इस संसार में ईश्वर की अनेक सृष्टियों में मानव की सृष्टि उत्कृष्ट मानी जाती है। मानव की बुद्धि कौशलता, चिंतनशीलता, आत्मबल एवं मनोबल में उसे अन्य जीवजंतुओं की तुलना में उच्चकोटि की एक सृष्टि के रूप में प्रतिपादित किया है। संपूर्ण विश्व की ही नहीं,सौरमंडल तक की उसकी पहुंच,भूगर्भ में उसके अनुसंधान एवं खोज,नए-नए आविष्कारों से सुख – सुविधाओं को बसाने की अपनी क्षमता के कारण मानव निश्चय ही अन्य प्राणियों की तुलना में अपनी महत्ता स्थापित कर चुका है। किंतु अपनी दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव अपने जीवनपर्यंत अर्थ की खोज में लगा रहता है। अधिक से अधिक पैसा जुटा कर सुविधात्मक जीवन यापन की अपनी लोलुपता के कारण मानव खूब भाग- दौड़ करने व कमरतोड़ परिश्रम करने को मजबूर होता है।विडंबना यह है कि पैसे कमाने के चक्कर में पड़कर मानव प्रायः अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखता। अधिक धन संचित करने के अपने एकमात्र लक्ष्य की पूर्ति की ओर प्रयासरत रहता मानव अपनी सेहत को तंदुरुस्त रखने के विषय को प्रायः भुला ही देता है। समय पर खाना-पीना या सोना ही नहीं, पल भर के लिए चैन की सांस लेना तक मानो उसके वश की बात नहीं होती। हमेशा धन कमाने की धुन सवार होने के कारण उसका जीवन तनावपूर्ण बना रहता है।
आधुनिक युग में मानव इसी अर्थ का गुलाम बन गया है। अपने अर्थोपार्जन के लिए चाहे उसे सारी रात जागे रहना पड़े या भूखों मेहनत करना पड़े-उचय उसमें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। वह धनोपार्जन के चक्रव्यूह में फंसकर अपना स्वास्थ्य खो बैठता है। अपनी कमजोर शारीरिक स्थिति के कारण वह अनेक रोगों का शिकार बनता है। परिणामस्वरूप उसका सारा संचित धन
इन बीमारियों की चिकित्सा हेतु व्यय हो जाता है। अपने परिवार के जिन सदस्यों के निमित्त उसने अर्थोपार्जन करने की ठानी थी, वे भी उसकी नित्यप्रति तनावग्रस्त मनःस्थिति से ऊबकर उसके प्रति कोई आत्मीयता नहीं जताते। वे अपनी खिचड़ी अलग पकाने की ठानते हैं। अब मानव को सबकुछ निरर्थक महसूस होने लगता है। उसे एहसास होता है कि इस भव्य संसार में जन्म लेकर उसने इसकी सुंदर प्रकृति का आनंद तक कभी नहीं उठाया, न ही अपने परिवार के सदस्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। रोगग्रस्त एवं शय्याग्रस्त मानव को तब जाकर बोध होता है कि इसी का दुखद परिणाम वह अब भोग रहा है। अब समय आ गया है जब मानव में यह चेतना उत्पन्न हो कि तंदुरुस्ती हज़ार नियामत है। अपने जीवन के लक्ष्यों की पूर्ति हेतु उसका स्वस्थ रहना नितांत आवश्यक है। अपने परिवार एवं समाज के प्रति कर्तव्यों की पूर्ति के लिए भी उसका स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है क्योंकि ‘शरीरमाध्यम् खलु धर्म साधनम्’अर्थात् शरीर ही वह साधन है जिसके माध्यम से मानव अपने कर्तव्यों को निभा सकता है। हमारे आदिग्रन्थ वेदों में उल्लिखित आचार संहिताओं में जिस अनुशासनयुक्त जीवनयापन का मार्गदर्शन कराया गया है,उसका पूर्णरूपेण अनुपालन कर मानव स्वास्थ्यपूर्ण एवं सुख- समृद्धिपूर्ण जीवन बिता सकता है।
चूंकि हर मानव अपने परिवार एवं समाज का अभिन्न अंग है, अतः उसके परिवार व समाज के स्वास्थ्य का सीधा प्रभाव उसके देश पर भी पड़ना स्वाभाविक है। इस प्रकार संपूर्ण देश का विकास तब संभव होगा जब उस देश का हर निवासी स्वस्थ हो। भारतीय सरकार ने भी अनेक स्वास्थ्य योजनाएं बनाई हैं जिससे भारत स्वास्थ्य वृद्धि की ओर अग्रसर होकर देश में संपूर्ण स्वास्थ्य की लक्ष्यपूर्ति में सफलता हासिल कर सके।
डॉ जमुना कृष्णराज,चेन्नई।
9444400820.