कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -4 संस्मरण
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राजू यही नाम तो था उसका। मध्यम कद ,साँवले से कुछ अधिक गहरे रंग वाला शरीर,गोल चेहरा ,मोतियों जैसे एकदम सफेद दाँत ,आयु होगी यही कोई पन्द्रह सोलह साल के करीब । काम करने के लिये बिहार से राजस्थान आया था भैया की तेल मिल में । पर भैया ने उसे तेल मिल पर न रखकर घर भेज दिया था। इस तरह उसका घर आगमन हुआ था और उसे रहने के लिये बाहर लॉन में एक छोटा कमरा दे दिया गया था। पहले दिन ही उसने कमरे को अपने अनुसार सजा लिया था। हाँलाकि उसे रख तो लिया था किन्तु सभी का मन अन्दर से डर भी रहा था कि पता नहीं कैसा है । कुछ लेकर के भाग न जाये । शुरु के दसेक दिन तो हमारे और शायद उसके भी इसी उहापोह में निकले थे। पर अब धीरे धीरे राजू घर में और घर राजू में रमता जा रहा था और हम सब उसके अभ्यस्त होते जा रहे थे । यह होना ही था. वह भी अब मम्मी पापा को मम्मी पापा ही कहने लगा था और हमको बडे स्नेह से जीजी। अलसबेरे जाग कर सुबह की चाय से लेकर रात्रि के दूध बनाने तक का काम वह बडी ही मुस्तैदी से करता था । अच्छा , ईमानदार इतना कि बाजार से लौटने के बाद पूरे पैसों का हिसाब बिना कहे ही दे देता था। रोजाना नहा कर ही खाना बनाता था और सबको खिलाने के बाद ही खुद खाता था।हाँ पर रोटी वह बिना घी लगी ही खाता था, जब मम्मी घी लगाने को कहती तो राजू कहता “नहीं, हम घी लगी रोटी नहीं खाते यहाँ तो घी मिलता है अगर कहीं दूसरी जगह नही मिला तो मन ललचायेगा और फिर घी के लिये रसोई में कुछ छिपा कर करना पडेगा ,वह हम करना नहीं चाहते इसलिये हम घी की या और ऐसी वैसी आदत लगाना ही नहीं चाहते। मम्मीजी,बिहारी तो वैसे ही बदनाम है लेकिन हम उसमें और एक आदमी नहीं जोडना चाहते.”यह सुन तब छोटे राजू की समझ पर बड़ा आश्चर्य हुआ था और खुशी भी क्योंकि लालच नाम के दलदल से बहुत दूर था वह वरना यूँ मिल रही चीज को भला कौन छोड़ता है।
हाँ दिन भर काम करते हुये वह कई बार अपने माँ बाऊजी को जरूर याद करता था।राजू जैसे अर्लाम घडी थी पूरे घर की .घर के सारे काम नियत समय पर करना उसकी आदत था, कहीं कोई आलस नहीं था उसमें।पापा किसी भी नये काम के लिये यदि राजू को कहते कि फलाँ फलाँ काम करना है ,तुम कर पाओगे तो उसका बस एक ही उत्तर होता था “होगा क्यों नही, मैं कर लुंगा ,आप बताओ तो सही” और वाकई परेशानियों के बाबजूद भी वह उस काम को कर के ही दम लेता था .इसी तरह वह धीरे धीरे घर में सभी का विश्वासपात्र बनता जा रहा था।
एक बार का वाकया है.एक बार घर में 500 रुपये नहीं मिल रहे थे .सभी जगह ढूँढे पर नही मिले.राजू पर तो शक करने का सवाल ही नहीं था और पापा ने भी पहले ही माँ को समझा दिया था कि राजू से कुछ भी मत पूछना वरना उसका जी दुखी होगा, किन्तु माँ का स्त्री मन इतना कहाँ सब्र करता सो पूछ ही बैठी राजू से पैसों के बारे में “राजू यदि तुमने पैसे लिये हैं तो सच सच बता दो मैं किसी से भी नहीं कहूंगी. ” फिर जो हुआ उसकी तो शायद किसी नें भी कल्पना नहीं की होगी .