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प्रेम में डूबी स्त्री-संदीप

प्रेम करके दरअसल
अपने जीवित होने का
यकीन दिलाती है
खुद को कि अभी भी
संवेदनाएं जीवित हैं


वह चेतनाविहीन,
कठपुतली,
फर्नीचर सी
नही बनी है
अभी सबके प्रयत्न के बाद भी
नही छोड़ती है वह
अपने अस्तित्व की लकीर
प्रेम करती स्त्री गुलाब हो जाती है

वह हवा,अहसास,जल सी निर्मल
और खुशियों से भर जाती है
उसमें आत्मविश्वास आता है
वह आसमान छू आती है
आसपास के कांटे,
बंजर,उर्वर भूमि उसके लिए
रंग भरी बगिया अरमानों की
चांदनी हो जाती है
वह किताबें पढ़ती,

वह खिलखिलाती है,
उसकी आंखों में दिखता है
प्रेम गालों पर लालिमा लिए
देर तक शीशे में देखती है
खुद को प्रेम करती स्त्री


वह जानती है यथार्थ
खुरदरा, काला है और भविष्य,
उसकी नियति तो
कब की लिखी जा चुकी है
टूटी हुई कलम से
पर फिर भी वह प्रेम की ताजी हवा में
चंद खुशबुएं महसूस कर लेना चाहती है
आज में जीती वह कई कई
जन्मों की बैचेनी,
तड़प,
घुटन भूलकर
बस प्रेम करते ही रहना चाहती है
और। उस अहसास को
अपनी रूह में भर वह
आत्मविश्वास से भर चल देती है m
अपने कुरुक्षेत्र में
और जीत ही जाती है
प्रेम में डूबी स्त्री।

_संदीप अवस्थी,भारत,संपर्क : 7737407061

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