पेशे से इंजीनियर अरुण अर्णव खरे का लेखन बहुआयामी है | उन्होंने साहित्य की सभी मुख्य विधाओं में कलम चलाई है | आज वह कहानी व व्यंग्य लेखन में देश भर में चर्चित है।जितना मैंने अरुण अर्णव खरे को पढ़ा है उस आधार पर मैं निसंकोच कह सकता हूँ कि वे अपने लेखन के प्रति गंभीर और ईमानदार हैं | उनकी रचनाओं में सामाजिक दायित्वबोध झलकता है, देशकाल और मानवीय संवेदनाओं के दर्शन होते हैं | हम कह सकते हैं कि उनका लेखन सोशल इंजीनियरिंग का लेखन है | एक यांत्रिक अभियंता जिस तरह की मशीनों की बनावट और संचालन का ज्ञान रखता है, वह उनकी विभिन्न सामाजिक ढांचों, संस्तरों की समझ और सिस्टम की बखूबी पड़ताल में झलकता है। गीत, कविता, व्यंग्य, उपन्यास, कहानी और निबंध आदि साहित्य की विधाओं में प्रचुर लेखन करने के साथ ही वह एक अच्छे चित्रकार हैं तथा खेल लेखन में भी देश भर में अग्रणी स्थान रखते हैं | खेलों पर भी उनकी आठ पुस्तकें प्रकाशित हैं | भारतीय खेलों पर एक वेबसाइट का संपादन करते हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर वार्ताओं का प्रसारण हुआ है। उनके व्यक्तित्व पर रायपुर दूरदर्शन द्वारा एक कार्यक्रम भी प्रसारित किया गया था |
जहाँ तक साहित्यिक लेखन का प्रश्न है अरुण अर्णव खरे ने अब तक एक उपन्यास – “कोचिंग@कोटा”, तीन कहानी संग्रह – “भास्कर राव इंजीनियर”, “चार्ली चैप्लिन ने कहा था” व “पीले हाफ पैंट वाली लड़की”, चार व्यंग्य संग्रह – “हैश,टैग और मैं”, “उफ्फ! ये एप के झमेले”, “एजी, ओजी, लोजी, इमोजी” व “मेरे प्रतिनिधि हास्य-व्यंग्य” तथा दो काव्य कृतियाँ “मेरा चाँद और गुनगुनी धूप” व “रात अभी स्याह नहीं” दिए हैं | अनेक चर्चित और महत्वपूर्ण कहानी व व्यंग्य संग्रहों में उनकी रचनाओं को शामिल किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं – अम्लघात (सं सुधा ओम ढींगरा), किस्सागंज (सं मुकेश दुबे), कथारंग (सं हंसादीप), कथा भोपाल (सं संतोष चौबे), नहीं अब और नहीं (सं संतोष श्रीवास्तव), व्यंग्य प्रदेश, मध्य प्रदेश (सं पिलकेन्द्र अरोड़ा), व्यंग्य के नव स्वर (सं ), व्यंग्यकारों का बचपननामा (सं सुशील सिद्धार्थ), मिली भगत (सं विवेक रंजन श्रीवास्तव), १३१ श्रेष्ठ व्यंग्यकार (सं डॉ राजेश कुमार व डॉ लालित्य ललित), खरी-खरी (सं विनोद कुमार विक्की)इक्कीसवीं सदी के 251 अंतर्राष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार (सं डॉ राजेश कुमार व डॉ लालित्य ललित) तथा थाने थाने व्यंग्य (स हरीश कुमार सिंह / नीरज शर्मा) आदि | कुछ पत्रिकाओं के व्यंग्य विशेषांकों सहित डायमंड बुक्स के “मध्य प्रदेश: युवामन की कहानियाँ” का संपादन किया है | इस वर्ष की देश/विदेश की 100 बड़े रचनाकारों की राही रैकिंग, भारतीय भाषा परिषद तथा जयपुर साहित्य संगति द्वारा जारी सूचियों में भी उन्हें शामिल किया गया है |
“कोचिंग@कोटा” अरुण अर्णव खरे का एक चर्चित और बहुपठित उपन्यास है जिसके अब तक दो संस्करण व अंग्रेजी अनुवाद आ चुका है | साहित्य समर्था का प्रतिष्ठित “पृथ्वीनाथ भान सम्मान” एवं व्यंग्य संस्थान, रायपुर का “साहित्य सम्मान” भी उपन्यास को प्राप्त हो चुके हैं | पंद्रह से अधिक समीक्षकों ने इसकी समीक्षाएँ लिखी हैं | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, उपन्यास में कोचिंग हेतु कोटा जाने वाले बच्चों के जीवन-संघर्ष, प्रतिदिन सामने आने वाली कठिनाइयों, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा, विडंबनाओं, काटने को दौड़ते एकाकीपन, सपने टूटने की पीड़ा, उलझनों, शोषण, अवसाद, प्रेम, वात्सल्य, जीवटता और सच्ची दोस्ती का चित्रण है | लेखक ने एक सामयिक विषय को बहुत ही खूबसूरती से उपन्यास के माध्यम से समाज के सामने रखा है । कोचिंग लेने आए सभी बच्चे एक ऐसी रेस में शामिल होते हैं जिसमें सभी जीतना चाहते हैं | कुछ बनने के इस सफर में बच्चों को इतना कुछ खोना पड़ता है जिसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती | उपन्यास में समीर और चित्रा प्रमुख किरदार हैं जिनके जरिए लेखक ने उक्त तथ्यों की बहुत बारीकी से पड़ताल की है | सोलह साल की उम्र का एक किशोर समीर, जीवन की निर्णायक राह प्रशस्त करने के मिशन पर छोड़ दिया जाता है | उसकी यह यात्रा हर कदम पर नई चुनौतियाँ, नए चैलेंज पेश करती है जिसे अनुकूल बनाने की जिम्मेदारी उसके नाजुक कंधों पर होती है | चित्रा के रूप में उसे एक सच्ची और संबल प्रदान करने वाली दोस्त मिलती है और फिर उसका साथ पाकर समीर अपनी राह आसान बनाते हुए आगे बढ़ने लगता है | उपन्यास शुरु से अंत तक पाठक को बांधे रखता है | जीवन के हर रंग के समुचित संयोजन से इस कृति में लेखक ने चार चाँद लगा दिया है। किशोर मन के भाव को अभिव्यक्त करने के लिए लेखक ने जिस खूबसूरती से उन्हीं के शब्दावली का प्रयोग किया है उसकी सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है। कुछ उदाहरण देखिए –
एक प्रसंग में चित्रा को पड़ोस में रहने वाला एक लड़का अक्सर छेड़ता है | रक्षाबंधन के दिन चित्रा ने उससे किस तरह बदला लिया, जब वह यह कहानी समीर को बताती है तो समीर कहता है – “तुम तो सचमुच कलाकार हो” | उत्तर में चित्रा बोलती है – “हाँ .. हूँ, दीपिका पादुकोन से भी बड़ी वाली” | इसी तरह एक और अवसर पर समीर के रुष्ट होने पर चित्रा कहती है – “अपुन महादेव मंदिर चलते हैं और वहीं बाबाओं के साथ धूनी रमाते हैं – हो गई कोचिंग फिनिश अपनी | अच्छा बता कौन सा बाबा बनेगा, औघड़ या नागा | तुझे दूसरों को नंगा करने का शौक है न .. अच्छा जमेगा नागा बाबा बनकर .. नंग-धड़ंग .. और मैं औघड़ बाबा बनूँगी, मस्त मलंग .. तू चिलम फूँकना और मैं मुर्दों की राख मलूँगी शरीर पर |” और जब समीर क्लास में फर्स्ट आता है तो चित्रा कहती है – “बच्चे ने पहली बार अपनी क्षमता के अनुसार प्रदर्शन किया है, मैं बहुत खुश हूँ, वर माँगो वत्स” | उत्तर में समीर कहता है – “वर दो माते कि अब कभी आपसे आगे निकलने की हिम्मत न करूँ” और फिर चित्रा का यह कहना -“धत्त ये वर अस्वीकृत किया जाता है”, दोनों के बीच की केमिस्ट्री और मित्रता की पवित्रता को रेखांकित करता है | मशहूर लेखिका सूर्यबाला ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है कि “यह पाठकों के बीच अपनी स्पेस तलाश लेने की पूरी आश्वस्ति देने वाला उपन्यास है |” दूसरे संस्करण की भूमिका में चर्चित कहानीकार सुषमा मुनींद्र लिखती हैं कि “उपन्यास को पुस्तकालयों में रखना चाहिए, कोर्स में लगाना चाहिए, अभिभावकों और विद्यार्थियों को पढ़ना चाहिए |” वे इसे एक “आई ओपनर” उपन्यास मानती हैं |
एक कहानीकार के रूप में अरुण अर्णव खरे का आकलन सूर्यबाला जी ने इन शब्दों में किया है – “उनकी कहानियाँ सिर्फ कलम से लिखी हुई नहीं हैं बल्कि उन्होंने बहुत गहराई से उन्हें महसूस किया है। तभी अपने कथ्य और शिल्प में बिना किसी कृत्रिम साज सज्जा के वे पढ़ने वाले के मन में पैठ लेने की सामर्थ्य रखती हैं ।” अरुण अर्णव खरे के अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं | उनकी कहानियों में एक ऐसा कथारस है जो पाठकों की चेतना में रचबस जाता है | कहानियों की प्रभाविकता ऐसी है कि पाठक के मन में चित्र सा खिंच जाता है और वो अपनी कल्पना से किरदारों व परिवेश के साथ कनेक्ट करने लगता है। उनके तीनों कहानी संग्रहों की कहानियों से गुजरते हुए यह भावना और बलवती होती जाती है | उन्हें साहित्यिक इंजीनियर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि वे जब लिखते हैं तो शब्दों से इस तरह परिवेश रचते हैं कि पाठक के सामने घटनाओं के चित्र उभर आते हैं । ‘रसात्मक वाक्यं काव्यं’ यह उक्ति उनके गद्य साहित्य पर पूरी तरह चरितार्थ होती है । उन्होंने “भास्कर राव इंजीनियर” की भूमिका में कहा है – “मेरा विश्वास है कि कहानियों को पढ़ते हुए आप निश्चित ही यह महसूस करेंगे कि इस कहानी के पात्र तो मेरे परिचित है और इनसे कभी न कभी मिल चुके हैं ।” उनका दूसरा संग्रह “चार्ली चैप्लिन ने कहा था” कोरोना काल में जीवन में आए बदलाव, विसंगतियों, प्रेम, स्वार्थपरता और सद्भाव की कहानियों का संग्रह है | चार्ली चैप्लिन ने अपने जीवन में दोनों विश्वयुद्ध और स्पेनिश फ्लू के त्रासद काल को देखा था | जिस समय दुनिया किंकर्तव्यविमूढ़ थी तब वे लोगों को हँसा रहे थे, स्वयं को अभिव्यक्त कर रहे थे, जिंदगी जीने का हुनर सिखाने के वास्ते कर्त्तव्यमग्न थे । लेखक श्री अरुण अरुण खरे ने भी विश्वयुद्ध और स्पेनिश फ्लू जैसी ही मारक कोरोना काल की विभीषिका को करुणा और कर्तव्यबोध के साथ व्यक्त किया है । इन कहानियों में जिंदगी की साँसों और आहों को महसूस किया जा सकता है | लेखक ने अपनी बात में कहा भी है – “साहित्य समय सापेक्ष होता है अतः समय की अनदेखी कर साहित्य लेखन नहीं किया जा सकता ।” लेखक ने पूरी ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ अपनी इस बात को इस कहानी संग्रह में पूरी तरह निभाया है | अपने तीसरे कहानी संग्रह “पीले हाफ पैंट वाली लड़की” की भूमिका में लेखक ने लिखा है कि “संग्रह में जिंदगी के उजले पक्ष की गवाह बनी कुछ कहानियों के साथ ही जिंदगी के स्याह पक्ष की कहानियाँ भी हैं लेकिन उनमें भी प्रकाश की एक किरण ही सही, अपनी जगह तलाशती दिखाई देगी |” आज के त्रासद समय में जिस मानवीय दृष्टिकोण और पॉजिटिविटी की जरूरत है वह इस संग्रह में पूरी ऊष्मा और गंभीरता के साथ मौजूद है | प्रसिद्ध कहानीकार डॉ शरद सिंह का मानना है कि इस संग्रह में कुछ कहानियाँ स्त्रीविमर्श रचती हैं तो कुछ प्रथा विमर्श | इसीलिए इन बारहों कहानियों के कथानकों में पुनरावृत्ति नहीं है। प्रत्येक कहानियाँ अपना अलग विमर्श और संवाद लिए हुए हैं। वरिष्ठ कहानीकार गोविंद सेन का मत भी शरद सिंह से मिलता जुलता है | उनका कहना है कि “संग्रह की आधे से अधिक कहानियों में स्त्री पात्र प्रमुखता से उपस्थित है | कहानियों में आईं युवा और प्रौढ़ स्त्रियाँ तथा पुरुष विभिन्न पृष्ठभूमियों और समुदायों के हैं | विषम परिस्थितियों में जीती पुरुष मानसिकता से जूझती स्त्रियों की जिजीविषा को अर्णव