कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 जब मैं छोटा बच्चा था (संस्मरण)। शब्द सीमा- 700-1000 शब्द।
बड़े से महानगर में उनका घर छोटा सा था। घर के बाहर एक कटहल का पेड़ था।वह एक बंगाली परिवार था। मेरे नाना के घर के ठीक सामने वाला घर। गर्मियों में जब हम अपने ननिहाल जाते तो वह इकलौता कटहल का पेड़ कटहलों से लदा रहता। और फिर हम सब मौसेरे ममेरे भाई बहनों के लिए कटहलों की सौगात आती। हमारी नानी और मामी बड़ी स्वादिष्ट कटहल की सब्जी और कटहल के कबाब बनातीं। कटहल के पेड़ वाली आंटी बोलते थे हम उन्हें। उन्होंने बताया था वे यह कटहल का बीज उत्तर प्रदेश में स्तिथ अपने मायके से लाई थीं और उसी से यह पेड़ उपजा। यह देश की राजधानी दिल्ली की याद है। दिल्ली मुझे अपने ननिहाल वहां होने के कारण प्रिय है। और कुछ भी कहो, दिल्ली हरी भरी है।
जयपुर के पास एक छोटा गांव है डिग्गी। वहां पापा की पोस्टिंग थी। सरकारी घर मिला था। घर के पीछे छोटी सी जगह थी जिसमें मां पिता जी ने पपीते के कुछ बीज बिखेर दिए थे। बहुत पेड़ हुए और उन पर बहुत पपीते लगे। गांव के लोग बुखार आदि के समय पपीते मांग ले जाते थे। वहां स्थानीय जन पपीते को अरंड काकड़ी कहते थे और पपीते इतने थे कि कभी किसी को न कहने का सवाल ही नहीं था। फिर जयपुर आ गए।
बहुत शौक है मुझे बागवानी का और बहुत बचपन से है। बचपन में फल खाने का भी बहुत शौक था और फिर फल खा कर उसके बीज में मिट्टी में दबा दिया करती थी। चीकू, आलूबुखारा, जामुन, चेरी, बेर, आम , संतरा, नीबू, पपीता सबके बीज अपने छोटे से घर के छोटे से लॉन की मिट्टी में दबा देती थी। रोज़ पानी डालती और रोज़ इस उम्मीद में जागती कि बीज से छोटा सा पौधा निकला होगा। सपना देखती कि एक दिन ये पौधा बड़ा वृक्ष बन जायेगा और इसमें फल लगेंगे और फिर हम तोड़ तोड़ कर ढेर सारे फल खाएंगे। मेरा यह बचपना बहुत बड़े होने तक भी चला। जहां माता पिता मेरे इस बचपन के शौक में मेरा साथ देते थे वहीं कभी कभी मेरी इस बालसुलभ खेल पर हंसते भी थे। मां तो आज तक हंसती है। यह बता दूं कि सिर्फ आम, जामुन, पपीते के बीज ही पनपे। उन्हें भी छोटी सी जगह में बड़ा होने का मौका नहीं मिला। यह शौक शायद मुझे विरासत में मिला था क्यूंकि छोटे से उस लॉन में मां पापा ने हरी सब्जियां, फूल, तुलसी, आदि पौधे लगा रखे थे। बागवानी का यह शौक मुझ में अभी भी है। अब घर में कच्ची जगह नहीं, बालकनी में गमले हैं और उन गमलों में ही फूल या सजावटी पौधे। कभी कभी बचपना अब भी हावी हो जाता है और मैं गमलों में टमाटर, मिर्ची,धनिया, मेथी लगा देती हूं। अपने हाथ से लगाए पौधे से दो तीन की मात्रा में भी फसल मिल जाए तो बड़ा सुकून मिलता है।
एक दो बार आम, जामुन, नींबू के बीज भी लगा चुकी हूं। पौधे आए भी, बड़े भी हुए पर आगे का अफसाना ना पूछना।व्हाट्सएप से सीखा था इसलिए कभी बाहर जाती हूं तो बस, या ट्रेन या कार की खिड़की से फल खाकर बीज फेंकती हूं इसी उम्मीद से कि एक दिन ये बीज वृक्ष बन जायेंगे।छाया देंगे, फल देंगे, फूल देंगे। बचपना ही सही मैं इसे बने रहने देना चाहती हूं।
मेरे बच्चे मेरे इस बागवानी के शौक पर हंसते हैं। दूर भागते हैं, पौधों की देखभाल करने, उनमें पानी, खाद आदि डालने से आनाकानी करते हैं। कहते हैं , “आपका शौक है, आप ही पूरा करो ना। हम पर थोपो मत। और अब यही बच्चे जबबाहर पढ़ने चले गए तो अपने कॉलेज में लगे पेड़ों, फूलों के नाम पूछते हैं। पूछते हैं,” पानी में मनी प्लांट कैसे लगाते हैं?”मिल्क शेक की बॉटल में लग जाएगा स्टडी टेबल पर?””सुनो यहां एक गुलमोहर की पत्तियों वाला पेड़ है पर इस पर बैंगनी फूल खिलते हैं ।” और मैं खुश हो जवाब देती हूं।
शायद जाने अनजाने मेरे बचपने और प्रौढता के बीच मैंने कुछ बीज उनके मन में बो दिए। अब वे बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं।पर्यावरण की रक्षा करनी हो, एक हरी भरी धरा की उम्मीद करनी हो, पशुओं, असहायों के वृद्धों के प्रति कारूण्य का भाव पनपाना हो। प्रेम , भाईचारा बढ़ाना हो तो बीज तो बोने होंगे मन की कच्ची मिट्टी पर। बस ध्यान यह देना है कि साथ में उन्हें जहरीली खर पतवार उखाड़ने की शिक्षा भी दे दी जाए ।दादी नानी की कहानियां शायद यही करती थीं। बाल मन की कच्ची मिट्टी पर संस्कारों के बीज बोती थीं।
गरिमा जोशी पंत
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