आज से 55 वर्ष पूर्व 3 मार्च 1969 को भारतीय रेलवे ने इतिहास रचते हुए देश की राजधानी दिल्ली से पश्चिम बंगाल की राजधानी हाबड़ा के बीच दक्षिण एशिया की पहली तीव्र गति की पूर्ण वातानुकूलित एक लक्जरी ट्रेन का परिचालन शुरू किया। 1969 में आलीशान लक्जरी और सबसे तेज भागने वाली पूर्ण वातानुकूलित ट्रेन जिसने पहली बार 17 घंटे 20 के रिकॉर्ड समय में 1450 किलोमीटर का अपने पहले फेरे सफर तय किया । शुरुआत में वैक्यूम ब्रेक से परिपूर्ण इस ट्रेन में दो पॉवर कार, 5 एसी चेयर कार, एक एसी डायनिंग कार और एक एसी प्रथम श्रेणी के कोच समेत कुछ 9 कोच थे। ट्रेन में न सिर्फ आधुनिक कोच लगे हुए थे बल्कि सभी को बिस्तर, कंबल, तकिया, पत्रिका हिन्दी व अग्रेजी के साथ-साथ स्थानीय भाषा के समाचार पत्र, पानी, नास्ता एवं भोजन भी दिया जाता था। आधुनिक कोचों से सजी यह ट्रेन आम आदमीयों के पहुँच से भले दूर थी लेकिन भारत के ट्रेनों के इतिहास में एक विशेष महत्व रखती थी। यह ट्रेन भारत के हर राज्य की राजधानी से देश की राजधानी दिल्ली को जोड़ने एवं सफर का समय कम करने के उद्वेश्य से चलाई गयी थी। इस ट्रेन को चलाने का मुख्य कारण यह भी था कि राज्यों में तैनात अधिकारी, व्यापारी, समाजसेवी देश की राजधानी से जुड़ कर विकास एवं बाजार व्यवस्था में तेजी लाये। राजधानी ट्रेन में चलने वाले महत्वपूर्ण लोगों एवं इसकी तीव्रगति के कारण इसके गुजरने से पहले ही स्टेशनों पर तैनात कर्मचारी पूरी तरह से सर्तक हो जाते थे। आम ट्रेनों को मुख्य पटरी से हटा कर लूप में खड़ा कर दिया जाता था। एक मिनट की देरी होने पर रेलमंत्रालय एक्शन में आ जाता था। लगभग 50 सालों तक यह ट्रेन भारत की मुख्य ट्रेन रही। भोजन व्यवस्था से लेकर कोचों की साफ-सफाई, कोचों की स्थिति, यात्रीयों की सुविधा विशेष स्तर की होती थी। पूरी ट्रेन नये एवं आधुनिक कोचों से विशेष से रूप से धजी रहती थी। आज भारत में कुल 20 जोड़ी राजधानी ट्रनों का परिचालन हो रहा है। नयी दिल्ली को अहमदाबाद, बंगलोर, भुवनेश्वर, बिलसपुर, चेन्नई, गुवाहाटी/डिब्रूगढ, राँची, कोलकाता, जम्मू, मुंबई, पटना, सिकंदराबाद तथा त्रिवेंद्रम से जोड़ती है। राजधानी एक्सप्रेस की यह खासियत रही है कि यह न सिर्फ आम एक्सप्रेस ट्रेनों की जगह अपने गंतव्य पर पहुँचने में काफी कम समय लेती है बल्कि इसका ठहराव भी आम मेल एक्सप्रेस ट्रेनों की जगह काफी कम रहता है। भारत में सबसे अधिक दूरी तय करने वाली त्रिवेंद्रम राजधानी एक्स्प्रेस है जो अपने 2842 किलोमीटर के सफ़र को 41 मिनट 19 मिनट में पूरी करती है बल्कि इसका पहला स्टापेज 400 किलोमीटर के बाद आता है। इसके साथ भारत की सबसे छोटी राजधानी एक्सप्रेस दिल्ली-जम्मूतवी राजधानी एक्सप्रेस है मात्र 576 किलोमीटर का सफर 8 घंटे 20 मिनट में तय करती है।
विशेष कोच लगे होने और रेलवे के अनुभवी चालक एवं परिचालकों के होने के कारण राजधानी एक्सप्रेस में दुर्घटना में काफी कमी रहती है। राजधानी एक्सप्रेस के 55 सालों के इतिहास में एक हादसा ऐसा है जिसे कोई भूल नहीं पायेगा। 09 सितम्बर 2002 को दिल्ली-हाबड़ा राजधानी एक्सप्रेस 10 बजकर 40 मिनट पर रफीगंज रेलवे स्टेशन से 2 किलोमीटर आगे बढ़ी और धावा नदी पुल के पास पहुंची, तभी अचानक एक जोरदार धमाका होता है । रेल का इंजन तो पुल पार कर गया था लेकिन 13 बोगियां दुर्घटनाग्रस्त हो गई। हादसा इतना भयानक था कि जो रेलवे की पैंट्री कार थी, वो टुकड़ों में बदल गई थी। उसमें जो भी व्यक्ति था, उसकी लाश तक की पहचान कर पाना मुश्किल था। बाकी बोगियां एक-दूसरे से टकराने से ऐसी टूट गई थी और मुड़ गई थी कि उनको पहचान पाना मुश्किल था। स्थिति ये हो गई थी कि उसमें से शव को निकलना भी परेशानी भरा था। इस हादसे में 134 लोगों की जान गई थी और 250 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हुए ।
इसके साथ 25 जून 2014 को फिर एकबार राजधानी एक्सप्रेस हादसे का शिकार बनी.दिल्ली-डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस सारण जिले के पास हादसे का शिकार बन गयीं. इस ट्रेन की दर्जन भर बोगियां पटरी से नीचे उतर गयी और इस हादसे में करीब 4 लोगों की मौत और दर्जनों यात्री जख्मी हो गये थे.
