कंधे पर,
धरे हल ,
किसान कहें,
या हलवाहा!
धरती की छाती,
चीरता,
धूप, वर्षा,
जाड़ा सहता!
गांव,
किसान,
मेहनत से,
बना भारत!
खो सा गया,
अब वह गांव,
किसान वाला,
भारत!
मेंड़ बांँधता,
पसीने से,
लथपथ,
किसान!
बैलों को,
ललकारता,
नंगे बदन,
हलवाहा!
थककर,
चकनाचूर,
हराई मारकर,
बैलों को,
सुस्ताने,
के लिए,
हल रोकता,
और,
खुद,
बरगद के नीचे,
महुए की छाया,
या आम के,
बगीचा में,
जाकर,
धूप से,
बेहाल,
छाया पाता है,
तब के सुख,
का वर्णन,
वह खुद नहीं,
कर पाया है!
वह स्वर्गिक,
सुख,
अब छूट गया,
श्रमेव जयते,
का नारा,
भूल गया!
अब,
मृगतृष्णा में,
कूलर, पंखे,
वातानुकूलक,
से तमाम,
बीमारियों,
को,
गले लगाकर,
परेशान हैं!
बूढ़े बरगद की,
छाया के,
सुख से,
कोसों दूर हैं!
न हल हैं,
न हलवाहा हैं,
न सुख है,
न गांव हैं!!
सतीश “बब्बा”
ग्राम+ पोस्ट= कोबरा,
जिला – चित्रकूट, उत्तर – उत्तर, पिन – 210208.
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