गाँव में कितनी भी दुश्मनी क्यों न हो, आपस में एक दूसरे के घर आना-जाना, खान-पान सब बंद क्यों न हो, परन्तु उस घर का कोई रिश्तेदार सामने से गुज़र गया तो क्या मज़ाल की ” का रे हितवा, कहाॅं जात बाड़े रे, कहीया अइले ह रे सा..“ या ”का पाहुन का हाल बा कहीया अइल ह“। फिर शुरू हो जाता था हंसी मज़ाक गालीयों का दौर, चाय पानी का दौर। कभी कभी तो ऐसा होता था कि रिश्तेदार जिनके घर आये हैं उनके घर केवल उनका समाना पहुॅंचता था और वह जब घर पहुॅंचते तो पेट में जगह ही नहीं रहती थी कि कुछ वहाॅं भी खाया पीया जाये। रिश्तों का एक अनूठा आंन्नद प्राप्त होता था। किसी के घर की साली उस उम्र वर्ग के हर व्यकित की साली हो जाती थी। किसी की भाभी उस उम्र वर्ग की सबकी भाभी हो जाती थी, चुहल, हसी मज़ाक, खाना खिलाना सब हसते हुए ऐसा लगता था कि जीवन यही है।
भले ही बेटी की सास या बहू की माँ से कभी मुलाकात नहीं हुई हो, या बहुत ही सीमित मुलाकात हुई हो, मगर बातों में समधी-समधन का जिक्र जरूरत आता। नाना बाबा दादी को, बाबा नानी नानी को लेकर बच्चों से बोलते चिड़ाते हमेशा दिख जाते थे। समधी अगर आ गया तो चैपाले सज जाती थी और कही समधन भी आ गई तो बालों में खिज़ाब तो निश्चित लग जाते थे, खेत से ताजी सब्जीयाँ, दूध-दही खास तौर से समधन जी के लिए जरूरत आ जाती थी।
आज जमाने के साथ साथ हम भी अपने को बदल लियें, खून में मिठास बढ़ती गई, रिश्तों की मिठास गायब होती गई। हसी मज़ाक के रिश्ते तो अंहकार की चादर ओढ़ कर सो गये। चुलह करना तो जैसे सभ्य समाज में गैर क्षम्य अपराध की परिभाषा हो गई। असम्यता की निशानी हो गई।
संगमरमर लगे वातानुकुलित कमरे में कोट पैंट टाई जैसे कहते हो कि बाबू साहब हसी-मज़ाक बंद करो। देवर-भाभी के रिश्ते, ननद-भाभी के रिश्ते, साला-साली के समधी-समधन के रिश्ते, इन की मिठास तो अब कल्पना में भी नहीं सामने आती है।
महानगरो से निकल यह अंहकार, यह दिखावापन शहरो से होता हुआ अब गाॅंव की सीमाओ में भी प्रवेश कर चुका है। यही कारण है कि हम होली जैसे त्यौहार भी फीके लगने लगे हैं। खुले आंगन में होने वाले, खुले समाज में होने वाले त्यौहार अब गम्भीरता के चादर में लिपटे बंद कमरों या आर्थिक हित साधकों के बीच सिमट कर रह गये हैं। यदि ऐसा ही चलता तो मेरा दावा है कि तनाव जैसी सुरसा न सिर्फ हमारे रिश्तों को निगल लेगी, बल्कि हमारी खुशीयों को हमारे स्वास्थ को भी अपना आहार बना लेगी। हम भूल जायेगें कि रिश्ते किसे कहे जाते थे? हम भूल जायेगें कि इन रिश्तों का महत्व क्या होता था?
आज रिश्ते तो रिश्ते दोस्ती भी गिलासों तक सिमट कर रह गई, दोस्तों का परिचय अब फेशबुक मित्र, व्यवसाई मित्र, साहित्कार मित्र और ना जाने कौन-कौन से उपाधि के मित्र हो गये और उनके बीच बातों का तरीका, खान-पान का तरीका भी उपाधियों के तरह हो गया। ”मित्र“ जैसा व्यापक शब्द उपाधि के बिना अधूरा हो गया, दिल के रिश्ते समाजिकता के रिश्ते हो गये।
जब कभी सोचता हूँ आज के रिश्ते से गायब मिठास को तो मैं अंहकार पूर्वक कहता हूँ कि मैं जाहिल ही माना जाऊँ समाज में, मैं बेवकूफ ही माना जाऊँ समाज में तो भी अच्छा है, कम से कम रिश्तों के वास्तिव आन्नद से, उसके वास्तिव रूप से, हसी-मज़ाक के आनन्द से विरक्त तो नहीं होता, इसके साथ अपनी जिंन्दगी तो जीता हूँ। जिसे यह पंसद नहीं उसको उसकी दुनिया मुबारक, मुझे अपनी दुनिया मुबारक, यही है चार दिन की जिंन्दगी का सच, फिर हम कहाँ तुम कहाँ।
अखंड सिहं गहमरी