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नशा-डा. अरविन्द दुबे

“वैसे तो दीपेश बुरा आदमी नहीं है पर कभी-कभी उसे न जाने क्या हो जाता है?”स्मिता ने सोचा, एक गहरी सांस ली और अपने शरीर पर पड़े निशानों को सहलाया। कुछ निशान ताजे थे जिन पर से खाल निकल गई थी उन पर हाथ फिराते उसे थोड़ी सी पीड़ा हुई पर उसे न जाने क्यों उसे वह पीड़ा बुरी नहीं लगी। दीपेश और स्मिता के विवाह को तीसरा वर्ष चल रहा है। उनका प्रेम विवाह हुआ है। दीपेश एक केयरिंग पति है। वह स्मिता का ख्याल रखता है। जब मूड में हो और फुर्सत में हो तो स्मिता के घर के कामों में हाथ भी बटाता है।स्मिता का जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ उसे कभी नहीं भूलती। इन दिनों को सेलिब्रेट करने वह उसे बाहर भी ले जाता है, कभी रेस्त्रा तो कभी नाइट क्लब में। कभी-कभी उसे सनक उठती है तो घर आते ही कहेगा,“चलो आज लॉन्ग ड्राइव पर चलते हैं।” “बहुत से घर के काम पड़े हैं उन्हें निपटाना है।” वह दलील देती है। “काम बाद में हो जाएंगे। नहीं भी हो जाएंगे तो क्या फर्क पड़ता है? घर में हम तुम दोनों ही तो हैं। कौन देखने वाला है? चलो तैयार हो जाओ।” वह उसके हाथ का सामान उससे लेकर मेज पर रख देता है। वह झुंझलाने का अभिनय करती हुई तैयार होने लगती है और उसके साथ लॉन्ग ड्राइव पर जाती है।ऐसे में वे खाना बाहर खाते हैं और लौट आते हैं।“पहले से बता दिया करो कम से कम……….” वह लौटने के बाद हर बार कहती है। “पहले से बताने से थ्रिल खत्म हो जाती है। कुछ चीजें जिंदगी में सरप्राइज की तरह एकदम से भी आनी चाहिए। वह ऐसा करता भी है। कभी बिना बताए उसकी पसंदीदा पिक्चर के टिकिट ले आएगा। आते ही चलने के किए जल्दी मचाता चला आएगा।वह उल्टी-सीधी तैयार भागती हुई पिक्चर हॉल पहुंचेगी फिर वहां से रेस्त्रां और देर रात गए घर। इससे बचने के लिए वह कभी-कभी अपनी तरफ से पूछ भी लेती है कि आज कोई ‘सरप्राइज’ तो नहीं है मेरे लिए?“नहीं।” हमेशा उसका यही उत्तर होता है और शाम को वह नए सरप्राइज के साथ उपस्थित हो जाता है। कई बार तो वह उसे ढंग से कपड़े पहनने का भी मौका नहीं देता है। कई बार वह झुंझलाती है, “अगर तुमने कुछ सोच रखा हो तो उसका कुछ डायरेक्ट इन्डायरेक्ट हिंट तो दे जाया करो ताकि यह हड़बड़ी न हो।” “सच बताऊं, सवेरे मुझे खुद भी नहीं मालूम होता है कि आज मैं क्या करने वाला हूं? मन में एक विचार अचानक बिजली की तरह कौंधता है। फिर मुझे लगता है कि इसे अभी करना चाहिए, बस….। आई इंजॉय दी थ्रिल….तुम्हारा वह भौंचक रह जाना। तुम्हारा वह हड़बड़ी में तैयार होना……… कुछ याद रख पाना, कुछ भूल जाना……. सब कुछ कितना मजा देता है।” यह कहते समय उसके चेहरे पर अजीब सी चमक आ जाती है।

