कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 कहानी शीर्षक – बनारसी साड़ी। शब्द सीमा – 500 शब्द
बरसात के बाद, एक दिन सागर की मां ने अच्छी धूप निकलती देख अपने पुराने बक्सों को धूप दिखाने के लिए लाइन से छत पर खोल खोल कर रख दिए। तभी सागर को न जाने क्या हुआ उसने मां की साड़ियों के बीच से एक हरे रंग की बनारसी साड़ी निकाल ली। “मां यह साड़ी मुझे दे दो, बड़ी होकर मैं इसे पहनूंगी” ।तभी सागर के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ पड़ा। ये सुनकर उसकी मां क्रोध से तमतमा उठी ।”तुझे समझ नहीं आता, हजारों बार तुझे समझाया है, कि लड़कों की जून में रहा कर।हमारी मिट्टी क्यों खराब कर रहा है तू”,दोनों हाथ जोड़े मां चिल्ला रही थी।”सागर इज्जत से जीने दे हमें ।लड़कों की तरीके से क्यों नहीं रहता ,क्या लड़की बना फिरता है। इतने लंबे-लंबे बाल… और अब तो नाक कान भी छिदा लिए। सागर की मां अपने माथे को पीटती रोती, चिल्लाती,सागर के बाल पकड़ पकड़ कर उसे झिझोड़े जा रही थी । शोर सुनकर सागर की बहन और भाई भी वहां आ पहुंचे। सागर की बहन ने मां को शांत करने की कोशिश की और सागर को एक कमरे में बन्द कर दिया गया। ये सब सागर के साथ पहली बार नहीं हुआ था। अक्सर ऐसा ही होता था।कई कई दिनों तक उसको खाना नहीं दिया जाता, कमरे में बंद रखा जाता था कि वह लड़कियों की तरह रहना, बोलना बंद कर दे।और लड़कों की तौर तरीके से रहना सीख जाए ।वह सब सह रहा था। वह रात रात भर रोता रहता, भगवान से पूछता, कि उसकी गलती क्या है? उसने उसे ऐसा क्यों बनाया है? उसके अपने ही उसे क्यों नहीं समझते? क्या अब उसे लोगों के गंदे, भद्दे व्यंग बाण, और भद्दी हँसी के साथ जीना पड़ेगा? सागर ने बहुत कोशिश की लेकिन अपने अंदर की लड़की को कभी नहीं मार सका। सागर के मन में भी अक्सर मां के शब्द गूंजते रहते “कहीं डूब कर मर जा सागर” ,वह जीते जी दिन पर दिन मर रहा था ।एक दिन सुबह घर में शोर होने लगा ।
सागर का कमरा खाली था।मां की ममता रो रही थी मगर समाज के डर से सोच रही थी कि अब वह लौटकर कभी ना आए। समय पंख लगा कर उड़ चला 5 वर्ष बीत चुके थे ।घर ,गली मोहल्ला शायद सागर को भूल चुका था। आज सागर की बहन के विवाह के उपलक्ष में घर में कीर्तन का आयोजन किया गया। कीर्तन में भव्य कीर्तन मंडली का आगमन हुआ। सागर के परिवार वाले बहुत खुश थे कि इतने कम पैसों में इतना भव्य अयोजन हो रहा था। इस कीर्तन मंडली में एक सदस्य बड़ी-बड़ी काजल भरी आंखें, माथे पर लाल सूरज की तरह दमकती हुई बड़ी सी बिंदी, नाक में छोटी सी नथ, कानों में बड़े-बड़े से झुमके और लाल साड़ी पहने , अलौकिक आभामंडल लिए,सभी का बरबस ही ध्यान आकर्षित कर रहा था। तभी किसी ने दबे शब्दों में कहा “देखो साक्षात् देवी लग रही है लाल साड़ी में” तभी उस व्यक्ति ने उत्तर दिया “वो तो ठीक है परंतु दिखाई नहीं देता यह कौन है”। तभी माता के जयकारे से सारा वातावरण गूंज उठा। फिर तो भक्ति की ऐसी लहर उमड़ी ,वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति मंत्र मुग्ध हो प्रभु भजन में खो गया। जब कीर्तन समाप्त हुआ तभी लाल साड़ी वाली ने सागर की मां से दुल्हन से मिलने की इच्छा जाहिर की । लाल साड़ी वाली दुल्हन को एक टक निहारती ही रह गईं|
तभी सागर की मां ने दुल्हन की झोली फैला कर माताजी से आग्रह किया कि उसकी झोली में अपने आशीर्वाद स्वरुप कुछ डाल दें।”आप ऐसा आशीर्वाद दें कि हमारे सारे कष्ट दूर हो जाएं और खुशियां लौट आएं ” हाथ जोड़े सागर की मां याचना कर रही थी। तभी लाल साड़ी वाली बोली “ठीक है, लेकिन पहले मेरी एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी।” “बोलो माताजी इस घर में बहुत वर्षों के बाद कोई समारोह हुआ है, हमने बहुत बुरे दिन देखे हैं।आप बस आदेश दें। “कुछ नहीं बस वह आपके बक्से में जो हरे रंग की बनारसी साड़ी रखी है न,बस वह दे दो।” लाल साड़ी वाले ने हाथ जोड़कर अपनी बात रखी ।जैसे ही सागर की मां और बहन ने यह शब्द सुने उन्हें सागर को पहचानने में देर नहीं लगी। और फिर तीनों के भीतर जो जज्बातों का तूफान और आंखों में जो समंदर उमड़ा, वह पल में ही सारे ही गिले, शिकवे अपने साथ बहा ले गया। और सागर की मां ने वह हरी बनारसी साड़ी उस लाल साड़ी वाली माता जी को दे दी।
अलका गुप्ता (नई दिल्ली)
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