इसके अतरिक्त छोटे-मोटे हादसों के अतरिक्त कोई हादसा ऐसा नहीं है जिसमें एक भी जान-माल की छति हुई हुई हो। राजधानी एक्सप्रेस के साथ अंतिम हादसा 13 जनवरी 2023 को नई दिल्ली से सियालदह जा रही राजधानी एक्सप्रेस मिर्जापुर के झिंगुरा स्टेशन के पास काम कर रही एक क्रेन से टकरा गई। इस हादसे में किसी जानमाल का नुकसान नहीं हुआ।
वक्त के साथ-साथ चलते हुए भले अभी भी राजधानी एक्सप्रेस भारतीय रेल की एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है लेकिन यात्री सुविधा, कोचों की हालत दिन प्रतिदिन औसत से भी नीचे आ रही है। राजधानी का भी नीजी करण करते हुए राजधानी के नाम के साथ तेजस जोड़ कर यात्रीयोंं की सुविधा को बढ़ाने का प्रयास किया गया। लेकिन यह व्यवस्था भी राजधानी की हालत सुधार नहीं पाई। आज राजधानी एक्सप्रेस में नये और सुविधा जनक कोचों की जगह आम कोच लगाये जा रहे हैं। पानी की कमी, शौचालयों एवं कोचों की सफाई, यात्रीयों को मिलने वाले तकिये, कंबल, चादर की सफाई औसत दर्जे से भी कम हो गई है। यात्रीयों के सुरक्षा के नाम पर ट्रेन में दो-तीन वर्दीधारी तैनात रहते है। यात्रीयों के प्रयोग किये गये बिस्तरों का बंडल बना कर उन्हें गेट पर दरवाजे को जाम कर दिया जाता है। भोजन एवं नास्ते की ट्रेनों में आपको कभी किसी अच्छी कम्पनी के बिस्किट, नमकीन, नहीं मिलेगें। चाय के दूध, चाय पत्ती तो ऐसी कम्पनीयों के दिये जाते है जो बाजार में ढ़ूढने पर आपको कही नहीं मिलेगें। ट्रेन के पेंटिकार में भोजन अब नहीं बनता। भोजन नास्ता रिमोट लोकेशनों के स्टेशनों पर बाहर से मंगाया जाता है। जिसकी शुद्वता एवं ताजेपन पर हमेशा सवाल उठने लगे हैं। नानवेज भोजन में मिलने वाले की प्लेट में आप चिकन ढूढ़ते रह जायेगें। भोजन की मात्रा भी इतनी कि शायद आपके भूख का कुछ प्रतिशत ही मिट पाये। स्वाद तो ऐसा कि आप पूरा भोजन कर ही नहीं पायेगें। राजधानी एक्सप्रेस में आये दिन यात्रीयों द्वारा कोच के अटेन्डेंटों द्वारा बत्तमीजी की शिकायत आती रही है।
राजधानी एक्सप्रेस भारत के रेल इतिहास में एक नया अध्याय लिख चुकी है। भले ही वन्देभारत, तेजस, शताब्दी जैसे ट्रेनें आज रेलयाता का हिस्सा है लेकिन राजधानी का रूतवा अभी भी वैसा है जैसा 55 सालों पूर्व था। बस आवश्यकता रेलवे को पुन: विचार करते हुए इसकी व्यवस्था, इसके कोचों, इसके खान-पान को अपग्रेड करने की ताकि वर्षो पूर्व बनाये गये इतिहास को आज भी कायम रख सकें।
अखंड गहमरी