मानव जीवन को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहला जो अपने लिए ‘स्वांतः सुखाय’ के आदर्श के अनुरूप जीता हो। अपने लिए जीते हुए दूसरों के लिए भी जीना दूसरी श्रेणी का माना जाता है। खुद के लिए न जीकर अन्य लोगों के लिए अपना संपूर्ण जीवन बिताना तीसरी श्रेणी का जीवन माना जाता है। खुद के लिए जीते हुए दूसरों के लिए भी जीने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थ में मनुष्य कहलाता है। खुद के लिए न जीकर दूसरों के लिए जीने वाला इन्सान महान कहलाता है। ऐसा ही एक महान व्यक्ति था-तिरुप्पूर कुमरन, जो चेन्निमलै नामक तमिलनाडु के पुरातन स्थल की उत्कृष्ट संतान माना जाता है।चेन्निमलै खादी वस्त्र उत्पादन के लिए विश्व प्रसिद्ध स्थान है। ऐसे प्रमुख स्थान में नाच्चिमुत्तु मुदलियार एवं करुप्पाई अम्माल की तीसरी संतान के रूप में 1904 के अक्तूबर महीने के शुभवसर पर कुमारस्वामी नामक तिरुप्पूर कुमरन का जन्म हुआ। मारियप्पन, देवयानी, चेन्नियप्पन, आरुमुगम और नागम्माल इनकी अन्य संतानें थीं। किंतु मारियप्पन और चेन्नियप्पन की मृत्यु उनकी शैशवावस्था में ही हो गई।चेन्निमलै के औद्योगिक विकास के अभाव में कुमरन के परिवार का दरिद्रता से जूझना स्वाभाविक था। तथापि एक ‘स्वर्णकुमार’ को जन्म देने का श्रेय इस परिवार को प्राप्त हुआ।
कुमार पर घर-बार का बोझः चेन्निमलै के कुमरन चौक में आज भी मौजूद नगरपालिका की प्रारंभिक पाठशाला का उद्घाटन अंग्रेजी शासन के दौरान किया गया। इसी पाठशाला में कुमरन ने पांचवीं कक्षा तक की अपनी शिक्षा पाई। आर्थिक अभाव के कारण कुमरन अपनी आगे की शिक्षा प्राप्त न कर सका। अतः वह पिळ्ळपाळयम में स्थित अपने मामा के यहां जुलाहे का काम सीखने लगा। इस प्रकार कुमरन अपने पिता की आर्थिक स्थिति सुधारने में अपना हाथ बंटाने लगा। अपनी युवावस्था में ही कुमरन को अपने कंधों पर अपने परिवार के आर्थिक बोझ संभालने की नौबत आई।सप्ताह में एक बार कुमरन ईरोड़ के एक दुकानदार से धागे के पुलिंदे खरीदता, उसमें कांजी लगाकर साड़ियां बनाता, तत्पश्चात्् उन्हें ईरोड़ केे उसी दुकानदार को सौंपकर कुछ पारिश्रमिक एवं अन्य धागे के पुलिंदे पाता। उन दिनों यातायात की सुविधा बिल्कुल नहीं थी। चेन्निमलै एवं ईरोड़ के बीच यातायात का साधन केवल बैलगाड़ी था। अपने पेशे की वजह से तिरुप्पूर तक जाने के दौरान कुमरन को अनेक यातनाएं झेलनी पड़ी। इस कारण कुमरन के मन में इस पेशे के प्रति काफी खीज उत्पन्न हुई। तथापि करीब पांच वर्षों तक वह इस पेशे में टिका रहा।अपनी आर्थिक समस्या की वजह से कुमरन के परिवार को तिरुप्पूर में आकर बसना पड़ा।
