कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 कहानी शीर्षक – बनारसी साड़ी। शब्द सीमा – 500 शब्द
पूरे मोहल्ले में इस बनारसी लाल साड़ी की बड़ी चर्चा थी। होती भी क्यों ना? उमा देवी अकसर अपने बक्से से अपनी लाल बनारसी साड़ी निकालतीं, उसे अपने बिस्तर पर रख कर निहारतीं, उलटती-पलटतीं, फिर करीने से तहा कर वापस बक्से में रखकर ताला डाल देतीं। घर में किसी की मजाल थी जो उस साड़ी को छू भी ले। तो चर्चा तो होनी ही थी।उमा देवी की बहू रमा का दिल भी उस लाल साड़ी पर आ गया था। हसरत थी कभी उसे पहने। अब सफेद धोती पहनने वाली सास तो उसे पहनने वाली नहीं थीं। परंतु जाने क्यों उस साड़ी पर वह कुंडली मारे बैठी थीं। इस बात से बहू रमा बहुत कुढ़ती थी साल बीतते रहे और मोहल्ले में उमा कुंडली मार बुढ़िया के रूप में प्रसिद्ध हो गई। बहू को अब वह फूटी आँख नहीं सुहाती थीं। परंतु मातृभक्त पति के कारण वह बुढ़िया का कुछ कर नहीं पाती थी। फिर एक दिन सास से साड़ी माँगने का एक ठोस कारण मिल गया और वह बिना किसी भूमिका के सास के सामने जा खड़ी हुई। “माँजी, मेरी बहन की शादी तय हो गई है।” “यह तो बहुत खुशी की बात है। बहू, तुम अपने जाने की तैयारी कर लो। मैं यहाँ सब संभाल लूँगी।” निश्चल भाव से सास बोलीं। “माँजी, मैं चाह रही थी कि बहन की शादी में मैं आपकी बनारसी साड़ी पहन लूँ।” “जानती हूँ बहू, तुम्हें वह साड़ी बहुत पसंद है। कोई और चीज होती तो मैं कब की तुम्हें दे चुकी होती। लेकिन यह साड़ी मेरे लिये केवल साड़ी नहीं है। जानती हो जब मैं ब्याह कर इस घर में आई थी तब तुम्हारे ससुर जी मुझे घुमाने बाजार ले गए थे। वहाँ हमने यह लाल बनारसी साड़ी देखी। जिस पर मेरा दिल आ गया था। परंतु जानती थी हमारी हैसियत नहीं है। मन मारकर हम वापस आ गए। यह बात मेरे पति के दिल में रह गई। साल बीतते रहे। मेरे पति अक्सर कहते ‘मुझे तुम्हें वह साड़ी दिलानी है।’ पर गरीबी तो गरीबी है ना।
हम कभी इतना पैसा नहीं जोड़ पाए की बनारसी साड़ी ले पाते। फिर तुम्हारी शादी का समय आया। शादी के ही खर्चों में मेरे पति एक दिन यह साड़ी मेरे लिए लेकर आए। जितनी मैं खुश थी उसके चौगुना मेरे पति खुश थे। तुम्हारी शादी में जब मैंने इसे पहना तो फूले ही नहीं समा रहे थे। पर किस्मत में उन्हें एक बार ही मुझे इस साड़ी में देखना बदा था। तुम्हारी शादी के बाद जब वह नहीं रहे तो मुझे ऐसा लगा, इस साड़ी के रूप में उन्होंने अपना प्रतिरूप मुझे दे दिया है। जब मैं इसे निकाल कर इस पर हाथ फेरती हूँ, मुझे लगता है मैं अपने पति को छू रही हूँ। फिर मैं अपने पति को किसी को कैसे दे दूँ? बताओ बहू?” नम आँखों के साथ बहू सास के गले लग गई और बोली, “नहीं माँजी, यह साड़ी आपके पास ही अच्छी है। अब मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। आज बाबूजी ने ही हम सास-बहू के रिश्ते में मिठास घोल दी है।”
नीलम राकेश
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Dear Neelam
I am not the only one who loves your work,the number of prizes and awards that you have earned are a proof,every one loves your stories.
This story,Benarsi Sari,too is a lovely story and I feel you have a good chance to get appreciation from the judges too.
Please accept my best wishes.
Deepak Sharma
बहुत बढ़िया कहानी। बधाई।
सुन्दर, मार्मिक कहानी.
बहुत सुंदर भावभूमि पर नारी मनोविज्ञान का सहज संक्षिप्त चित्रण
रोचक सकारात्मक लेख, लेखिका को हार्दिक साधुवाद एवं बधाई
नीलम की बनारसी साड़ी ‘बहुत ही मार्मिक कहानी है।मनोभावों का चित्रण बहुत सूक्ष्म और सुंदर तरीके से किया गया है।
पति के प्यार की निशानी…प्यारी कहानी।
कुछ वस्तुओं को इंसान चाहकर भी अलग नहीं कर पाता क्योंकि उससे उसकी यादें जुड़ी रहती हैं जो उसके जीने का सहारा होतीं हैं। बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कहानी।
मर्मस्पर्शी कथा।दो पीढ़ी के भावों को शब्द देती।
Very emotional and heart touching story
Really loved reading it
नीलम राकेश की “नीलम की बनारसी साडी” एक मार्मिक प्रस्तुति
बहुत ही मार्मिक कहानी है नीलम जी की। जाने अनजाने में सास बहू के बीच गलतफहमियां स्वाभाविक होती हैं किन्तु बात को स्पष्ट कर लेने से सम्बन्धों में मधुरता की सम्भावना अधिक होती है। नीलम जी ने एक उत्कृष्ट कहानी के माध्यम से इस बात को सिद्ध कर दिया है।