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बनारसी साड़ी-डॉ. पूजा

कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 कहानी शीर्षक – बनारसी साड़ी। शब्द सीमा – 500 शब्द
निष्ठा स्कूल से आई और अपना बस्ता चटाई पर रखते हुए कहती है, “अम्मा देखो न बाबा के हाथों में कितनी कला भरी है । मैं तो बचपन से देखती आ रही हूँ कि बाबा कितनी सुंदर साड़ी बुनते आ रहे हैं । आज भी देखो कितनी सुंदर साड़ी बुनी है । अभी तो हाथ भर का ही काम हुआ है। लेकिन उसका रंग, बॉर्डर और छोटी – छोटी बूटियाँ कैसे अपनी ओर खींच रही हैं । हाँ बिटिया बनारसी साड़ियाँ बनाना तो तुम्हारे बाबा का पुस्तैनी काम है । तुम्हारे बाबा, उनके बाबा, उनके भी बाबा… न जाने कितनी पीढ़ियों से यही काम हो रहा है । पूरे मुहल्ले में ही नहीं बल्कि पास-पड़ोस के गाँव और बाजार-हाट में भी हमें बनारसी साड़ी वालों के नाम से ही जानते हैं । “हाँ अम्मा ! अब तो मुझे भी यही नाम मिला हुआ है।” निष्ठा ने माँ से खाने की थाली लेते हुए कहा । अम्मा निष्ठा के पास बैठते हुए कहती है, “मुझे आज भी याद है जब तुम्हारे नाना जी मेरी शादी की बात तय करने आए थे तो वे गाँव में तुम्हारे दादा जी के नाम से घर का पता पूछ रहे थे । काफी लोगों से पूछा मगर किसी को उनका नाम ही न मालूम था । कुछ देर भटकने के बाद गाँव के एक बुजुर्ग से पूछा, “बाबा ये किसन का घर किधर है? मालूम हो बताइए । काफी देर से भटक रहा हूँ । लेकिन किसन जी के घर पता नहीं लग रहा है।” बाबा बोले, “क्या काम करता हैं किसन ?” तब तुम्हारे नाना बोले, “बनारसी साड़ी बनाते हैं।” फिर किसन किसन… क्या लगा रखा है। बनारसीसाड़ी वाले बोल देते तो कोई भी घर छोड़ आता । जाओ सामने वाली गली का आखिरी मकान है ।”

बाबा ने हाथसे इशारा करते हुए कहा ।वापस आने पर जब यह बात तुम्हारे नाना ने हमें बताई तो हम खूब हँसे और तुम्हारे नाना चारपाई पर बैठ हम सब को ताक रहे थे ।” अम्मा तुम हँस रही थी तो नाना ने डाँटा नहीं ? “नहीं बिटिया !” निष्ठा के सिर पर हाथ फेरते हुए अम्मा ने कहा । ” क्यों अम्मा ?” “मैं भी तो अपने बाबा की लाड़ली बिटिया हूँ । बाबा सोच रहे थे कि आज छोटी-सी बात पर उनकी बिटिया इतना खिलखिला कर हँस रही है लेकिन कल ब्याहने के बाद उस परिवार की मान-मर्यादा को बनाए रखने के लिए परत-दर-परत न जाने कितने पर्दों का ताना-बाना पिरो लेगी ।” माँ ने कुछ भाव-विभोर होते हुए कहा । “अम्मा तुमने तो खूब बनारसी सदियाँ पहनी होगी ?” आतुरता से निष्ठा ने पूछा । “हाँ ! तुम्हारे बाबा के घर वालों ने खूब बनारसी साड़ियाँ चढ़ाई थी हमारी शादी में । सब एक से बढ़कर एक थी । शुरू-शुरू में खूब बनारसी शादियाँ पहनी ।” “अब क्यों नहीं पहनती हो ?” निष्ठा ने माँ से पूछा । ऐसी भारी साड़ियों में घर-गृहस्थी का काम नहीं होता है । अब तो तीज-त्योहार और कहीं आने-जाने में ही पहनी जाती है । अम्मा एक बात पूछूँ ? हाँ ! पूछो । अम्मा क्या बनारसी बहुत महँगी होती है ? क्यों ? तुम ऐसा प्रश्न क्यों पूछ रही हो ? “अम्मा ! कल स्कूल की बूढ़ी आया (चपरासी) मालती आया से बात कर रही थी कि उसने अपने पूरे जीवन में बनारसी साड़ी कभी नहीं पहनी और अब उसमें अपनी बेटी की शादी में बनारसी साड़ी दे पाने का सामर्थ्य नहीं है । ऐसा बोलते हुए वह रो पड़ी थी । उन्हें रोता देख मुझे बहुत बुरा लगा । अम्मा क्या हम उन्हें अपनी तरफ से एक साड़ी भेंट नहीं कर सकते ?” मासूम निष्ठा ने द्रवित आँखों से माँ से कहा ।

निष्ठा के पिता ने माँ-बेटी की पूरी बात सुन ली थी । वह मुस्कुराते हुए बोले, “कब है बूढ़ी आया की बेटी की शादी ?” “बाबा अगले महीने ।” निष्ठा ने कहा । बाबा अंदर से एक सुंदर-सी बनारसी साड़ी लाकर निष्ठा को देते हुए कहते है कि कल स्कूल जाओगी तो बूढ़ी आया को दे देना । अगले दिन स्कूल पहुँचने पर निष्ठा और माँ ने बूढ़ी आया को बनारसी साड़ी बेटी की शादी के लिए भेंट स्वरूप दी तो बूढ़ी आया कृतज्ञतावश द्रवित आँखों से निष्ठा को गले लगा लेती है ।

डॉ पूजा हेमकुमार अलापुरिया ‘हेमाक्ष’ 

77387883710 

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