तिरुप्पूर में बसने पर कुमरन ओ.के. चेन्नियप्प मुदलियार तथा इंगूर के ई.आर. रामस्वामी गौंडर की सहकारिता से संचालित सूत की मंडी में लिपिक के पद पर नियुक्त हुआ। सामान्यतः इस प्रकार का काम अत्यंत नेक एवं विश्वसनीय व्यक्ति को ही सूती मंडी के व्यापारियों द्वारा सौंपा जाता था। सूत के वजन की सूची तैयार करता कुमरन सच्चाई, मेहनत एवं नेक-नीयती जैसे अपने उत्तम गुणों के कारण सूती मंडी के व्यापारियों के आकर्षण का पात्र बना। अपने कार्यालयीन जिम्मेदारियों को सही-सलामत निभाने के पश्चात् कुमरन अपना अधिकांश समय सामाजिक सेवा में बिताता। कुमरन के परिवारवाले नहीं चाहते थें कि उनका कोई सदस्य राजनीतिक मामलों में भाग ले। कुमरन में देशभक्ति कूट-कूटकर भरी हुई थी। फिर भी उसने अपने घरबार संभालने के अपने कर्तव्य में कोई कसर न छोड़ा। तिरुप्पूर के देशबंधु युवा संघ का सदस्य बन समाज सेवा में कुमरन पूर्ण रू से अर्पित हुआ। अपने बचपन से ही कुमरन को भक्ति मार्ग में भी विशेष अभिरुचि थी।उनकी अपरिमित देशभक्ति की भावना को देख उनके परिवार के सदस्य एवं बंधु काफी चिंतित हुए। उनके अनेकों प्रयासों के बावजूद कुमरन की देशभक्ति लेशमात्र भी घटी नहीं। उनका हर प्रतिबंध व निषेध कुमरन की निःस्वार्थ देशभक्ति की भावना को हतोत्साहित करने के बजाय अधिक प्रोत्साहन ही दिलाता।
वर्ष 1896 में महात्मा गांधीजी ने तमिलनाडु की अपनी सर्वप्रथम यात्रा की। तब उनकी आयु सत्ताईस थी। तमिलनाडु में आकर वे यहां के जनों के आकर्षण का केंद्र बने। 1946 में उनकी तमिलनाडु की आखिरी यात्रा थी। पचास साल के दौरान तमिलनाडु में बीस बार उनका आगमन हुआ। विशेषकर, तिरुप्पूर में वे पांच बार पधार चुके थे। अतः गांधीजी के आदर्शों का प्रमुख स्थल तिरुप्पूर बना। गांधीजी तिरुप्पूर को खादी वस्त्रों की राजधानी मानकर उसकी खूब प्रशंसा करते थे, क्योंकि उनके खादी वस्त्र के आदर्शों का सफलतापूर्वक कार्यान्वयन यहीं हो रहा था।तिरुप्पूर में बसकर कुमरन ने भी खादी वस्त्र के प्रचार की सफलता के लिए काफी मेहनत की। वह खुद भी खादी वस्त्र पहनने लगा और गांधीवाद का सच्चा समर्थक बना। सिर पर टोपी,आदर्शों का पक्का, पैनी दृष्टि, चौड़ी नाक, विशाल माथा,बिन मूंछों के चिपके चेहरे, सूखे ओंठ,लंबे व चौड़े कान, सांवला रंग, स्वतंत्रता की आशा से भरा मन और खादी का कुर्ता, उसके ऊपर काले रंग का कोट, कमर पर चार गज की धोती पहन कुमरन गांधीजी का एक सच्चा अनुयायी बना।
राउंड टेबुल कॉन्फ्रेंस से लौटने पर गांधीजी ने एक कानून अवमानन आंदोलन का संचालन किया। इसके आयोजन में बढ़ती स्फूर्ति देख इस पर रोकथाम लगाने और कठोर नियंत्रण करने के उद्धेश्य से अंग्रेजी सरकार ने गांधीजी को हिरासत में ले लिया। जुलूस निकालने, सम्मेलन या प्रदर्शन आयोजित करने के अधिकार छीन लिए गए। इसके अतिरिक्त भीड़ जमाना, एकत्रित होकर बैठक संचालित करना-जैसे कार्यां पर प्रतिबंध लगाया गया। आपातकालीन कानून लागू किए गए। अंग्रेजी सरकार ने कांग्रेस पार्टी को एक गैर कानूनी पार्टी घोषित कर दिया। उसने कांग्रेस पार्टी के कार्यालय को भी हड़प लिया। अंग्रेजी शासन ने अनेक निषेध व प्रतिबंधों के बावजूद कानून अवमानन आंदोलन की विकासगति तीव्रतर हुई। तिरुप्पूर में कांग्रेस समिति के निसर्जन के बावजूद उसके सदस्य विचलित नहीं हुए। तिरुप्पूर के देशबंधु युवासंघ ने अंग्रेजी सरकार के प्रतिबंध को परवाह न कर 10.01.1932 को जुलूस निकालने का निश्चय किया। यह भी तय किया गया कि इस जुलूस का नेतृत्व स्थानीय धनवान एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति श्री के.आर.ईश्वरमूर्ति संभालेंगे।
