उत्तराखंड में उत्तरकाशी जनपद के सिलक्यारा टर्नल की घटना न तो हादसों के क्रम में पहली थी और न ही अंतिम। एक तरफ इस घटना ने न केवल देश वासियों का ही ध्यान आकृष्ट किया बल्कि, इजराइल – फिलीस्तीन और रूस – यूक्रेन युद्ध से भी जादा विश्व का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। 17दिनों तक पल पल मौत और जिंदगी से साक्षात्कार करते हुए देश के 41 गैर सैनिक वीरों ने जिस जीवटता का परिचय दिया है, वह पूरे विश्व में आने वाले भावी हादसों में प्रभावितों को हौसला देने का भी काम करेगा। आपको यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस तरह का बचाव कार्य अभूतपूर्व है। कई किन्तु – परन्तु के बीच, जिस तरह से अत्याधुनिक देशी तथा बहुराष्ट्रीय तकनीक, तमाम संभावित बचाव की संभावनाओं पर काम करते हुए, राज्य व केन्द्र की तमाम ऐजेंसियों के संयुक्त प्रयासों ने एक बड़े हादसे को सुखद अंत देकर, उठने और उठाये जाने वाले प्रश्नों पर भी विराम लगा दिया। पूरे बचाव कार्य में जिस बात की विशेष चर्चा होनी चाहिए वह यह रही कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने विभिन्न ऐजेंसियों व राज्य सरकारों के बीच तकनीक व उपकरणों के आदान प्रदान के लिए की जाने वाली प्रक्रिया पर त्वरित अनुमति व निर्णय लेने के लिए सक्षम अधिकारियों को हादसा स्थल पर ही तैनात कर दिया। इन सक्षम अधिकारियों में मंगेश घिल्डियाल, नीरज खैरवार सहित वो पूर्व अधिकारी शामिल थे, जो उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियों व इस तरह के हादसों में त्वरित कार्रवाई की पूरी प्रक्रिया से वाकिफ थे। इन दोनों अधिकारियों सहित पांच लोग 15 दिनों तक दिन रात घटनास्थल पर ही थे वहीं कंटेनर में रहते हुए, वे हर संभव प्रयास किये गये जिनसे अंततः इस हादसे का सुखद अंत हुआ। राज्य सरकार की ओर से मुख्यमंत्री ने हर रोज तीन-चार घंटे मौजूद रह कर, कम्पनी और ऐजेंसियों के बीच के तालमेल को और सुदृढ़ किया। केन्द्र ने जनरल बी के सिंह, नितिन गडकरी और कई अन्य मंत्रियों को वहां अक्सर भेजकर, प्रभावितों के परिवारों को आश्वस्त किया कि बचाव कार्य में कोई कमी नहीं रखी जायेगी। इन सब कदमों से ही संभव हुआ कि घटनास्थल पर लिये गये हर फैसले को स्वीकृति की लम्बी प्रक्रिया में होने वाले समय के नुकसान को बचाने के लिए एक तरह से पूरा पीएमओ ही घटनास्थल पर मौजूद था, जिससे यह संभव हुआ कि वायु सेना का विशेष विमान हैदराबाद भेज कर आगर मशीन मंगाई गई स्लोवेनिया से विशेष विमान से दुनिया के सबसे बड़े बचाव विशेषज्ञ को बुलाया गया। एक खास तरह का प्लाज्मा कटर मंगाने के लिए पहले टीम को हैदराबाद भेजा गया फिर विमान को अमेरिका भेजा गया वहां से खास तरह का प्लाज्मा कटर लाया गया। चार मशीन और रोबोट और ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रडार स्विट्जरलैंड से