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अरे गीता! आज इधर कैसे, घूमने जा रही हो क्या? नहीं नीलू बहन, मैं तो रोज इधर आती हूँ अपने बेटे को ट्युशन से लेने।
नीलू- यहाँ कहाँ ट्युशन लगा रखा है तुमने ? गीता वो यहाँ पास में एक आचार्य जी रहते हैं, वे हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा देते हैं, वहीं जाता है। नीलू-हिन्दी और संस्कृत ? ( वह बहुत जोर से हंसते हुए बोली ) क्या बाबाजी बनाओगी बेटे को?
गीता को थोड़ा बुरा लगा फिर भी वह विनम्रता से बोली ”क्यूँ, हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा बाबाजी बनने के लिए ही होती हैं ?
नीलू- और नहीं तो क्या, ऐसे आचार्य भला पढ़ाते क्या हैं? तिलक लगाओ कलावा बांधो और चोटी रखो, अरी जमाने को देखो फर्राटे से आगे बढ़ रहा है। ‘
अब गीता से न रहा गया ”हाॅं जानती हूँ जमाने के इसी फर्राटे ने आप के बेटे को सड़क पे मृत्यु के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था और जब अस्पताल में आपका जमाने के साथ फर्राटे से चलने वाला बेटा जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था तब इन्ही संस्कृत के कर्मकांडी आचार्यों द्वारा आप ही ने महामृत्युंजय मंत्र का अखंड पाठ रखवाया न । घर में फिर स्वयं चिकित्सकों ने कहा क्यूँ याद है या ”? जितना कर सकते थे हमने किया बाकी ईश्वर जाने।
गीता ने देखा नीलू जी का चेहरा फीका पड़ता जा रहा था शायद उनके पास कहने को कोई शब्द नहीं सूझ रहा था इसलिए अब चलने में ही बुद्धिमानी समझ वह वहाँ से चल दी।
इधर हिन्दी और संस्कृत जैसे शुद्ध पवित्र और आध्यात्मिक भाषा के प्रति नीलू जी की जो सोच थी वह उथल- पुथल मचा रही थी उसके हृदय में उसके मष्तिष्क में।
संतोष शर्मा “शान “
हाथरस ( उ. प्र. )