जी ने बखूबी चित्रित किया है | स्त्री-पुरुष प्रेम के उदात्त स्वरूप को कुछ कहानियों में उकेरा गया है |” उक्त दोनों कथन लेखक के इस वक्तव्य की पुष्टि करते हैं जो संग्रह की भूमिका में दर्ज है – “इन कहानियों में स्त्री की मौजूदगी, समाज में रची-बसी पारम्परिक स्त्री वाली नहीं है। वह जिंदगी को नये सिरे से परिभाषित करती है और अपनी उपस्थिति से चौंकाती है। अधिकांश कहानियों के केन्द्र में युवा और उनके सरोकार हैं।” मनोरमा वार्षिकी की यह राय भी महत्वपूर्ण है कि “पात्रों एवं शीर्षक का चयन, प्रभावशाली भाषा शैली और विशेष कथातत्व की मौजूदगी कहानियों को न केवल जीवंत बनाती है वरन ऐसा परिवेश भी निर्मित करती हैं जो कहानी को कथा मात्र न बनाकर पाठक को सामने घटित होती हुई घटना बना देती है |”
अरुण अर्णव खरे की जिन कहानियों को मैंने पढ़ा है, उनमें से बहुतों के विषय इतने अलहदा हैं जो दूसरे कहानीकारों की नजरों से ओझल रहे हैं | उनकी कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो समाज के अंदरूनी सच को पर्त दर पर्त उजागर करती हैं | खेलों से संबंधित विषयों पर भी उन्होंने अनेक सार्थक और उद्देश्यपरक कहानियाँ लिखी हैं | उनकी बहुत सी कहानियाँ युवा वर्ग के सरोकारों और संघर्ष से जुड़ी हुई हैं | एक युवा पाठक होने के नाते मैं इन कहानियों से बहुत जुड़ाव महसूस कर पाया और मुझे लगा कि वास्तव में ये कहानियाँ मुझसे, मेरे दोस्तों से और मेरे आस-पास के माहौल से जुड़ी हुई कहानियाँ हैं । उनके तीनों संग्रहों में शामिल लगभग चालीस कहानियों में से मुझे एक दर्जन से अधिक कहानियाँ उनकी विषयवस्तु, कहन और सरोकारों के कारण बहुत पसंद हैं | ये कहानियाँ हैं – “दूसरा राजमहर्षि”, “आफरीन”, “देवता”, “चिलिंग सेंटर”, “स्टेंट”, “मकान”, “जॉटर रिफिल पेन”, “चार्ली चैपलिन ने कहा था”, “विश्वासघात”, “उदास क्यों रहती है जोजो”, “हारेगी नहीं आनंदिता”, “पीले हाफ पैंट वाली लड़की”, “अपने अपने मकड़जाल”, गुडमार्निंग आरएसी”, “चरखारीवाली काकी” एवं “पुनर्जन्म” |
अरुण अर्णव खरे के व्यंग्यकार रूप को सुभाष चंद्र कुछ इस तरह परिभाषित करते हैं – “उनके व्यंग्य आपको बाँधते हैं, शिल्प और कथ्य दोनों स्तरों पर आपको प्रभावित करने की कोशिश करते हैं तो इसका बड़ा कारण यह है कि वह व्यंग्य की परम्परा से परिचित होने के बाद इस क्षेत्र में उतरे हैं |” व्यंग्ययात्रा के यशस्वी संपादक व मशहूर व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय कहते हैं कि “अपनी व्यंग्य कथाओं के माध्यम से हमारे समय की विसंगतियों से साक्षात्कार कराने के लिए अरुण अर्णव खरे के पास व्यंग्य का मुहावरा और भाषा है । अपने कहन को प्रखर करने के लिए वे नए-नए उपमान खोजते हैं और यहाँ उनके कथाकार व्यक्तित्व में व्यंग्यकार परकाया प्रवेश करता है ।” वरिष्ठ व्यंग्यकार अरविंद तिवारी को अरुण अर्णव खरे के व्यंग्य “धूप में शीतल छाँव की तरह लगते हैं |” एक और वरिष्ठ व्यंग्यकार रमेश सैनी का मानना है कि “अरुण अर्णव खरे का विषय चयन सामयिक व्यंग्यकारों से अलहदा है। आज व्यंग्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। उनके विषयों में बासेपन की गंध महसूस होती है, पर इनके विषयों में नयेपन की ताजी हवा का अनुभव किया जा सकता है |”
अरुण अर्णव खरे के चारों व्यंग्य संग्रहों – “हैश, टैग और मैं”, “उफ्फ! ये एप के झमेले”, “एजी, ओजी, लोजी, इमोजी” तथा “मेरे प्रतिनिधि हास्य-व्यंग्य” को मैंने तल्लीनता से पढ़ा है | मैं सैनी सर की बात से सहमत हूँ कि अरुण अर्णव खरे के पास नवीन विषयों की कमी नहीं है | उन्होंने राजनीति, अर्थ, धर्म, समाज, शिक्षा, मनोरंजन, साहित्य, सोशल-मीडिया जैसे अनेक विषयों की विसंगतियों पर कलम चलाई है | विषयों की यह विविधता उन्हें समकालीन व्यंग्यकारों में महत्वपूर्ण स्थान देती है | उन्होंने व्यंग्य में निबन्ध और कथा का उपयोग तो किया ही है वहीं अपेक्षाकृत कठिन फॉर्मेट, फैंटेसी व पत्र-शैली आदि का भी प्रयोग किया है | उनके प्रतिनिधि व्यंग्यों से रूबरू होने के बाद उन पर जलील मानिकपुरी जी का एक शेर मुफीद लगता है – “वो अपने अक्स को आवाज़ दे के कहते हैं, .तेरा जवाब तो मैं हूँ मेरा जवाब नहीं।” मेरी नजर में – “ब्लू व्हेल गेम और किसान”, “आँसू बचाइए साहब”, “नोटबन्दी और हलके रैकवार के तीन पत्र”, “शनि और चोली-दामन का साथ”, “महापुरुष का प्रादुर्भाव”, “पी राधा और मैं”, “पाओ बेशरम हँसी अनलिमिटेड”, “विशेषण का संज्_ंजा हो जाना”, “मूल्यों की लड़ाई”, “ब्रह्मलोक में आउट सोर्सिंग”, “बसन्त, मोहतरमा और मैं”, “एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति का वैलेंटाइन”, “उफ्फ! ये एप के झमेले”, “पॉवर, पंख और पॉंव”, “टैग बिना चैन कहाँ रे”, “कैमरा, कोण और दृष्टिकोण”, “रावण के पुतले के प्रश्न” तथा “आप कैसे बने करोड़पति” अरुण अर्णव खरे के यादगार व्यंग्य हैं | इनके अतिरिक्त जिन व्यंग्यों में उनका कवि रूप मुखर हुआ है उनको पढ़कर होंठों पर सहज मुस्कान उभर आती है | ऐसे व्यंग्यों में प्रमुख हैं – “कोरोना गोष्ठी वाया व्हाट्सएप” तथा “एक कवि की प्याज डायरी” | प्याज डायरी का एक अंश देखिए – “तुम काँदे से जब हुई, ‘अनियन’ मेरी जान। एक झलक को झींकता, सारा हिंदुस्तान।।”
अरुण अर्णव खरे के दोनों काव्य संग्रह – “मेरा चाँद और गुनगुनी धूप” तथा “रात अभी स्याह नहीं” उनकी प्रारंभिक कविताओं के संकलन हैं | जहाँ तक मेरी जानकारी है आजकल वह कविताएँ नहीं लिख रहे हैं या लिख भी रहे हैं तो बहुत कम | इसकी जो वजह मुझे लगती है वह उनका गद्य साहित्य में रम जाना है | कारण जो भी हो, यदि वह कविताएँ लिखना जारी रखते तो मेरा मानना है कि पाठकों से उन्हें उतना ही स्नेह प्राप्त होता जितना उनकी कहानियों और व्यंग्य को मिलता है | अपनी इस बात के समर्थन में मैं उनकी रचनाओं के कुछ अंश आपके मूल्यांकन के लिए उद्धृत कर रहा हूँ –
दुख-दर्द की विकट-बारिश ने जब भी हमें भिगोया,
तब-तब खड़े मिले थे सर पर छतरी ले बाबूजी ।
प्रीत के गीत अभी कोई कैसे गाए,
भोर उदास थी, शाम भी सुहानी नहीं |
बस्ती-बस्ती आग लगा दी सियासतदारों ने,
अब तो बचा-खुचा सद्भाव बचाने निकला हूँ |
इस शहर के चलन से अब तलक नावाकिफ हूँ मैं,
घूमते हैं लोग आस्तीनों में विषधर लिए हुए |
रसूखदारों के बेटे थे, फायदे में रहे |
बेचारे कार्यकर्ता तो बस हाशिए में रहे |
हम एक दूसरे के पूरक और सहारे होंगे |
जब मेरे नयनों से बहे अश्रु तुम्हारे होंगे |
नवीन कुमार जैन
अध्ययनरत, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
पता – ओम नगर काॅलोनी, वार्ड नं.-10, बड़ामलहरा, जिला- छतरपुर, म.प्र. पिन – 471311
मो.नं. – 8959534663
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