एक बार तो दीपेश ने हद ही कर दी। ऑफिस से वापस आते ही स्मिता से कहा कहा,“चलो लॉन्ग ड्राइव पर चलते हैं।स्मिता उस समय किचन में सब्जी छौंक रही थी, बोली, “खाना बन जाने दो तब चलते हैं।”“अरे नहीं खाना तो बाहर खा लेंगे। बंद करो यह सब।” दीपेश ने आकर उसके हाथ से करछुल लेकर एक और रखी और गैस बंद कर दी। फिर स्मिता की आंखों में आंखें डाल कर बोला, जल्दी करो यार, क्विक।” “तुम तो ढंग से तैयार होने का मौका भी नहीं देते।” स्मिता ने शिकायत की। “अरे तुम्हें तैयार होने की जरूरत क्या है? तुम तो बिना तैयार हुए ही अप्सरा लगती हो।” “चल झूठे।” कह कर मुस्कुराते हुए वह शीशे के सामने खड़ी हो जाती है। “अरे जो कपड़े पहने हो उन्हें ही पहने रहो न।” “पागल हो गए हो क्या? यह देखो हल्दी का दाग।” अरे इसमें भी एक थ्रिल है। जैसे कि घर से अंतर्ध्यान हुए और बाहर जाकर प्रकट हो गए। ऐसे ही चलो न प्लीज।”

वह जान गई आज दीपेश मानेगा नहीं, ऐसे ही जाना पड़ेगा। फिर भी वह तैयार होने की कोशिश करती रही। दीपेश पास आया। उसके हाथों से कंघी ली। कंघी को उसके बालों में फिराया और एक हेयर बैंड लेकर बालों में फंसा दिया। वह ‘सुनो तो’‘सुनो तो’ करती ही रह गई।कंघी कर दीपेश उसके पीछे आ खड़ा हुआ। दोनों के चेहरे शीशे में दिखाई दे रहे थे। “देखा क्या चीज लग रही हो?” उसने उसकी गर्दन पर चूमा। “हटो छोड़ो।”वह शर्माई और जल्दी से स्लीपर पहन कर, घर बंद कर, गाड़ी में आ बैठी। “देखो इस हाल में मैं गाड़ी से बाहर नहीं निकलूंगी, चाहे जो भी हो जाए। किसी ने पहचान लिया तो तो?” “तो और मजा आएगा।” कहकर वह हंसा और गाड़ी आगे बढ़ा दी। जहां उसने गाड़ी रोकी वह शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर स्मिता का पसंदीदा ढाबा था। यहां की तड़का लगी दाल और घी चुपड़ी रोटियां उसे बहुत पसंद थी। पर इन बानकी बुनी झंगोली चारपाई पर पटरा लगाकर खाना और मग्गे से उड़ेल कर पानी पीना उसे सख्त नापसंद था। “यहां क्यों?” स्मिता ने गाड़ी रुकते ही पूछा।

“यहां मां बदौलत अपनी मलिका के साथ डिनर करेंगे।” दीपेश ने नाटकीय मुद्रा में अपने सीने पर हाथ रख कर कहा।स्मिता भी मुस्कुराए बिना न रह सकी। खाना खाने के बाद जब उसने यात्रा शुरू की तो वह चौंकी। “इधर कहां? अपना शहर तो पीछे है, मुड़ कर वापस चलो।” उसने कोई उत्तर नहीं दिया। “आखिर हम कितनी दूर जाएंगे ? बहुत हो चुकी लॉन्ग ड्राइव, वापस घर चलो। वहां सब कुछ बिखरा छोड़ आए हैं।” दीपेश ने अब भी कोई उत्तर नहीं दिया। “हम जा कहां रहे हैं ?” उसने किंचित तेज स्वर में पूछा। उसने वहां से 150किलोमीटर दूर एक हिल स्टेशन का नाम लिया। “मजाक मत करो सच बताओ।” वह झुंझलाई। “सच ही बता रहा हूं।” उसने फिर उस हिल स्टेशन का नाम लिया। “पागल हो गए हो। एक तो घर से ऐसे ही उठ कर आ गए हैं। बदलने के लिए हमारे पास कपड़ा तक नहीं है। कैसे करेंगे?” वह परेशान होने लगी। अचानक उसके मन में एक विचार कौंधा,“दीपेश का कोई और इरादा तो नहीं है। कोई खतरनाक इरादा तो नहीं है? कोई भी नहीं जानता कि हम लोग कब वहां से चले हैं और कहां गए हैं?” उसे डर लगने लगा।अब तक सुनीं-पढीं बहुत सारी कहानियां उसे याद आने लगीं। “वापस घर चलो। मुझे नहीं मुझे कहीं नहीं जाना है।” उसने स्टेयरिंग पर रखे उसके हाथ पर हाथ रखा।

