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“अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नही है। मुर्दा है वह देश,जहाँ साहित्य नही है।”
वर्तमान युग में मानवता का आकाश एक बार फिर घुटन से भर उठा है। चारों ओर अशांति व अविश्वास का वातावरण बन रहा है। ऐसी स्थिति में आज साहित्यकार भी निराशा व अनास्थाओं के कुहासे में भटकता हुआ दिखाई दे रहा है।साहित्यकार को आज फिर अपनी कला के माध्यम से मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं को जगाना होगा,जिनसे जनमानस के विचारों की घुटन समाप्त हो सके।उसे विश्व के सामने एक बार फिर से ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का आदर्श रखना होगा।अपने साथ-साथ विश्व- मानवता के सामने उपस्थित संकटों से भी रक्षा करनी होगी और खुद की लेखनी में जान भरनी होगी। प्राचीन समय में साहित्य को कला की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध कहा जा सकता है।क्योंकि उस काल के साहित्यकार साधारण वर्ग के हुआ करते थे। उन्हें अपने आश्रयदाताओं से इतना सम्मान मिलता था कि समाज के प्रतिष्ठित लोगों में उनकी गणना होती थी। उचित सम्मान ही साहित्यकार के सर्जन को प्रोत्साहित करने में सबसे अधिक सहायक सिद्ध हुआ करता है,जो स्वाभाविक भी है।किन्तु दुर्भाग्य की बात यह रही कि इन्हें वह स्वतंत्रता प्राप्त न हो सकी,जो साहित्य सर्जन के लिए अनिवार्य होता है।उन्हें अपने आश्रयदाताओं के अभिरुचि का विशेष ध्यान रखना पड़ता था।परिणाम स्वरूप वह प्रतिभाशाली होते हुए भी अपने सर्जन का उत्तमोत्तम रूप प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते थे।
लेकिन वर्तमान युग में साहित्यकारों को अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है।साहित्यकार का दायित्व वस्तुस्थिति का यथातथ्य चित्रण मात्र प्रस्तुत कर देना भर नही होता है,बल्कि उसके कारणों का विवेचन करते हुए श्रेष्ठता की ओर ले जाना भी होता है।साहित्यकार मात्र समाज का चित्र उतारकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री नही करता है,अपितु समाज में व्याप्त समस्या का समाधान भी बताता है।साहित्य तो वह साधन है,जो युगीन सामाजिक,आर्थिक,मनोवैज्ञानिक एवं राजनैतिक समस्याओं को अपनी कलम के माध्यम से काग़ज़ पर उतार,साहित्य की श्रेणी में ला देने का दम रखता है। सर्वविदित है कि ‘तलवार’ से कहीं अधिक ‘ताकतवर’ कलम होती है। साहित्यकार युग द्रष्टा तो होता ही है,अपितु वह युग सृष्टा भी होता है। साहित्यकार द्वारा लिखा गया प्रत्येक शब्द जनमानस को अपने हृदय का ही उद्गार लगे,ऐसी ही ताकत कलम में होनी चाहिए।क्योंकि वास्तविकता यही है कि आम व्यक्ति के पास भावों का अथाह सागर तो है,परंतु उनके पास अभिव्यक्ति की अविरल धारा का अभाव होता है।इसलिए वही रचनाकार साहित्यकाश में ध्रुव तारे के समक्ष अपने व्यक्तित्व के प्रकाश का प्रसार सुगमता से कर सकता है,जो जनमानस के हृदय की थाह ले पाने में सफल हो सकता हो।
“साहित्य केवल बुद्धि का आइना भर नही है,वह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा कर कभी जीवित नही रह सकता है।” प्रत्येक समाज के अपने रीति-रिवाज,संस्कृति एवं परम्परा होती है।उसको प्रसारित करने के लिए उस सम्प्रदाय के साहित्यकार को अपनी लेखन शक्ति के माध्यम से अन्य देशों तक अपने साहित्य को पहुँचाना भी होता है। तत्कालीन समाज में फैली बेकारी का वर्णन करते हुए वह वास्तव में समाज का गुरू बन पथ प्रर्दशित करता है,जो सामाजिक समस्याओं को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव करता है और फिर उत्तर के रूप में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति देता है। जनसामान्य से आँखें मूँद लेने वाले साहित्यकार की लेखनी दिग्भ्रमित होती है। निश्चित ही सामाजिक परिवेश साहित्यकार को प्रभावित करते हैं। जनमानस की संवेदना और अश्रु साहित्यकार के कलम के माध्यम से रूके-छुपे भाव शब्दों का रूप धारण कर कागज पर उतरते हैं, क्योंकि साहित्यकार का साहित्य समाज का युग दृष्टा,युग सृष्टा दोनों-दिशाओं-में निरंतर कार्य करते हैं।
“इतिहास साक्षी है कि विश्व की सभी क्रांतियों और मानव मुक्ति आंदोलनों के प्रेरक और प्रणेता साहित्यकार ही रहे हैं।साहित्यकार जब सामाजिक समस्याओं के हल का लोकनायक बन जाता है और जब उसका साहित्य सामाजिक संस्कृति को मानवीय हिंसा,घृणा और विद्वेष के दलदल से निकाल कर भ्रातित्व का पाठ पढ़ाता है,तब वहाँ एक नये जीवंतशैली का जन्म होता है।”वर्तमान संदर्भ में साहित्यकारों को यह अच्छे से जान लेना होगा कि धन और यशलिप्सा किसी रचनाकार का लक्ष्य नही हो सकता है,उन्हें अपनी कलम की माध्यम से निरंतर समरसतापूर्ण समाज की रचना के लिए प्रयासरत रहना होगा और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्यकारों को नायक बनकर जीने आना चाहिए और भयमुक्त हो आत्मविश्वास के साथ अपने बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।”
“निश्चित ही साहित्य समाज का दर्पण है।साहित्य में समाज व जीवन के निर्माण की अद्भुत शक्ति छिपी हुई रहती है। अतः जागरूक साहित्यकार का दायित्व है कि वह स्वांतःसुखाय के बनिस्बत सर्वजनहिताय साहित्य का सृजन करे।” मानवजाति का इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्येक युग में साहित्यकार ने अपने दायित्वों को निभाया है,जो वर्तमान युग में विलुप्त होता नजर आ रहा है। वैदिक युग से लेकर रामायण,महाभारत,भक्ति काल,राष्ट्रीय जागरण काल में साहित्यकारों ने अवरोधों को समूल नष्ट करके जीवन व समाज को प्रगति व विकास के जो नए आयाम दिए हैं,वह साहित्यकार ही हैं।यह बुद्धिजीवी वर्ग ने ही आज की विकसित मानवता को नए मूल्य और मान-सम्मान दिए,जिससे छोटे-बड़े,जड़-चेतन सभी के अधिकारों व सम्मान का नारा बुलंद हुआ। साहित्यकार का उद्देश्य समाज का नग्न चित्रण करना नही होता है,अपितु एक इंजीनियर के भाँति एक नये समाज,नये युग का निर्माण करना होता है।”स्थाई साहित्य विध्वंस नही, बल्कि मानव चरित्र का निर्माण करता है,वह कालिमाएँ नही,उज्जवलाएं दिखलाता है।”
