Breaking News

बेदम साँस-नफे सिंह कादयान

जिस्म की बेचैनियों का कोई तो हल हो। एक आग सी है सीने में जो दिल से हरारत पा बुद्धि को रोशन रखती है। मस्तिष्क में फैली हुई हजारों मील लम्बी नाड़ियों की रक्तखुंबियों में हर समय जैसे बिजली सी चमकती है। ऐसे जैसे घनघोर काली घटाओं में कड़कती हुई विद्युत धाराएँ रोशनी के झमाके पैदा करती हैं। पहले जब रोशनी होती थी तो सारा जहाँ रंगीन लगता है मगर अब अंधकार होते ही साँस रूक सी जाती है। ऐसा लगता है जैसे मैं किसी ऐसे गटर में बंद हूँ जिसमे साँस आने के लिए कोई छिद्र नही है।‘कौन हूँ मैं? देह, पुरूष, इन्सान, धर्म, जाति… नहीं मैं तो बस एक पदार्थीय जैव आकृति हूँ। मेरे आसपास की जैव आकृतियोंने मेरे बारे में कुछ धारणाएँ बनाई हैं। मुझे मुखध्वनी के माध्यम से बतलाया गया कि तुम ये हो, तुम वो हो। ये तुम्हारी कहानी है, ये तुम्हारी हकीकत है। ये तुम्हारा ईश्वर है जिससे डर कर तुम्हे इस प्रकार के नियम पर चलना है। तुम्हे इस प्रकार पूजा, इबादत, प्रार्थना कर खुदा को खुश करना है वर्ना वह तुझे नर्क, दोजख में डाल देगा।

    मुझे समझाया गयाथा तुम ऐसा करो,वैसा करो। तुम्हारे लिए ये ठीक है, ये गलत है। मेरा विद्रोही मन तो कहा करता था मैं आजाद हूँ। जब तुम मेरे ही जैसे हो तो तुम्हारा आदेश क्यों मानूं? मैं जैसा मर्जी करूं, जैसे मर्जी चलूं, जैसे मर्जी साँस लूं। मेरी साँस पर पहरा बिठाने वाले तुम कौन होते हो। साँस भी मेरी, हवा भी मेरी, ध्वनी भी मेरी।मेरे चारों ओर हजारों जंजीरें थी जो मुझे बुरी तरह झकड़े रहती थी। कुछ जंजीरे समाज ने मेरे उपर डाली थी तो कुछ खुद मैने पहन लीथी। कुछ कच्ची थी जिन्हें मैं आसानी से तोड़ दिया करता था मगर कुछ बहुत मजबूत थी। इतनी मजबूत जिन पर मेरी हर हथोड़ी फैल हो जाती थी पर मैं फिर भी कोशिस करता रहता था। हर जंजीर की अपनी कीमत, अपनी कहानी थी। कहानी तो अब मेरी नई बन गई है जो इन सब पुरानी कहानियों पर भारी है।सुनोगे तो दिमाग चकरा जाएगा। यह कहानी साँस की है जिसमें अब साँस को साँस से भय लगने लगाहै। यह भय साँस अटकने का है। साँस डरते हैं कि कहीं भटक न जाएँ, कहीं अटक न जाएँ, कहीं ये साँस…साँस लेना ही न भूल जाएँ।

    मेरे साँस में कुछ घुटन सी हो रही है। मैं परसकूं माहौल में ताजी हवा का तलबगार हूँ। ऐसा लगता है अगर आज मुझे हवा न मिली तो मेरी साँस घुटने से मौत हो जाएगी। मैं मरना नही चाहता। मैं ही क्या कोई भी मरना नहीं चाहता पर मौत निश्चित है। मेरे साँसों में जब से कोरोना के कीटाणु घुसे हैं तब से वे मेरा गला दबा मुझे मारना चाहते हैं। अब मैं हस्पताल की निर्जन गुफा में अपनी बची हुई साँसें ले रहा हूँ।साँस उखड़ती देख नियंत्रण कक्ष से पधार डॉ. साहेब ने मुझ पर रहम कर ऑक्सीजन मास्क मेरी नाक पर लगा दी। साँस के किटाणुओं से बचने के लिए डॉ. साहेब प्लास्टिक से पूरा पैक है। उसके चेहरे के भावों से मुझे पता चल रहा है वह मेरा बैड खाली होने की बाट देख रहा है। वह चाहता है या तो मरीज ठीक हो या भगवान को प्यारा हो जाए जिससे उसके रसूखदार मरीज को जगह दी जा सके। मास्क लगते ही जैसे मेरी साँसें वापिस आ गई पर कुछ देर बाद ऐसे लगने लगा जैसे इन साँसों में भी साँस की कमी है। कुछ देर बाद उखड़ती साँसों के बीच एक झपकी सी आई और एक नई खिड़की सी खुल गई।