“हमें तो जाना है, वह भी अपनी मलिका के साथ।” उसने दूसरे हाथ से उसे अपने पास खींच लिया।“समझा तो करो।घर हम कैसी हालत में छोड़ आए हैं? बदलने के लिए हमारे पास कपड़ा तक नहीं है। घर पर दूध वाला आएगा, ब्रेड वाला आएगा, उनसे कह कर भी नहीं आए हैं कि मत आना।”“ओके, ओके, कपड़े हम वहीं खरीद लेंगे। रही दूध और ब्रेड वाली बात तो वेउन्हें वे दरवाजे पर छोड़ जाएंगे। जिसकी किस्मत में दूध-ब्रेड होगा वह उठा लेगा।”आखिर हम वहां ऐसे जाकर करेंगे क्या?”उसके स्वर में गुस्सा और झुंझलाहट साफ झलक रही थी। “खाएंगे, पिएंगे, मौज करेंगे और क्या?” वह मुस्कुराया। “अजीब आदमी है यह।”स्मिता ने सोचा।  अब स्मिता को डर लग रहा था।उसने फोन उठाकर मां को सूचना दी, “हम जा रहे हैं.” उसने हिल स्टेशन का नाम बताया”। “अरे अचानक?” उधर से मां की आवाज आई। “हां,इनका प्रोग्राम तो अचानक ही बनता है।” वह मां को दीपेश की सनक के बारे में बता कर परेशान नहीं करना चाहती थी। “तुम लोग कब तकलौटोगे?” मां ने पूछा।“पता नहीं शायद एक-दो दिन में।” उसने फोन बंद कर दिया वरना मां तरह-तरह के सवाल पूछती जिनका जवाब देना उसे मुश्किल हो जाता। मां से बात कर के उसे थोड़ी तसल्ली हुई। लगा कोई तो जानता है कि वह कहां जा रही है? “तुम ऑफिस से छुट्टी लेकर आए हो?” उस ने जानना चाहा। “नहीं।” “हे भगवान!तुम भी क्या-क्या करते हो।”वह झुंझलाई।

चार घंटे की ड्राइव में बैठे-बैठे वह थक कर चूर हो गई थी। दीपेश ने रास्ते में गाड़ी कहीं नहीं रोकी थी फिर भी जब वे लोग वहां पहुंचे तो रात काफी हो गई थी। “ये रात का समय, ये बिना बताए हिल स्टेशन आना, आखिर दीपेश क्या करने वाला है?” स्मिता को झुरझुरी हो आई। उसके मन में तरह-तरह की विचार आने लगे। उसे अफसोस होने लगा कि क्यों आज उसने ढाबे से ही वापस जाने की जिद नहीं पकड़ी? क्यों उसने इस बार भी हथियार डाल दिए? पर हर बार ऐसा ही होता है। जिद ज्यादातर दीपेश की ही चलती है। वह तो कठपुतली की तरह उसके इशारों पर नाचती जाती है। “कुछ नहीं होगा।” उसने धीरे से अपने आप से कहा और मन को शांत करने का प्रयास किया।वहां के एक होटल की पार्किंग में गाड़ी रोककर दीपेश ने उससे उतरने को कहा। “इन कपड़ों में?” वह रुआंसी होआई। “कम ऑन डार्लिंग, यही तो थ्रिलहै।जैसे घर से अंतर्ध्यान हुए और यहां प्रकट हो गए।” “तुम अपनी थ्रिल अपने पास ही रखो। मैं तो इन कपड़ों में शर्म से गढ़ी जा रही हूं।” “कम ओन माय प्रिंसेस,एंजॉय।”