इस जुलूस के पहले दिन ही पी.टी.आशर एवं पद्मावती एशर का क़ैद हुआ। जब के.आर. ईश्वरमूर्ति गाउंडर ने जुलूस का नेतृत्व संभालने से इनकार कर दिया तो रामन नायर के अनुरोध पर पी.टी.सुंदरमने इसका नेतृत्व संभाला। इनके नेतृत्व में कुमरन, रामन नायर, विश्वनाथ अय्यर, नाच्चिमुत्तु गाउंडर, सुब्बरायन, नाच्चिमुत्तु चेट्टियार, पोंगालि मुदलियार, अप्पुकुट्टि नारायणन नामक सात सज्जन इस जुलूस के लिए चुने गए।तिरुप्पूर के के.एस.रामसामी गाउंडर की पत्नी एवं बेटी ने आंदोलनकारी वीरों की आरती उतारकर विदा की। यह जुलूस तिरुप्पूर के राजमार्ग से दो कतारों में निकली। सड़क के दोनों ओर लोग अत्यंत चिंतित एवं भयभीत प्रतीत हुए। तथापि सहर्ष घोष एवं नाराओं सहित जुलूस के प्रतिभागियों को प्रोत्साहित करने लगे।जुलूस काफी उत्साह एवं तीव्रता से तिरुप्पूर के थाने से आगे निकलने का प्रयास करने लगी। तब अचानक दो अधिकारियों सहित तीस पुलिस कर्मचारी जुलूस पर लाठियों सहित टूट पड़े। जुलूस में शामिल व्यक्तियों पर अत्यंत क्रूरता से आक्रमण करने लगे। इस पर कुमरन का सिर फूटा। अपने ऊपर लाठी के लगातार प्रहार के बावजूद कुमरन के शिकंजों से तिरंगा झंडा छूटा नहीं। बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ने पर भी कुमरन के हाथों में तिरंगे झंडे की पकड़ सख़्त रूप से बनी रही।
बेहोश पड़े कुमरन को पुलिस अपने बूट्स से लातें मार-कुचलकर उसके शिकंजे से तिरंगे झंडे को छीनकर दूर फेंक डाला। बेहोश कुमरन और रामन नायर के शरीर पुलिस की लठमार और बूट्स पैरों की लातों से क्षतिग्रस्त हुए और रक्तस्राव से अति घोर प्रतीत हुए। पी.एस.सुंदरम पर भी बुरे ढंग से लाठी प्रहार हुआ। उनके हाथ, पैर, कमर व पीठ जैसे उन्नीस जगहों पर हड्डी टूट गई। इस कारण सुंदरम को अपना शेष जीवन एक अपाहिज बन जीना पड़ा।टोली के अन्य सदस्यों की स्थितिः कुमरन बेहोश हो गिर पड़ा। रामन भी मूर्छित हुआ। इस पर टोली के अन्य व्यक्ति तीन-तीन के झुंड में अलग हुए। किंतु प्रत्येक व्यक्ति पर तीन-तीन पुलिस टूट पड़े। अपने पंजो में आए हर समर्थक को जी भर मारने लगे यह कहते हुए,‘‘ क्या सत्याग्रह करने आए हो? वहांँ देखो, दो व्यक्ति मरे पड़े हैं, तुम्हारी भी वही स्थिति होगी।’’ यही नहीं, उनके हाथ-पैर पकड़ घसीटकर पास के नाले या गड्डे में फेंक आए।