एक बड़ा सा जहाज है जो मैदान में खड़ा है। काला, सफेद सा यह जहाज दूर से मुझे बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है। इसके आस-पास, नीचे कुछ मटियाला सा साफ मैदान है और बाकी मैं हरा घास। ये गोलाई में क्रिकेट मैदान की तरह दिखाई देता है। ‘जहाज आज यहाँ से अपने गन्तव्य की तरफ जाएगा…इसमें मुझे जाना है।’ ये मुझे मालूम नहीं कहाँ जाना है। मैं जहाज के पास जा उसे ध्यान से देखता हूँ।‘बहुत बड़ा भी, सुंदर भी… कहीं इसके अंदर जाकर मेरा दम तो नहीं घुट जाएगा? नहीं ये बहुत बड़ा है, इसमे प्रयाप्त मात्रा में हवा होगी, अभी ये चला थोड़े ही है, इसके अंदर चल कर देखता हूँ, अगर साँस लेने में कुछ तकलीफ होती है तो नहीं जाऊंगा।’ मैं अपने से ही सवाल जवाब कर रहा हूँ। मेरी मनोस्थिति संयस भरी हो रही है।

जहाज में सफर करने का जहाँ रोमांच है वहीं दिल चीख-चीख कर किसी अनहोनी घटना की तरफ संकेत कर रहा है। नकारात्मक, सकारात्मक विचारों के भवंडर सीने से निकल दिमाग पर छा रहे हैं। दिमाग किसी एक बिंदु पर स्थिर नही हो रहा। सोचता हुआ जहाज की सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ। अंदर का दृष्य दिल को शकून देने वाला है।  जहाज में दूर तक सीटों की कई लाइन हैं जो करीने से सजाई गई हैं। नीचे  सुंदर कालीन बिछा है। सुहानी हवा मंद-मंद बह रही है। हवा का स्रोत क्या है देखने के लिए मैं अपनी आँखों से पूरे जहाज का मुआयना करता हूँ। ‘कहीं से भी हवा आ रही हो, मुझे क्या।’ फिर बडबड़ाता हूँ। मेरा दम नहीं घुटेगा, साँस बंद नहीं होगी। पूरी तसल्ली करने के लिए मैं वहाँ एक सीट पर बैठ कर देखता हूँ।

विज्ञापन

अब आँखों में कुछ नींद सी छा रही है। ऐसा लगता है जैसे मैं कुछ सुप्त अवस्था में हूँ। फिर शरीर में अचानक नीचे कुछ दबाव सा बनने लगा। ये दबाव अतिरिक्त पानी निष्कासन का है। ‘मुझे टॉयलेट जाना चाहिये?’ स्वयः से सवाल करता हुआ मैं सीट से उठ जहाज में पीछे की तरफ जाता हूँ। वहाँ टॉयलेट का दरवाजा खोल अंदर जाता हूँ तो दरवाजा बंद करने से कुछ बैचेनी होने लगती है। ऐसा लगता है अब मुझे साँस सही नही आ रहा। वहाँ एक तरफ काँच की खिड़की है जो बंद है। उसे खोलने की कोशिस करता हूँ मगर वह ऐसी खिड़की है जिसे खोला नहीं जा सकता। ‘पता नहीं सरकार जहाज, ट्रेनों में ऐसी खिड़कियाँ क्यों रखती है जो खुलती ही नहीं और ऊँची इमारतों के उपर नीचे ले जाने वाले मशीनी डिब्बों में तो खिड़की ही नहीं लगाई जाती।’   मुझे प्रशासनिक व्यवस्था पर आक्रोश आता है। टॉयलेट से बाहर आता हूँ तो पूरा जहाज यात्रियों से भरा दिखाई देता है। यात्री इतने कि सीट कतारों के मध्य भी आकर खड़े हो गए हैं। यह दृष्य किसी नीजी बस जैसा है। ‘मैं किधर बैठूं, मेरी सीट कहाँ है?’