सकुचाती हुई वह गाड़ी से बाहर आ गई। होटल के रिसेप्शन काउंटर पर खड़ी रिसेप्शनिस्ट की नजरें जैसे उसे टटोल रहीं थी। कोई ऐसे तुड़े मुड़े और हल्दी के दाग-धब्बे लगे कपड़ों में हिल स्टेशन आता है? कमरे की चाबी लेकर वह ऐसे शरमाती-सकुचाती सी सीढ़ियां चढ़ रहीथी जैसे वह घर से प्रेमी के साथ चुपके भाग आई हो।रात के समय सिर्फ कॉफी ही मिल सकती थी। दीपेश ने रूम सर्विस को फोन करके कॉफी मंगाई।काफी खत्म कर जब वह बाथरूम जाकर वापस आई तो दीपेश पर बरस पड़ी, “अब बताओ बदलने के लिए कपड़े तक नहीं हैं, क्या करूं? रात को इस समय तो बाजार भी नहीं खुले होंगे। कैसे सोएंगे?”“क्यों, आज की रात बिना कपड़े के ही सो जाते हैं।” वह शरारत मुस्कुराया और उसने बत्ती बुझा दी। हमेशा दीपेश उसे इस तरह के सरप्राइज देता रहता है। सबसे बड़ा सरप्राइज तो उसने उसे उस दिन दिया था। शादी को तीन महीने ही बीते थे। वह अभी वह नई-नवेली दुल्हन थी और पति की प्रेयसी। दीपेश सिगरेट पीता हुआ बेडरूम में घुसा। वह सोने के लिए मैक्सी पहन रही थी। “सिगरेट! तुम सिगरेट पीते हो?” स्मिता ने चौंकते हुए पूछा। “हां कभी-कभी।” “पहले तो तुमने कभी नहीं बताया कि तुम सिगरेट पीते हो?” स्मिता ने नाराज़गी से कहा। “कहा न, कभी-कभी।” उसके स्वर में कोई ग्लानि नहीं थी। उसने हाथ बढ़ाकर उसे अपने पास खींच लिया। स्मिता के हाथ की कंघी फर्श पर गिर गई। “छोड़ो भी, मुझे सिगरेट से सख्त नफरत है। फेंको इसे।” उसने हाथ उसके हाथ से सिगरेट के धुंए को दूर ठेलते हुए कहा। दीपेश ने कोई उत्तर नहीं दिया। अचानक उसने अपने मुंह से सिगरेट निकाली। उसके नितंब को अनावृत कर उस पर मसलकर सिगरेट बुझा दी। वह दर्द से चीखी, “यह क्या बेवकूफी है?” दीपेश ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी आंखों में एक चमक साफ साफ देखी जा सकती थी।

अंतरंग संबंधों के बाद जैसे दीपेश को होश आया। “सॉरी।” उसने जले हुए स्थान को चूमते हुए कहा। स्मिता ने मुंह चुरा फिरा लिया और उसी स्थिति में करवट बदल कर लेट गई।“सॉरी।” उसने एक बार जल स्थान पर सहलाया। स्मिता ने उसका हाथ झटक दिया। फिर तो इसकी पुनरावृत्ति होने लगी। स्मिता ने झगड़ा किया तो उनके बीच अंतरंग संबंध समाप्त होने लगे। “सो गए क्या?’ वह हर रोज पूछती और दीपेश करवट बदल कर सो रहता। अंततः यह चुप्पी टूटी पर किस कीमत पर? स्मिता के शरीर पर पड़े जलने के असंख्य निशान इसके गवाह थे। हर बार यही होता। जलती सिगरेट उसके निरावृत सीने या अन्य भागों को छूती। वह सिसकारी लेती और दीपेश एक हिंसक पशु की तरह उस पर टूट पड़ता। उत्तेजना शांत होने पर वह फिर वही केयरिंग पति होता। जले के निशान को चूम कर कहता,“सॉरी।” स्मिता ने तरह-तरह इसका विरोध किया, प्यार से, गुस्से से, रूठ कर, घर से भाग जाने की धमकी देकर। पर जब भी वह ऐसा करती उसका प्रयास उसके अंतरंग संबंधों पर कहर बनकर टूट पड़ता। जिंदगी बेरंग, उदासीन सी लगने लगती। एक अपराध बोध उसे घेर लेता।फिर वह बिना शर्त समर्पण कर देती।

कई बार उसने जानने की कोशिश की कि वह ऐसा क्यों करता है? अक्सर वह प्रश्न इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं देता है। एक दिन जब वह जिद पर अड़ गई तो बड़े सकुचाते हुए उसने बताया कि इसके बिना उसे उत्तेजना ही नहीं होती। जलने की बात उसकी सिसकारी उसके लिए ‘किक’ का काम करती है। इसका मतलब वह मानसिक रूप से बीमार है। उसने कई बार उसे उकसाया कि वह किसी चिकित्सक मनोचिकित्सक से मिल ले। वह अकेले नहीं जाना चाहता तो वह साथ चलेगी और वही चिकित्सक को सारी बातें समझा देगी। पर उसे न जाना था तो न ही गया इस।इस प्रकार के सलाह-मशवरे उसके अंतरंग संबंधों पर भारी जरूर पढ़ते थे। न जाने क्या हुआ ऑफिस के बॉस से उसकी खटपट हो गईया कि कुछ और? उसने नौकरी छोड़ दी। उसका नौकरी छोड़ना भी स्मिता के सामने एक सरप्राइज की तरह ही आया।सवेरे वह समान्य रूप से घर से ऑफिस गया था। शाम होने से पहले ही लौट आया और घर आकर बताया कि वह नौकरी छोड़ आया है।
“एकदम से नौकरी छोड़ दी?”स्मिता अवाक थी।
दीपेश ने कोई त्तर नहीं दिया बस खामोशी से अपनी कमीज़ को हैंगर पर लटकाता रहा।
“सवेरे जब तुम गए थे तब तो तुमने ऐसा कुछ भी नहीं बताया था और अचानक…….”
“अरे सवेरे मुझे ही कहां मालूम था कि मैं नौकरी छोड़ दूंगा?”
“तब फिर?” “बस दोपहर में ही मुझे लगा कि मुझे यह नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने रेजिग्नेशन लेटर लिखा बॉस को थमाया और चला आया।” “अजीब आदमी हो। मुझसे भी एक बार सलाह ली होती। आखिर मैं तुम्हारी पत्नी हूं।”
“वह तो हो।” उसने मासूमियत से कहा।  अगर और कोई वक्त होता तो शायद स्मिता उसकी इस मासूमियत पर हंस देती पर इस समय वह काफी गुस्से में थी। “वहां परिस्थितियां इतनी खराब थी कि वहां काम करना और असह्य होता जा रहा था तो तुम्हें बताना तो चाहिए था। बस गए और इस्तीफा दे आए।”स्मिता चिल्ला रही थी। “हुआ क्या था? बॉस ने तुम्हें फटकारा था या फिर नौकरी से निकाल देने के लिए कहा था? छुप क्यों हो, कुछ बताओ तो।”

“कमआन डार्लिंग ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। किसी ने मुझे नहीं फटकारा।न ही बॉस ने मुझे नौकरी से निकाल देने के लिए कहा। वह तो मुझे ही लगा कि मुझे नौकरी नहीं करनी चाहिए। बस मैंने रेजिग्नेशन लेटर लिखा और बॉस को थमा दिया।”“अजीब आदमी हो। इसमें भी तुम्हें थ्रिलनजर आई होगी, है न? यह नहीं सोचा कि घर कैसे चलेगा? हमारी मदद कौन करेगा? हमारे प्रेम विवाह के कारण तुम्हारे घर वाले हमसे वैसे ही नाराज हैं।” हमारे घर तक नहीं आते। क्या अब मैं मम्मी पापा के पास जाकर हाथ फैलाऊंगी।”स्मितारुंआसी हो आई।“ओह कम ऑन डार्लिंग,तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है? रिलैक्स, सब ठीक हो जाएगा। तुम्हें किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा।” उसने उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे अपने पास खींच लिया। और उसने यह कर दिखाया।एकसप्ताह बाद एक दिन तब दीपेश घर लौटा तो उसके हाथ तरह-तरह के झोलों और लिफाफा से भरे थे। वह चहकता हुआ घर में घुसा। आते ही सारे लिफाफे सोफे पर पटक दिए। “क्या बात है आज बहुत चहक रहे हो। क्या कोई नौकरी मिल गई?” उसने व्यंग किया।
“हां, तुमने कैसे जाना?”
“क्या सचमुच?”
उसके उसने उसके होठों के दोनों उंगलियां रख कर ओर उसके मुंह को दाएं-बाएं घुमायाऔरबोला, सच्ची-मुच्ची।”
उसने उसका हाथ आहिस्ता से अपने चेहरे से हटाया और पूछा,“कहां किस ऑफिस में?”
“यहां नहीं।”
“तो फिर किस शहर में?”
“जी नहीं, दुबई में।”
“क्या?” स्मिता चौंकी।
“हां, हफ्ते-दस दिन में ज्वाइन करना है।” “तो क्या अब हम दुबई जाएंगे?” विदेश जाने की खबर से उसके मन में गुदगुदी हुई।“नहीं डार्लिंग हम नहीं, अभी तो सिर्फ मैं जा रहा हूं। वहां जाकर माहौल देखूंगा और साल-छह महीने में तुम्हें भी ले जाऊंगा।” “क्या!” उसने अवाक होते हुए कहा,“और मैं कहां रहूंगी? क्या मुझे तुम्हारे घर वालों के पास जाकर रहना पड़ेगा जो मुझे कतई पसंद नहीं करते हैं? नो वे, सुनो तुम इस नौकरी पर नहीं जाओगे। कोशिश करो इस शहर में ही कोई नौकरी मिल जाएगी। तब तक हम जैसे-तैसे गुजार लेंगे।”“नहीं यार समझा करो। मैं तो वीसा और पासपोर्ट के लिए एजेंट को पैसे भी अदा कर आया।”“अच्छा, और मुझसे पूछा तक नहीं जैसे मैं तो तुम्हारी कुछ लगती ही नहीं।जब खुद ही सब तय कर लिया था तो मुझे बताने क्यों आए? वहीं से चले जाते।” वह रोने लगी थी। उसने आगे बढ़कर उंगली से उसके आंसू पोंछे। “तुम तो मेरी जिंदगी हो वरना मैं सारे परिवार से लड़कर तुमसे शादी क्यों करता? यह सब मैं तुम्हारे लिए भी तो कर रहा हूं।” उसमें अपने अकेले रहने की दुहाई दी तो दीपेश ने कोशिश करके उसके लिए एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी ढूंढ दी।दीपेश स्मिता की मां से नफरत करता था पर वह उसकी मां के पास गया। उनसे आरजू मिन्नत करके उन्हें इस बात के लिए मना लिया कि वे स्मिता के दुबई जाने तक उसके पास ही रहें। स्मिता की मां भी मान गई।
स्मिता धीरे-धीरे अपने आप को आने वाली स्थिति के लिए तैयार कर रही थी। एक दिन दीपेश वह गुनगुनाते हुए घर में घुसा। आते ही अपनी अलमारी खोली और एक अटैची में कपड़े लगाने लगा।स्मिता किचिन में काम कर रही थी। खटपट सुनकर वह अंदर आई।“यह क्या कर रहे हो?क्या कहीं जा रहे हो?”उसने आते ही पूछा। “हां।” उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।
“कहां?”
“दुबई।”
“क्या!” स्मिता जैसे आसमान से गिरी।
“हां आज जाना है। रात साढ़े नौकी फ्लाइट है।”
“तुमने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?” स्मिता रो रही थी,“आखिर तुम मेरी जान लेकर ही दम लोगे।”
“शी, शी ऐसी बात नहीं करते। तुम तो खुद मेरी जान हो। आज मैंने वहां की कंपनी को फोन लगाया। उन्होंने पूछा आज आ सकते हो? मैंने कह दिया हां। तुम्हें तो पहले से पता था कि मुझे जाना है।” उसने सफाई दी।
स्मिता ने कितने सपने देखे थे कि जब वह जाएगा तो उसके सीने से लिपट कर रोएगी। वह उसके बालों में उंगलियां फिराते हुए समझाएगा, प्यार करेगा। जाने के एक दिन पहले वह अपने सीने पर जलती सिगरेट की जलन के साथ सिसकारी लेगी पर कुछ भी नहीं हुआ।वह थोड़ी देर बाद चला गया। स्मिता ने मां को फोन करके बताया। उन्होने एक सप्ताह में आने को कहा। उन्हें भी तो वहां कई इंतजाम करने होंगे, कई तैयारियां करनी होंगी। दीपेश को गए चार दिन हो गए हैं। कल उसका फोन आया था वहां कि वह वहां की परिस्थितियों से खुश है। वह कह रहा था कि उसे स्मिता की बहुत याद आती है। उसने व्यंग किया उसकी या सिगरेट के जलने के बाद उसकी सिसकारी की? वह हो-हो कर हंसा था।