विशेष विमान से मंगाए गये। घटनास्थल पर हेलीपैड और एक काम चलाऊ रनवे भी बना दिया गया। दुर्घटना स्थल पर अभिलंब ऑक्सीजन जनरेटर प्लांट लगा दिया गया। आप दिल पर हाथ रख कर सोचिए कि क्या कभी इतिहास में इस रेस्क्यू ऑपरेशन के पहले इतने त्वरित ढंग से और इस तरह के ऑपरेशन के बारे में सुना गया था। यह घटना निर्माण कार्यों के दौरान होने वाली न पहली घटना थी ना ही अंतिम। लेकिन इन दोनों के बीच यह विश्व भर की अभूतपूर्व घटना तो बन ही गई।
12 नवम्बर को दीपावली के दिन जब उत्तरकाशी के सिलक्यारा में 4.5कि०मी०लम्बी निर्माणाधीन सुरंग में खुदाई के दौरान टनल का 60मी० हिसा भरभरा कर गिर गया। हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि वह घटना कैसी रही होगी जब टनल का मुंह दोनों तरफ से बंद हो गया। जल्द ही संचार माध्यमों से यह बात 8 राज्यों के उन 41मजदूरों के घरों तक पहुंच गई। घटना दीपावली को हुई थी, इसलिए उन मजदूरों के परिवारों को इसका मानसिक आघात भी जादा ही पहुँचा।हर घटना की शुरूआती पलों की ही तरह इस घटना के ट्रीटमेंट पर भी असंमजंस ही बना रहा। लेकिन जल्दी ही कम्पनी के नीति नियंताओं ने फस्ट ऐड शुरू कर दिया । पहले दो दिनों की संभव कवायद के बाद, जितना मलबा हटाया जाता उससे दुगुना टनल के अंदर से टूटकर राह रोक लेता। 14 नवम्बर को छोटी ड्रिलिंग मशीन से मिट्टी हटाने का काम शुरू हुआ।
15व 16 तारीख को बड़ी ड्रिलिंग मशीनें मंगवाई गई। 17 नवम्बर से बड़ी ड्रिलिंग मशीनों से काम शुरू हुआ। लेकिन इन मशीनों से भी जब इच्छित परिणाम नहीं मिले तो 18 नवम्बर को इन्दौर से विशेष बड़ी मशीनें सिलक्यारा पहुंची। 19 नवम्बर को एन डी आर एफ और आर डी ओ ने मोर्चा संभाला। 20 नवम्बर को अन्तर्राष्ट्रीय टनलिंग एक्सपर्ट रिचर्ड अरनाल्ड उत्तरकाशी पहुंचे। 28 नवम्बर को इस जंग को जीतने की आस तब विश्वास में बदल गई जब करीब दोपहर बाद डेढ़ बजे जब 57मीटर पर निकास सुरंग का आखरी स्टील पाइप मलबे को भेदकर अंदर फंसे श्रमिकों तक पहुंचा। प्रकृति ने इस पूरे अभियान में कदम कदम पर मानव विश्वास और विवेक की परीक्षा ली। जब यह स्टील पाइप श्रमिकों तक पहुंचा था तो लगा कि अब काम पूरा हो गया लेकिन जैसे ही अंदर फंसे श्रमिकों को बाहर निकालने के लिए एन डी आर एफ और एस डी आर एफ के जवान पाइप से होकर अंदर घुसे तो पता चला कि जिस स्थान पर पाइप आर पार हुआ, वहाँ पानी जमा था। ऐसे में अंत में भी श्रमिकों के जीवन बचाने के लिए कोई रिस्क न लेते हुए, पाइप को और आगे बढ़ाने का निर्णय किया गया ताकि पाइप के अंदर पानी आने या ऊपर से ताजा मलबा आने से भी श्रमिकों की जिंदगी बची रह सके।
