कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 जब मैं छोटा बच्चा था (संस्मरण)। शब्द सीमा- 700-1000 शब्द।
जब मैं छोटी बच्ची थी… नन्ही बच्ची की भोली-भाली छवि संग बचपन भी आँखों के सामने सजीव हो आया।उस सजीव बचपन से झाँकने लगी दो भूरीआँखें प्यारी सहेली गुड्डी की। गुड्डी!बचपन की पुस्तक में जुड़ा एक ऐसा पृष्ठ जिसे विलग कर पाना शायद संभव नहीं।समय की परतों में दबा पीला ,भूरा पृष्ठ एक ऐसी बाला का कहीं भी मेरे जीवन से साम्य नहीं रखती पर ….बस कभी कभी मुस्कुरा कर ,कभी -कभी खिलखिलाकर झाँक जाती है ,कानों में गुनगुनाती सी कुछ कह जाती है । छह -सात बरस की नन्ही की शायद बारह तेरह बरस की सखी सहेली ,एक श्रमिक सुता!मजदूर की बेटी !गुड्डी ! घर के सामने ही नए घर उग रहे थे।असंख्य हाथ कंक्रीट के जंगल बो रहे थे ।उनमें दो और दो चार हाथ गुड्डी के माँ-बापू के भी थे । याद नहीं , गुड्डी से दोस्ती कैसे हुई ? पर आज भी नेत्रों के सम्मुख है वह परिदृश्य । निर्माणाधीन भवनों के पास ही मैदान में घास- फूस से बनी झोंपड़ी और सामने बागड़ से घिरा आँगन… बागड़ पर खिले बैंजनी-पीले फूलों पर मंडराती तितलियाँ ,हरी कच्च गंध लिए , हरी-हरी लता-वल्लरियाँ… लौकी ,तुरई की बेलें और उन पर दौड़ लगाती गिलहरियों की फौज …और मुस्कुराते पीले -भूरे गेंदों की हृदयहारी गंध आज भी गहरी रची बसी है।
पीली मिट्टी से पुता ,सलोना, मुस्कुराता चूल्हा! जो गोबर से लिपेपुते आंँगन में बड़े गर्व से इठलाता था । भूरे-भूरे बालों की चोटी में टंका लाल रिबन, साँवला रंग , समय से पहले ही पक गया चेहरा! उस पर छोटी-छोटी भूरी आँखें!हमेशा मटमैला सा घाघरा – कमीज़ पहने नन्ही गुड्डी पूरा घरबार, चूल्हा-चौका संभाले हुई थी । स्कूल से आते ही बस्ता रख,एक ही घूंट में दूध का पूरा भरा हुआ ग्लास गटक कर ,चप्पलें सटका कर,तीर सी छूटी गुड्डी के घर पहुँच जाती। अपनी कपड़े से बनी,गोटे टंकी लाल चुनर ओढ़े गुड़िया लिए, ईंटों से बने स्टूल पर बैठ जाती है ।खूब बातें होतीं …पर बातचीत का विषय क्या होता आज याद नहीं ! यह सुनिश्चित है कि बातचीत में गुड्डी का हाथ न थमता , कोने में रखी हुई सूखी लकड़ियों से चूल्हा जलता। फिर पानी से धोकर दाल हांडी में चढ़ा देती ,फिर चावल धोकर एक ओर रख लेती ।उसे सारे काम करते देख ,मुझे बहुत अच्छा लगता… इच्छा होती मैं भी उसका हाथ बटाऊँ…इसी बीच में है वह आटा उसन के रख देती। मुझे याद है .. एल्यूमीनियम की परात में आटे को थोड़ा प्यार से और थोड़ा पटक कर गूंधना…और गुंधा हुआ सलोना आटा चमकती हुई परात…।फिर मिट्टी के तवे पर हाथ से ही मोटी -मोटी रोटियाँ बनाती, सुलगते अंगारों पर एक -एक रोटी फूल कर बाँस की टोकरी में सज जातीं।प्याज और कच्ची कैरी में नमक ,लाल-मिर्च डाल, सिल्ला पर चटनी बांट लेती।
गरम- गरम रोटियों और चटनी की खुशबू से मेरे मुँह में पानी आ जाता। गुड्डी एल्यूमीनियम की प्लेट में रोटी , चटनी और प्याज परोस मुझे थमा देती। घर में खाने-पीने में नखरे करने वाली मैं, झटपट पूरी प्लेट साफ कर देती। आज भी उन रोटियों और चटनी की सौंधी गंध मन में कहीं गहरे पैठी हुई है।आज भी वह स्वाद,वह गंध जीभ को रससिक्त कर जाती है। गुड्डी मेरे हाथ से थाली लेकर जूठे बर्तनों में रख देती।फिर चूल्हे की राख से बर्तन साफ करती।उसके जादुई हाथों के स्पर्श से हर बर्तन ऐसा चमकता कि हमारे प्रेम पगे मुख उसमें दमकने लगते। उसके सभी कामों से निपटने पर हम स्टापू खेलते।टूटे मटके के नुकीले टुकड़े को जमीन की छाती पर गढ़़ा कर स्टापू का जाल तैयार हो जाता।फिर उसी टुकड़े की गिप्पी बनाकर, लगड़ी खेलते हुए ,सारे खाने पुगने पर…समुद्र में (जाल के बाहर ) खड़े हो आंखें बंद कर,पीछे गिप्पी फेंक कर, घर बसाते और घर में दोनों पाँव रखकर खड़े होने की, वह आनंददायक सुखद अनुभूति आज अलभ्य है।
कभी गुड्डी के भाई के सब्जी के ठेले पर खेल ही खेल में सब्जी बेचते कॉलोनी का चक्कर लगा आते और तब एम्बेसडर भी अपना मुँह चुराती सी लगती। गुड्डी मेरे घर भी बेरोकटोक आती और तब मैं टीचर बन उसे पढ़ाती ।खेल ही खेल में गुड्डी भी मेरे साथ पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करती रही।और मैं जीवन के खुरदरे अनुभवों से हरी-भरी खुशियों से जुड़ती रही। छोटे-छोटे सुख !छोटी -छोटी खुशियाँ! मैं उन छोटी सी नन्हीं सी खुशियों को दामन में समेट लेना चाहती हूँ जो मेरे पास थी पर कब?जब मैं छोटी बच्ची थी।
यशोधरा भटनागर
152, अलकापुरी, देवास,
मध्यप्रदेश 455001