आज स्मिता के पास कोई काम नहीं है। रविवार की वजह से स्कूल भी नहीं जाना है। वह आज बहुत देर से उठी। नहा धोकर ऐसे ही सोफे पर लौट कर सुस्ताने का मन हो आया।सामने उसकी और दीपेश की शादी की तस्वीर लगी है। एकटक वह उस तस्वीर को देखती रही। उसके सीने में एक हूक उठी। जब से दीपेश गया है, उसका कुछ भी करने को मन नहीं करता है। सेंटर टेबल पर दीपेश की शर्ट अभी भी वही पड़ी है जहां वह हड़बड़ी में उतार कर फेंक गया था। उसने धीरे से उस शर्ट को उठाया। लेटे-लेटे ही उसे अपने चेहरे पर ओढ़ लिया। दीपेश की देह-गंध से बड़ी भली लगी। तभी दीपेश की शर्ट की जेब से कुछ गिरा, सिगरेट का पैकेट और माचिस। उसने सिगरेट का पैकेट उठाया। न जाने क्यों उसे पैकेट सूंघने को मन हुआ। उसने एक सिगरेट निकाली उसे मुंह में लगाकर जलाया। उसे जोर की खांसी आई।घबराकरउसने सिगरेट सेंटर टेबिल पर रखी एश-ट्रे मे डाल दी और अपनी सांस को संयत करने का प्रयास करने लगी। जब सामान्य हुई तो जलती हुई सिगरेट से उठते धुएं को देखने लगी। अचानक ही उसे दीपेश की याद आई। एक मार सा उस पर तारी होने लगा। उसे लगा कि दीपेश सिगरेट ओठों मे दबाए उसके पास में ही बैठा है उसका हाथ एश-ट्रे कीओर बढ़ा। उसने सिगरेट उठाई और उसका जलता सिरा अपनों स्तनों के बीच छुआया, एक जोर की सिसकारी ली और आंखें बंद कर लीं।

546/1284, आकर्ष हास्पीटल, निकट यादव लोहा भंडार
बालागंज चौराहा, हरदोई रोड,
लखनऊ-226 003, उत्तर प्रदेश, भारत
मो.- 07355604543  09415937495

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