 ‘यहाँ बैठ जाओ।’ जैसे मेरे मन के विचार पढ़ एक अधेड़ सी औरत बोलती है।एक बड़ी सीट है जिस पर तीन व्यक्ति बैठ सकते हैं। उस औरत के बोलते ही मैं किसी अज्ञाकारी बच्चे की तरह उनके बीच फंस कर बैठ जाता हूँ। जहाज में बला की भीड़ देख मेरा दम निकलते लगता है।मेरा साँस घुटने लगी तो मन ने दिलासा दे दिया‘कोई बात नहीं, अबजहाज सड़क पर चलने लगा है, अभी साँस आ जाएगी।’मुझे पीछे भागते पेड़,वाहन दिख रहे हैं। कुछ ताजी हवा साँस में जाती भी महसूस हो रहीऔरअबमेरा जहाज शहर के उपर उड़ने लगा। अचानक दृश्य बदल गया। अब मैं नीचे जमीन पर खड़ा उसे देख रहा हूँ। जहाज में आग लग गई,उसका पिछला हिस्सा खुल गया, जिसमें लोग इधर-उधर भागते दिख रहे हैं। जहाज रनवे से पचास गज पहले गिर गया है।

मेरे आसपास बहुत भीड़ है जो जहाज को देख रहे है।कितने आदमी मरे हैं, उनमें बहस है। लगभग सौ आदमी मरे हैं, अखबार वाला खबर दे रहा है।‘दो मिनट में ये खबर कैसे छाप दी? मैं भी तो जहाज में था फिर नीचे कैसे हूँ। क्या मैं मरा हुआ हूँ?’ सोचता हुआ मैं आसपास के लोगों को देखता हूँ तो वो मुझे अजीब लगते हैं। ‘तू यहाँ सही नहीं रहेगा, तुझे सामने के पहाड़ पर चले जाना चाहिए।’ वहाँ एक दुबला सा व्यक्ति मुझसे कहता है तो मैं सामने देखता हूँ। वहाँ एक बंजर सा पहाड़ नजर आ रहा है। मैंपहाड़ की तरफ चलने लगता हूँ।मुझे ऐसा अहसास होता है इस पहाड़ में कोई दर्शनीय स्थान है जहाँ मुझे जाना चाहिए। वहाँ कई सुरंगों से होकर जाना पड़ता है। मैं सुरंग से गुजर रहा हूँ। वह सुरंग आगे जाने पर तंग होती जाती है। सुरंग में दूर तक लाल रंग फैला है। ऐसा जैसे मैं अपने शरीर की किसी रक्त रंजित खोखली धमनी में चल रहा हूँ। जैसे ही मैं इस सुरंग में आगे बड़ा मुझे साँस लेने में परेशानी होने लगी, मेरा दम घुटने लगा।

   मैं ज्यों ज्यों सुरंग में आगे बड़ रहा हूँ मेरी साँस की डोर टूटती जा रही है। मैं जल्द से जल्द इस सुरंग को पार करना चाहता हूँ। अब सुरंग गडमड हो कहीं खो चुकी है।अबमेरा शरीर एक गहरी गुफा सी बन गया है जिसमें मैं डूब रहा हूँ। एक ऐसी गहरी काली अंधकारमय गुफा जिसमें रोशनी के महीन बिंदू तो हैं मगर वो उजाला करने में सक्षम नहीं। ऐसे जैसे अमावस की रात को अन्नत काले आकाश में चमकते हुए लाखों सितारे।मेरे हाथ, पाँव वह नही रहे जिनमे खून की रविश चलती हुई महसूस होती थी। ऐसा लग रहा है जैसे मेरे कंकाल में दो रस्सियाँ उपर जुड़ी हैं, दो नीचे। मेरे सिर की गहराई अन्नत ब्रह्मांड की तरह बड़ती जा रही है और मै भारहीन अवस्था में उसमें गिरता हूँ। नीचे और अधिक…  नीचे कहीं अन्तहीन रसातल की तरफ।अब मेरा दम नहीं घुट रहा। ऐसा लगता है मुझे साँसों की कोई आवश्यकता ही नहीं रही। “देख क्या रहे हो इसे जल्दी बैड से उतार पैक कर इसके परिवार को थमा दो।”चिराग बुझने से पहले डॉ. साहेब की आवाज मुझे सुनाई दी।

       

About sahityasaroj1@gmail.com

Check Also

अहिल्याबाई होलकर एक अद्वितीय प्रतिभा की साम्राज्ञी- डॉ शीला शर्मा

अहिल्याबाई होलकर एक अद्वितीय प्रतिभा की साम्राज्ञी- डॉ शीला शर्मा

बहुत कम लोग ऐसे होते है जो स्थान और समय की सीमाओं को तोड़ , …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *