जब कभी
अकेले बैठते हैं हम,
मन के पिटारे
खोल लेते हैं हम,
हर पिटारे का
अलग ही रंग होता है,
सबका ही
अलग-अलग ढंग होता है,
कुछ जाने-पहचाने,
कुछ अनजाने से होते हैं,
जाने-पहचाने तो
अब बेगाने से लगते हैं,
अनजानों का बोल-बाला है,
खुला जैसे उसका ही ताला है,
मन को भी बतियाते सुनते हैं,
पिटारे भी कुछ ऐसे कहते हैं,
एक पिटारे से…
कितने मासूम थे तुम,
अपनों को अपना
समझते थे जो तुम,
दूसरे पिटारे से….
मासूम नहीं बेवकूफ थे तुम
अपनों को अपना
समझते थे जो तुम,
हतप्रभ मन
कभी इधर, कभी उधर देखता,
दोनों की बातों को
समझने की कोशिश करता,
एक अनजाने पिटारे से….
एक व्यंग्य भरी मुस्कान
देख मन तिलमिला गया,
तभी ..
दूसरे अनजाने पिटारे से
आवाज आती है
क्यों इतने में तू झल्ला गया ?
दुनिया की यही रीत है
खैर मना अब भी तो आयी समझ,
तू नारी है
तू अपनों में क्या अपनापन ढ़ूंढती है,
बचपन में जो अपने थे
उसके लिए तू हुई पराई,
विदा हो किसी पराए घर है आयी,
अरे रे पगली, पराए तो पराए होते हैं
वे कब होते अपने,
मन ठगा-ठगा सा खुद को पाता
फिर मन ही मन को है समझाता,
मत सोच उसे, किया जो दूर है
अपने अहंकार में वो मगरूर है।
पूनम झा ‘प्रथमा’
जयपुर, राजस्थान
Mob-Wats – 9414875654
Email – poonamjha14869@gmail.com