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12th फेल क्यों देखना-समीक्षा तैलंग

••एक दर्शक की प्रतिक्रिया••

12th फेल क्यों देखना है? क्योंकि वो मेरे गृहनगर ग्वालियर और उस क्षेत्र की कहानी है इसलिए? या इसलिए कि लाइफ में सक्सेसफुल कैसे बना जाता है? इसमें कोई दो राय नहीं कि गृहनगर और उसकी कहानियों को बड़े पर्दे पर देखना रोमांचित करता है। हम अपनी माटी से प्यार करते हैं इसलिए यह सहजभाव आना ही है।अब यदि सक्सेस स्टोरी आपको रिझाती है तो बहुत सारे मोटिवेटर स्पीकर आपको इस समय बाज़ार में दिख जाएंगे। वो स्पीकर तो बन जाते हैं मगर अपनी ही ज़िंदगी को कितना मोटिवेट कर पाते हैं ये बाद में पता चलता है।

इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए और ज़रूर देखा जाना चाहिए उन बच्चों, युवाओं और उनके माँ-बाप के साथ हर व्यक्ति को जो अपना करियर बनाने के लिए घर से दूर रहता है। या घर में रहकर भी सबसे दूर हो जाता है। कॉम्पीटिशन की तैयारी करता है। कितना बोझ और कितने तरह के विचारों से वो गुजरता है उस दौरान।बच्चे यदि सीखें इस फ़िल्म से तो जरा से फेल होने के कारण वे अपना जीवन समाप्त करने के बारे में नहीं सोचेंगे। इस फ़िल्म को देखकर वे अपनी ज़िंदगी से लड़ना सीखेंगे। एक के बाद एक मिलती शिकस्त से जैसे आईपीएस मनोज कुमार शर्मा ने हार नहीं मानी वैसे ही विपरीत परिस्थितियों में वे जीना सीखेंगे। संघर्ष करना सीखेंगे। यही तो जीवन है। बिना संघर्ष जीवन कैसा? और बच्चे ही क्यों बड़े भी देखें इस फ़िल्म को।

यह फ़िल्म यूपीएससी, इंजीनियरिंग आदि आदि प्रतियोगी परीक्षाओं में कैसे पास हुआ जाए इस विषय पर तो है ही नहीं। इसका विषय खोजो तो गहरी खाई जैसा गहरा है। ये आज उन सबको देखने के लिए फ़िल्म बनी है जो रोज़मर्रा के स्ट्रेस से खुद को नहीं बचा पाते। और कई बार ग़लत रास्ता चुनते हैं।मैंने इस फ़िल्म को देखने के बाद लल्लनटाप पर आईपीएस मनोज शर्मा का इंटरव्यू देखा। उन्होंने अपना स्ट्रेस कम करने के लिए बड़ी अच्छी बात कही कि वे डायरी लिखकर अपना तनाव कम करते थे और आज भी वे वही करते हैं। जो भी मन में हो उसे निकाल देने के बाद मन हल्का हो जाता है और आप आगे बढ़ने के लिए सज्ज हो जाते हो। उनके अनुसार उस दौर में एक अच्छा दोस्त खोजें और एक अच्छा गुरु होना ज़रूरी है जो हर पल आपकी मदद के लिए तैयार हो। तो क्या सबको ऐसे लोग मिल जाते हैं? हाँ मिलते हैं यदि काम में सच्चाई है और मन कपटहीन हो तब।

ग्वालियर चंबल का वो हिस्सा आज की तारीख़ में पहले से काफ़ी विकसित हो चुका है। मगर ये उस दौर की कथा है जब फ़ोन करने के लिए पीसीओ जाना पड़ता था और दिन के रेट भयानक महँगे होते थे। उस दौर को बख़ूबी इस फ़िल्म में उतारा है।मुझे समझने में इसलिए भी आसानी हो रही है क्योंकि उसी दौर की मैं भी हूँ। और मेरा अपना ठिकाना भी वही ग्वालियर था। दौलतगंज की मध्यभारतीय हिन्दी साहित्य सभा के पुस्तकालय में रहना, काम करना और एक समय पेट भरना कितना कष्टदायक होगा! हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।

उस दौर में काले वाले टेंपो चलते थे और वही गाँव-गाँव तक सवारी ले जाते थे। ग्वालियर के प्रतिष्ठित एमआईटीएस इंजीनियरिंग कॉलेज के बाद तो जैसे सन्नाटा रहता था। उस इलाक़े की गुंडागर्दी से सभी वाक़िफ़ होंगे जिन्होंने अपना जीवन ग्वालियर चंबल संभाग में बिताया है।चंबल का क्षेत्र रहने के लिए आसान कहाँ था और नौकरी करने के लिए कठिनतम था। छोटे से चुनाव में भी बूथ लुट जाते थे और कोई कुछ कर भी नहीं सकता था क्योंकि अगले को अपनी जान प्यारी होती थी। मुरैना-भिड़ में सामूहिक नकल के बारे में हम अक्सर अख़बार में पढ़ते थे। और इस बंदे को भी जब सामुहिक नकल नहीं करने मिली तो बंदा बारहवीं फेल हो गयी। मगर बंदे ने हार नहीं मानी और आगे एक पुलिस अधिकारी की बात सुनकर नकल करना बंद कर दिया।इस फेल ने उस व्यक्ति का पीछा सिलेक्शन के बाद हुए इंटरव्यू तक किया और उन्होंने इसका मुँह तोड़ जवाब भी दिया।

मैं हमेशा कहती हूँ कि जिसका जन्म चंबल के पानी में हुआ है वो विसंगतियों में जीकर उन्हें तराशने का माद्दा रखता है। जितना वो पानी इंसान को सच्चाई और ईमानदारी सिखाता है उतनी ही दबंगाई भी सिखाता है। मगर एक बात जो सबसे अच्छी है कि उस दबंगई में भी अपनापन नहीं भूलता। यही सब कारण हैं जो उसे जीवन में कुछ पाने के लिए लढैय्या बनाते हैं। वो इतनी आसानी से हार नहीं मानता।इस फ़िल्म को उन सबको देखना चाहिए जो लोग छोटी-छोटी सी बातों को लेकर हताश-निराश हो जाते हैं। मनोज कुमार शर्मा ने १२वीं फेल होने के बाद भी हार नहीं मानी। अँग्रेजी तो ख़ैर उस दौर में हमारे इलाक़े में सभी की कमजोर होती थी या सिर के ऊपर से निकल जाती थी। लेकिन वो तो उससे भी नहीं घबराए और अपना इंटरव्यू हिन्दी में देकर आये। सीधी-सी बात है कि जो तुम्हें आता है उस पर गर्व करना सीखो। इसी से कॉन्फ़िडेंस भी आता है। अपने बच्चों को मज़बूत बनाने का काम माता-पिता का ही है। निश्चित ही ऐसे बच्चे भटकते नहीं है।

युवाओं और बच्चों में यह फ़िल्म खासी चर्चित हुई है। वे चाहते हैं कि इस फ़िल्म को ऑस्कर मिले तो क्या ग़लत है? हम भी चाहते हैं कि इसे यह सम्मान मिलना चाहिए। ऐसी फ़िल्मों को प्रमोट भी करना चाहिए।विक्रांत मस्सी जो उस पात्र में उतरे हैं एक्टिंग तो क़तई नहीं दिखती। इतनी सच्चाई है उस कलाकार में कि कितनी ही बार आँखें भर आती हैं। श्रद्धा मतलब मेधा शंकर ने भी दिल जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस फ़िल्म के लेखक अनुराग पाठक ने एक संवेदनशील पुस्तक लिखकर आज के दौर के युवाओं को प्रोत्साहित किया है।बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ डॉ मनोज कुमार शर्मा, उनकी पत्नी आईआरएस श्रद्धा शर्मा और फ़िल्म की पूरी टीम को। जिस शिद्दत से फ़िल्म के डायरेक्टर विधुविनोद चोपडा ने थ्री इडियट्स बनायी थी उसी समर्पण से इस फ़िल्म को भी बनाया है।

समीक्षा तैलंग

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