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हे जग के रचयिता स्वामी,
कन कन में है बा स तेरा।
तुम बिन हूं दुखियारी मैं,
अब तो लगाओ पार मेरा।
अब करा दे दीदार अपना,
मछली जैसी है तरप मेरा।
हे नाथ अपनी शरण लगा,
कन कन में है वास तेरा।
जैसे मेहंदी में छुपी लाली,
जुगती से हाथों में सजती।
जैसे घी रहते हैं दूध में ही,
बिन युक्ति निकलते नाहीं।
घट घट में तू ही विराजै,
यह अखियां देखत नाहीं।
विशेष कृपा जब होती तेरा,
उन्हीं को लख ते हो सदा।
हमें तो सद्बुद्धि दीजिए,
आत्मिक भूख मिटै मेरा।
नेह सदा ही बरसती रहे,
कन-कन में है वास तेरा।
डॉ. इन्दु कुमारी
मधेपुरा बिहार