लेख
“थकान के कारण रात्रि विश्राम करते हुए लोग भोर का स्वागत नहीं कर पाते”। लेकिन हमारे गांव में कोई कितना भी गहन निद्रा में हो जैसे ही मंदिर के लाउडस्पीकर से माता की आरती -“भोर भए दिन चढ़ गया रे अम्बे” की धुन कानों के रास्ते से होते हुए मस्तिष्क को भोर के आगमन की सूचना देती है। कुछ इस तरह की सुबह होती है गांव टड़ई कला की। लखनऊ सीतापुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसा है कस्बा सिधौली और सिधौली से सटा हुआ है टड़ई कला।जो अपने आप में कस्बे से कम नहीं, और मजे की बात यह है कि लोग टड़ई कला के नाम पर ऐसे बहस करते हैं जैसे कि टीबी पर डीबेट चल रही हो। और बहस हो भी क्यों न।हमारे पुरखे कम थोडी थे। सरकार ने नाम धरा टड़ई कला, और वही एक हजार मीटर की दूरी पर दूसरे गांव का नाम टड़ई खुर्द। अब हमारी भारतीय संस्कृति और संस्कार ही ऐसे हैं कि हम सबको अपना बना लेते हैं इसलिए हमने पड़ोस वाले गांव से रिश्ता जोड़ लिया खुद बड़े हो गए और उसको छोटों जैसा प्यार दिया।
अभी आप सोच रहे होंगे कैसा रिश्ता? कौन बड़ा? कौन छोटा?
अरे भई धैर्य धारण करो सब बताते हैं।
तो हुआ यूं कि टड़ई कला,टडई खुर्द कहना उन्हें थोड़ा अटपटा लगता था। जुबान सीतापुर को झीतापुर कह देती थी। इसलिए एक नया नाम सचारा गया टड़ई कला हो गई बड़ी टडई।
टडई खुर्द हो गई छोटी टड़ई दोनों गांव जुड़वां बहनों की तरह बड़ी टडई नहर के पूरब बसी ।
छोटी टड़ई पश्चिम में। रात हो या दिन आपको यातायात के साधन मिलेंगे ।
गांव की आबादी लगभग चार हजार होगी, जिसमें हिंन्दु मुस्लिम बराबर संख्या में हैं। तीन आंगनबाड़ी केंद्र दो स्वास्थ्य कर्ता “आशा” । एक प्राथमिक विद्यालय/माध्यमिक विद्यालय, पंचायत भवन, और सबसे महत्वपूर्ण है पी एल बी एल इंटर कॉलेज जहां की शिक्षा व्यवस्था इतनी अच्छी है कि दूर दराज के बालक बालिकाएं यहां पढ़ने के लिए आते हैं। बालिकाओं की संख्या इसलिए भी अधिक रहती है कि बोर्ड परिक्षा के लिए उन्हें किसी दूसरे विद्यालय नहीं जाना पड़ेगा। बिजली,पानी,स्वास्थ्य,शिक्षा , रोजगार के साथ- साथ दैनिक जरूरत से लेकर मांगलिक कार्यक्रमों के लिए दूर शहर नहीं भागना पड़ता है क्योंकि गांव में ही सोना चांदी वस्त्र आभूषण, शृंगार प्रसाधन और ब्युटी पार्लर की समूची व्यवस्था है।
गांव के विकास के लिए ग्राम प्रधान हैं, जिनकी देखरेख में हर साल ग्राम्य देवी माता टड़वल देवी के दरबार में कार्तिक पूर्णिमा का मेला लगता है। जिसे देखने के लिए कोसों दूर से लोग आते हैं इतनी भीड़ होती है कि निकलने की जगह नहीं मिलती। रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होता है जो इस मेले का केंद्र बिंदु है। जितनी भीड़ दिन में होती है उससे कहीं ज्यादा रात्रि में।दो दिन तक गांव में मेहमानों का आना जाना लगा रहता है।टेंट पर रजाइयां कम पड़ जाती है। यहां का रिवाज है कि जब करवा चौथ पड़ेगा तो भाई हर साल बहन को करवा मिठाई देने जाएंगे। इसलिए जब महिलाएं करवा चौथ पूजने बैठती है तो बच्चे खूब लालायित होते हैं देखने के लिए कि देखें चाची के मायके से क्या आया? भाभी के मायके से क्या आया? कोई तो कुकर में पूजा कर रहा कोई लोटा कोई बाल्टी कोई भगोना,फ्राई पैन,जंगाल,गिलास, ये सब देखकर बच्चे बहुत खुश होते हैं।बहनें भाई दूज में इसलिए नहीं आती क्योंकि “एक पंथ दो काज” करने है। भाईयों को दूज खिलाएंगी,मेला भी देखेंगी।
पढा़ई के बारे में बात करें तो गांव उतना ज्यादा आगे नहीं रहा इसलिए अधिकतर लोग किसान हैं जिनकी रात और सुबह खेत में ही होती है। फसलों में यहां के किसान अधिकतर मेंथा आयल, धान और गेहूं ही उगाते हैं। धनोपार्जन के लिए ई-रिक्शा भी है। और इस गांव को लोकप्रियता शहरों में बहुत है, वह है, यहां का सरसों का तेल। बहुत लोगों ने अपने ही घर पर आटा चक्की , धान चक्की, तिलहन चक्की लगा रखी है। देखा देखी ऐसी हुई कि इस व्यवसाय में बाढ़ सी आ गई और यह गांव इन चक्कियों की बदौलत प्रसिद्ध हो गया। लखनऊ शहर हो या सीतापुर सरसों का तेल टड़ई कला से ही जाएगा। तेल की शुद्धता की पहचान है टड़ई कला। गिने चुने लोग हैं जो सरकारी सेवाएं दे रहे या प्राइवेट नौकरी कर रहे । हमारे गांव में स्वतंत्रता सेनानी कोई नहीं हुआ ।
पिंकी प्रजापति
ग्राम टड़ई कला सिधौली सीतापुर उत्तर प्रदेश मो-7678966126