कमलेश द्विवेदी कहानी प्रतियोगिता -01
आदरणीय माँ ,
चरण वंदन
महानगर की पचासवीं मंज़िल पर रहते रहते यहीं की मशीनी दुनियाँ में लिप्त हो गया। एक दिन ऑफिस से आ रहा था तब रेडियो पर एक विज्ञापन सुना- “ग्राम अनुभूति पार्क, जी हाँ, यहॉं आकर आप भूल जाएँगे प्रदूषण भरे महानगर को।स्वस्थ जलवायु, तालाब, झरनों के साथ प्राकृतिक वातावरण में बिताइये अपना सप्ताहांत। तो आज ही अपना कॉटेज बुक कराइये और स्वस्थ जलवायु में अपने परिवार के साथ सप्ताहांत मनाइये।”
घर जाकर वेबसाइट विज़िट की और दस हज़ार पर डे पर अपने परिवार के लिये कॉटेज बुक करा दी।बच्चे भी उत्साहित थे गाँव देखने के लिये, मैं भी अपना बचपन फिर से जीना चाहता था।
पिताजी की नौकरी शहर में होने कारण हम लोग शहर में ही रहने लगे थे परंतु जैसे ही हमारी गर्मी की छुट्टी होती आप तुरंत हम बच्चों को लेकर गाँव पहुँच जाती। गोबर से लिपे हुए घर और उन घरों की सोंधी ख़ुशबू आज भी दिलोदिमाग़ में बसी हुई है।वहाँ पहुँचते ही मैं दादीजी के लाड़ में लड़िया जाता और और उनकी जप करने वाली माला खुद ही अपने गले में पहन लेता।आप मुझे डाँटती तो वो कहती अरे मत डाँट ये तो मेरा साक्षात बालमुकुंद है।
आप सुबह-सुबह उठ स्नान कर मुझे भी हेंडपंप के पानी से आँगन में ही नहाने के कहतीं। पेड़ों की ठंडी ठंडी हवा और हेंडपंप के पानी से मेरे बदन में सिहरन होती, मैं भागने की कोशिश करता तो आप मुझे ज़बरदस्ती पकड़ कर नहला देतीं। नहाते ही दादी फटाफट मेरे हाथ में अपनी गाय गौरी के दूध से बनी चाय का भरा हुआ पीतल का ग्लास पकड़ा देती जिससे मेरी सारी सिहरन निकल जाती और मैं एकदम तरोताज़ा हो जाता।छुट्टियाँ ख़त्म होने पर हम लौटते तो हमारे साथ ढेर सारा सामान होता।एक थैले में ढेर सारे जामुन, कच्चे आम घर का बना शुद्ध घी। और साथ में आती दादी की ढेर सारी हमारे वापस आने की उम्मीदें और इंतज़ार।वो हमेशा कहती दो चार दिन और रुक जाओ और अक्सर हम रुक भी जाते लेकिन फिर मजबूरी में आना ही पड़ता।पूरा गाँव हमें विदा करने आता यहाँ तक कि हमारी गाय गौरी भी रंभा कर दुख व्यक्त करती।
दादी का मन शहर में ज़्यादा दिन नहीं लगता था बिलकुल उसी तरह जैसे आपका मन महानगर में नहीं लगता।
हम सप्ताहांत ग्राम अनुभूति पार्क में बने कृत्रिम गाँव में मना कर आए, मैंने बहुत कोशिश की बचपन जीने की,पर जी ना पाया। बच्चों को अपने बचपन के क़िस्से सुनाता रहा।वहाँ से वापस आए तो कोई प्रेम से विदा करने वाला नही था, ना ही किसी को हमारे वापस आने का इंतज़ार।गायें तो बहुत थी उस कृत्रिम गाँव में पर रंभा कर किसी गाय ने अपनी विरह व्यथा नहीं बताई।कृत्रिम तो कृत्रिम ही होता है ना माँ!
इस गर्मियों की छुट्टियों में मैं बच्चों के साथ एक माह की घुट्टी लेकर आ रहा हूँ अपने गाँव में।आसमान में रहने वाले बच्चों को अपनी ज़मीन और अपनेआप का एहसास कराने।
आपका बेटा
स्वरचित
सीमा पण्ड्या
११, प्रशांति एवेन्यू
रुमाया होटल के सामने
इंदौर रोड
उज्जैन म.प्र.
मोबाइल नंबर- 8406886389
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