अपने ऊपर इस बेबुनियादी आरोप को सुन कर राजू के आँखों से गंगा जमुना बह निकली थी ,बडी मुश्किल से अपना रोना रोक कर वह बोल पाया था “मम्मी जी यदि मुझे पैसे चुराने होते तो मुझे तो घर के कोने- कोने के बारे में पता है कि कौनसी चीज कहाँ है तो क्या मैं महज 500 रुपये ही चुराता आपके जेवर नकदी लेकर कब का भाग गया होता.किन्तु मैं तो इस घर को अपना घर और आपको अपने दूसरे माँबाऊजी मानता हूँ .मैं तो सपने में भी यहाँ चोरी करने की नहीं सोच सकता हूँ। .”बहुत ही शर्मिन्दा हुयी थी मम्मी उस दिन और पापा तो खा जाने वाली निगाहों से मम्मी को देख रहे थे .भरी आँखों से मम्मी ने राजू को गले लगा लिया था और उससे माफी माँग ली थी .उस दिन के बाद से तो राजू पर सभी का प्यार बहुत बढ़ गया था।
ज्ञान का तो अथाह भण्डार था राजू.दिन मे कई कई बार उस ज्ञान का वमन वह करता ही रहता था। ऐसे ही एक दुर्लभ ज्ञान हमें भी प्राप्त हुआ। रोजाना उसे दोनो हाथ सान कर दाल-चावल खाते देख मुझे और मेरी बहिन को बडी अलग चिपचिपी-सी अनुभूति होती थी सो बहिन तो उस दिन पूछ ही बैठी थी ” राजू तू ये चावलों में हाथ सान कर खाना क्यों खाता है,तुम्ही नही बल्कि सारे बिहार में मैनें सबको ऐसे ही खाना खाते देखा है। ऐसे तो हाथ भी पूरा खराब हो जाता है और देखने में गन्दा भी लगता है.”यह सुन ज्ञानी राजू महाराज ने पहले तो हाथ का कौर मुँह में धरा और उसे उदरस्थ करके थोडा पानी पीकर फिर ज्ञान देने की मुद्रा में बोले”जिज्जी हमारे बिहार में कहा जाता है कि जैसे हमारे दोनों हाथों की दसों अँगुलियाँ हमारी मेहनत की साथिन होती है ,उसी प्रकार खाना खाने में भी हमें इन्हे अपने साथ रखना चाहिये .अगर चम्मच काम में ली तो इन अंगुलियों का अपमान नहीं हो जायेगा.कमाने में तो हम और खाने में कोई और.” ये ज्ञान बघार वह कुछ ऐसे सकपकाया सा हँसा जेैसे कहीं जबाब देने में उसने ज्यादा लीपा पोती तो नहीं कर दी.खैर हम दोनों बहनों ने भी हँस कर उसकी लीपा-पोती को और पोत दिया था।
इसी बीच मेरी शादी पक्की हो गयी थी .राजू अब मेरे ससुराल में भी सबका जाना-पहचाना हो गया था क्योंकि वार त्योहार उसका मेरी ससुराल जाना होता ही रहता था,तब वह वहाँ भी काम बडी लगन से प्रसन्नता पूर्वक करता था और सबसे बडी बात तो यह थी कि वह मेरी होने वाली ससुराल में मेरे अज्ञात गुणों का वर्णन भी बहुत कुशलता पूर्वक करता था.घर आकर जब वह यह सब बताता था तो मैं उससे कहती थी कि राजू फलाँ काम तो मुझे आता ही नही हैं फिर तुमने वहाँ क्यों कहा कि मुझे आता है तो वह छोटे भाई की तरह आँखें घुमा घुमा कर कहता कि अरे ,मेरी जीजी किसी से कम है क्या ,नही आता तो आगे सीख जायेगी, अभी मैं मेरी जीजी की कमी क्यूँ बताऊँ वहाँ .”सच उसका यह मेरे प्रति बडेपन का भाव देख मैं भाव विभोर हो जाती थी.छोटे भाई की तरह प्यार आने लगता था उसपे.समय यूँ ही अपनी गति से चल रहा था.राजू भी अब सत्रह-अठारह बर्ष का युवा होने लगा था .अपने जीवन के सपने अब उसकी आँखों में पलने लगे थे.वह दिल्ली जाकर कुछ अलग काम करना चाहता था .जिस दिन उसे दिल्ली जाना था वह दिन मानो बेटी के विदायी का सा दिन था.उसके लिये रास्ते का खाना ,कुछ नये कपडे और उसकी पगार के अलावा और बख्शीश ।आज राजू पता नही कहाँ है किन्तु अब भी जब उसकी याद आती है तो अनगिनत सुखद स्मृतियाँ नेत्रों के सामने तैर जाती हैं.
अन्जना मनोज गर्ग 1र5 विज्ञान नगर, कोटा ,राजस्थान मोबाइल नंबर 9461401397