतंत्र का सही मजा ले सकें ” . बहरहाल आप तुरंत इस किताब का आर्डर दे सकते हैं , पैसा वसूल हो जायेगा यह मेरी गारंटी है .

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One comment

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