साहित्य और साहित्यकार एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े होते हैं।सामाजिक जीवन के विभिन्न चरणों में प्रतिदिन अच्छा-बुरा जो भी घटित होता है,उसका प्रभाव सभी के मस्तिष्क पर अवश्य ही पड़ता है और साहित्यकार भी इन सबसे बच नही पाता है। जन सामान्य और साहित्यकार में मुख्य अंतर यह है कि जन सामान्य अपनी संवेदनाओं को शब्दों में पिरो नही पाता है,जबकि साहित्यकार इसे बहुत आसानी से शब्दों में पिरोकर समाज के सामने रख सकता है। संवेदनशील प्राणी होने के कारण जीव और समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व भी जनसामान्य की अपेक्षा बढ़ जाता है।सच्चा और जागरूक साहित्यकार अपने समय में होने वाले सभी परिवर्तन को अपने शब्दों के माध्यम से वाणी देता है। पीड़ा,शोषण व अन्याय सर्वप्रथम साहित्यकार को ही विचलित करते हैं। जिसे अन्याय देखकर भी क्रोध नही आता है,वह साहित्यकार तो दूर,मनुष्य भी कहलाने लायक नही है। साहित्यकार का दायित्व है जन-मन का प्रर्दशन करना,जन-जन में उन मूल्यों के प्रति आस्था एवं सजगता का भाव जगाना,जो उसकी जाति,देश, संस्कृति व सभ्यता के विकास के लिए आवश्यक है। उनका कार्य जीवन के स्वस्थ व सृजनात्मक तत्वों को उजागर करते रहना है,ताकि जीवन प्रगति व विकास की नयी-नयी मंजिलों की तरफ गतिशील रहे। प्रत्येक युग के साहित्यकार ने अपने युग की परिस्थितियों व आवश्यकताओं के अनुरूप ही साहित्य सृजन किया, जो वर्तमान युग में मृतप्राय हो रहा है।
वर्तमान युग में साहित्यकारों का व्यक्तित्व केवल अपने तक ही सीमित रह गया है,जबकि वास्तव में साहित्यकार का अपना कुछ होता ही नही है।साहित्यकार या तो समाज,राष्ट्र से प्रभावित होता है या फिर उसकी लेखनी समाज को प्रभावित करती है। उसके दायित्व को यथार्थपूर्ण अंकन तक ही सीमित नही किया जा सकता है। साहित्यकार को तो तुलसी,कबीर, मीरा, नानक , प्रेमचंद, कार्ल मार्क्स,रूसो की तरह समाज का पथ प्रर्दशक एवं परिवर्तित क्रांति का द्योतक बनना चाहिए। साहित्यकार की कलम तो – समकालीन मुद्दे, टूटते परिवार उपभोक्ता वाली संस्कृति जो आज लाचारी की वस्तु बनकर रह गयी है,उन पर लगातार चलती रहनी चाहिए। आज के साहित्यकार छोटे-छोटे संकीर्ण खांचों और सीमित दायरों में सिमट कर रह गये हैं,उनकी मानसिकता इतनी संकीर्ण होती जा रही है कि अब साहित्यिक पूजा भी गुटबाजी के रूप में करते रहते हैं और यही संक्रमण सबसे अधिक खतरनाक साबित होता जा रहा है। जबकि पूर्व में बेशक साहित्यिक गतिविधियां कम थीं लेकिन उस दौर में सच कहने का साहस कलम बखूबी निभाती थी,जिससे आज का साहित्यकार कोसो दूर होता जा रहा है। यही सोच साहित्यकार के साथ ही साहित्य,समाज,राष्ट्र के लिए भी खतरनाक साबित होगा।
साहित्यिक क्षेत्र तो मनोवैज्ञानिक मनोरंजन के साथ कल्याणकारी होना चाहिए।साहित्य उन मानसिकताओं पर भी प्रहार करता है,जो मानव मस्तिष्क में विभेद पैदा करता है।साहित्यक क्षेत्र एक यज्ञ के समान है,इसमें अपने भावों की आहुति देते ही रहना चाहिए। इस पृष्ठभूमि पर काम करने वाली ‘कलम’ को अपना स्वार्थ छोड़कर परमार्थ में संलग्न रहना चाहिए। वर्तमान समय के हर सच्चे साहित्यकारों का यही संकल्प होना चाहिए और उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि –
“साहित्य एक साधना, जीवन भर का काम।
सध जाए जब लेखनी, तो खुद हो जाता है नाम।”
डाॅ.क्षमा सिसोदिया
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