17दिनों तक पल पल बदल रही परिस्थितियों ने न केवल वहां पर उपस्थित श्रमिकों, कार्मिकों, अधिकारियों, नेताओं, प्रभावितों के परिजनों की ही बल्कि पूरे राज्य व देश के धैर्य की भी कड़ी परीक्षा ली थी। तकनीक के दम पर कठिनाइयों को बौना करने की कवायदत तक बौनी पड़ गई जब 24 नवम्बर की शांम ड्रिलिंग करते वक्त औगर मशीन का 46. 9 मीटर हिस्सा फंस गया। अब इसे काटकर निकालना ही एकमात्र विकल्प था। यह भी उल्लेखनीय है कि अमरीका की यह मशीन पहली बार किसी अभियान पर असफल हुई थी। ऐसे में शेष बचे 9से 12 मीटर सुरंग को मैनुवल तरीके से तैयार करने का निर्णय लिया गया। अंततः मौके पर तैनात अधिकारियों ने निर्णय लेते हुए तय किया कि अब देशी जुगाड़ पद्धति को काम में लाया जाय। 12 श्रमिकों ने 2दिन की मेहनत से मलबा, सरिया, कंक्रीट की दीवार को काटकर, 41मजदूरों को बचाने की वह अमिट कहानी गढ़ दी, जिसने 41लोगों के घरों में 17 दिनों बाद ही सही पर दीवाली मनाने का सुखद और यादगार मौका दिया।
इस काम के लिए 28सदस्यीय रैट माइनर्स की टीम को मोर्चे पर उतारा गया। ज्ञातत्व है कि रैट माइनर्स वो श्रमिक होते हैं जो हाथों से खुदाई करते हैं। 800 मि०मी०के व्यास के पाइप के अंदर घुसकर इस काम को करना बेहद जोखिमपूर्ण भी था। इस टीम ने गैस कटर, प्लाज्मा कटर, लेजर कटर और हैंड ड्रिलर की मदद से सिलक्यारा चक्रव्यूह के इस अन्तिम द्वार को 24घंटे के भीतर बेध कर, 41श्रमिकों तक पहुंचकर इस पूरे अभियान का सुखद समापन किया। इस हादसे ने विज्ञान की क्षमता के साथ विज्ञान की सीमा को बहुत नजदीक से न केवल देखा ही बल्कि महसूस भी किया।यह भी शिद्दत से महसूस किया गया कि सुरक्षा के इंतजामात में बढ़ोतरी करनी ही होगी।इसके साथ ही यह भी महसूस किया गया कि विज्ञान की सीमा के बाहर भी अभी बहुत कुछ जानना – समझना बाकी है। विज्ञान का ज्ञान जहाँ समाप्त होता है आस्था का ज्ञान वहीं से पैदा होता है। विज्ञान का शायद अभी आस्था की सीमाओं तक पहुंचना मुमकिन नहीं हो पाया।
यहाँ यह बाद दीगर है कि अर्नाड डिक्स ने जो पहला काम किया, वह यह था कि उन्होंने सबसे पहले अब तक की गई पूरी कार्य प्रणाली को समझा। एन डी आर एफ व एस डी आर एफ की कार्यप्रणाली की सराहना करते हुए उन्होंने सबसे पहले टनल के मुहाने से हटाये गये पूजा स्थल को वापस रखवाया।विदेशी टनल एक्सपर्ट अर्नाड डिक्स जितनी बार भी टनल के अंदर बाहर गये उतनी ही बार उन्होंने घुटनों के बल बैठकर, वहां पर स्थापित बाबा बौखनाथ के मंदिर में प्रार्थना की। हमारे कुछ पाठक इसे अवैज्ञानिकता या अंधविश्वास को बढ़ावा भले ही कहें, लेकिन अर्नाड डिक्स की हिमालय व हमारी धार्मिक आस्थाओं के बारे में कही गई बातें, कहीं न कहीं हमें सचेत करती हैं कि भले ही हम विज्ञान के क्षेत्र में दिनों दिन प्रगति कर रहे हों, लेकिन अभी तक हम आस्था के पीछे की ताकत के विज्ञान का रहस्य नहीं खोल पाये हैं। अभी हमें विज्ञान पर भरोसा करते हुए एक लम्बी यात्रा पूरी करनी है।
हेमंत चौकियाल
पोस्ट-अगस्त्यमुनि
जनपद – रुद्रप्रयाग
उत्तराखंड 246421 Mob+W/A-9759981877 Mail-hemant.chaukiyal@gmail.com