कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 कहानी शीर्षक – बनारसी साड़ी। शब्द सीमा – 500 शब्द
वह देवदूत सा आया था जीवन में। “देवदूत!” बड़े मध्यमी से होते हैं हम मध्यम वर्ग वाले। पल में तोला पल में माशा। ना पूरे काइयां कंजूस, ना पूरे उदार।निम्न के यथार्थ की ज़मीन और उच्च के विराट आसमानों के बीच में लटके त्रिशंकु। निम्न वर्ग के फटे कर्कश स्वर से गाली गलौज कर भीड़ जुटाना भी हमारे बस का नहीं और उच्चवर्ग के लटकों झटकों से पापराजी का माहौल खड़ा करना तो और भी हमारे बूते के बाहर। टैक्स देने वाले हम। हमारे लिए मुफ्त योजनाएं नहीं सरकार की। जूठन और उतरन पर जीना हमारे सम्मान पर घात है तो बेशकीमती सामान हमारी औकात पर प्रश्चिन्ह। वहां की नाता छुट्टा प्रथा और तहां के ब्रेक अप, एक्स, डबल चीटिंग के बीच यहां मेरा पति टेढ़ी नज़र से दूसरी स्त्रियों को देख खुश हो लेता है, और मुझे तो सौभाग्य के व्रत करने से फुर्सत मिले तो मैं उस पर या किसी और पर नज़र रखूं। मेरा देवता, अफसर है। पुरुष है। घर का लाडला बेटा। बेटा, पुरुष, वह भी अफसर क्या साग भाजी खरीदेगा? शान भी कोई चीज है। देवता तो पति है। पर वह देवदूत बन कर आया था।
मेरा पैर टूटा और डेढ़ महीने का प्लास्टर क्या चढ़ा, वह मेरे घर रोज ताजा सब्ज़ी पहुंचाने लगा। फिर कभी तभी राशन का सामान भी। बस उसे लिस्ट पकड़ा देती और काम हो जाता। फिर बिल जमा करना, दवाई लाना। फेहरिस्त लंबी थी। पैसे लेता नहीं था, मैं देती नहीं थी। आखिर वह देवदूत सा किशोर हमारी हाउसिंग सोसाइटी में गाड़ियों की सफाई के लिए रखा लड़का था। सोसाइटी से तनख्वाह मिलती तो थी। फिर मुझे घर भी चलाना है। कोई खैरात नहीं बांटनी। उसे चाहिए थी एक बनारसी साड़ी। किसके लिए? बातों बातों में पता चला, मां गांव में अकेली रहती थी उसकी। उसी के लिए चाहिए थी साड़ी। बाप ने दूसरी कर ली थी। यह बताते कई भावों वाला समंदर उसकी आंखों में ज्वारभाटे सा उछल शांत हो गया। पैर ठीक हो गया था मेरा। मैंने द्रवीभूत हो शॉपिंग साइट पर एक सिंथेटिक सिल्क की बनारसी साड़ी पसंद कर ली। इन लोगों को क्या पता चलता है असली नकली का। सस्ती थी। दिवाली पर दूंगी इस देवदूत को, यह सोच लिया।
मुझ से दो सौ रूपए और कई औरों से भी पैसे उधार ले एक हफ्ते की छुट्टी पर गांव गया और महीना बीत गया। बस उदार मन से उस चोट्टे के लिए देवदूत की छवि की हत्या कर मौन गालियां, श्राप दे डाले। झुंझलाहट इतनी कि खुद से यह भी मान लिया कि जो सामान लाता था उसमें भी पैसा मारता होगा चोर। फिर पता चला, वह तो किसी दुर्घटना में मारा गया। मन फिर पलटा। मन में चोर मर गया, देवदूत जिंदा हो गया। देवघर में खूब प्रार्थना की। मध्यमवर्गीय धर्मभीरू गिरगिट मन ने प्रायश्चित करने की सलाह दी। नकली बनारसी साड़ी मैंने फिर देवी के मंदिर में चढ़ा क्षमा मांग ली और उस देवदूत की आत्मा के लिए शांति।
गरिमा जोशी पंत
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