इस प्रकार नौ समर्थकों में से दो बेहोश और मृतप्राय बन पड़े रहे। अन्य सात व्यक्ति अपनी चोटों से रक्तस्राव सहित नाले व गड्डों पर पड़े तड़प रहे थे। कुमरन, रामन और सुंदरम को अस्पताल ले जाया गया। नालियों में फेंके गए अन्य सात समर्थकों को पुलिस ने मुड़कर भी देखा नहीं। पुलिस के निकल जाने के तुरंत पश्चात् उन समर्थकों रिश्तेदार व मित्रों ने उन्हें उठा ले जाकर यथोचित कार्रवाई की। पुलिस कर्मियों ने झूठा मामला दर्ज किया कि ‘‘पी.एस. सुंदरम, कुमरन, रामन नामक तीन व्यक्तियों ने सुरक्षा-कर्मियों पर पत्थरों से मारना शुरू किया तो सामान्य जनता की भीड़ काबू में न लाई जा सकी और काफी उत्तेजित हो उठी। अतः उन तीनों पर लाठी प्रहार कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया है और उनकी चिकित्सा के लिए अस्पताल भेज कर उनकी निगरानी की जा रही है। ’’वास्तव में यह हुआ कि एक खाली बस बुलवाया गया। उसमें लकड़ी के ढेरों के समान इन तीनों व्यक्तियों को पुलिस कर्मियों द्वारा अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल के बरामदे में बडे़ लापरवाही से उन्हें उतारा गया, किंतु अस्पताल के डाक्टर गोपाल मेनन एक सहृदय व्यक्ति थे। इन तीनों की चिकित्सा करने आए डाक्टर गोपाल, कुमरन की गंभीर स्थिति देख अत्यंत दुखी हुए। वे अपने संग आए डॉक्टर अरंगनादन से कहने लगे कि इसके नस ढीले पड़ गए हैं। अत्यधिक रक्तस्राव ही ऐसी स्थिति का प्रमुख कारण है। इसका सर भी फूटा है। उसी फूटन के दौरान कुछ बाहरी वस्तु अंदर घुसी हुई प्रतीत हो रही है। उस वस्तु की निकासी से ही इन्हें बचाया जा सकता है। किंतु फिलहाल इनकी स्थिति शल्य चिकित्सा के लायक नहीं है। अतः, आज दिन भर इन्हें आराम करने छोड़ दिया जाए। याद रखें, इन्हें पूर्ण आराम की आवश्यकता है।
किंतु अस्पताल में भर्ती हुआ कुमरन अचेत ही पड़ा रहा। कुमरन के कुछ सगे-संबंधी अस्पताल आए हुए थे। वर्ष 1904 में बाल गंगाधर तिलक ने नारा लगाया था कि ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, और इसी वर्ष कुमरन का भी जन्म हुआ। अतः देश की स्वतंत्रता की भावना कुमरन के रग-रग में समाई हुई थी। तथापि स्वतंत्रता की हवा का श्वास लिए बिना ही 11.01.1932 के दिन कुमरन नामक वीरता की शाखा इस देश की मिट्टी में मुरझा गिरी।
अस्पताल में देहांत हुए कुमरन का शरीर पोस्ट मॉर्टम के बाद ही सौंपा गया। वास्तव में पुलिस कर्मियों की लाठियों से बेशुमार प्रहार से कुमरन की मृत्यु होने के बावजूद, असली कारण की जांच के बहाने प्रेत-परीक्षा का झूठा नाटक किया गया। अपनी मातृभूमि के लिए प्राण-त्याग किए कुमरन के पार्थिव शरीर की अंतिम क्रिया, अत्याचारी शासनकारियों एवं उनके कठोर नियंत्रण से भयभीत होकर, उनके सगे-संबंधियों द्वारा छिप-छिपकर किया गया, जो एक हृदय विदारक एवं कडृवा सत्य है।हां! कुमरन को एक दुपट्टे पर लिटाया गया। उस कपड़े के दोनों ओर बाँंस की लकड़ी घुसाकर, उसके दो रिश्तेदारों की सहायता से कुमरन का पार्थिव शरीर गुप्त रूप से उठा ले जाया गया और तिरुप्पूर के नदी किनारे स्थित वनस्थली में दफना दिया गया।
डॉ जमुना कृष्णराज,चेन्नई।