महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 में टंकारा (गुजरात) में हुआ। पिता का नाम करसन जी तिवारी तथा माता का नाम अमृतबाई था। जन्म से ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न बालक मूल शंकर को शिवरात्रि के दिन व्रत के अवसर पर बोध प्राप्त हुआ। मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से शिक्षा प्राप्त की एवं इस मूल बात को समझा कि देश की वर्तमान अवस्था में दुदर्शा का मूल कारण वेद के सही अर्थों के स्थान पर गलत अर्थों प्रचलित हो जाना है। इसी कारण से समाज में धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों का जाल फैल चुका है और हम अपने भारत देश में ही दूसरों के गुलाम हैं। देश की गरीबी, अशिक्षा, नारी की दुर्दशा, भाषा और संस्कृति के विनाश को देखकर दयानन्द का मन अत्यन्त द्रवित हो उठा।
महर्षि दयानंद ने अपने विलक्षण व्यक्तित्व एवं कृतित्व से उन्नीसवीं सदी के पराधीन और जर्जरित भारत को गहराई तक झकझोर दिया।उन्होंने 1875 में आर्यसमाज की मुम्बई में स्थापना की।दयानंद सरस्वती ने एकेश्वरवाद की स्थापना,त्रैतवाद (ईश्वर, जीव, प्रकृति) का पुनर्मण्डन,वेदों का पुनरुद्धार,संस्कृत वाङ्मय का प्रचार प्रसार,हिन्दी भाषा में वेदों का भाष्य,सत्यार्थ प्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों की रचना,सर्वशिक्षा का अभियान, बालिका शिक्षा का आग्रह,नारी सशक्तिकरण, महिलाओं,शूद्रों सहित सबको वेदाधिकार,दलितोद्धार,दलितों एवं स्त्रियों को उपनयन (पढ़ने)का अधिकार,विधवा विवाह को समर्थन,अंतर्जातीय विवाह पर बल,स्वराज्य एवं स्वातन्त्र्य का प्रथम उद्घोष,शास्त्रार्थ की परम्परा की पुनर्स्थापना,गुरुकुलों की स्थापना,भूत-प्रेतादि का मानसिक रोगों में समावेश,सोलह संस्कारों पुनर्प्रतिष्ठा,ब्राह्मणेतर विद्वानों को पौरोहित्य का अधिकार,फलित ज्योतिष एवं हस्तरेखा का खण्डन,सत्य एवं उपयोगी परम्पराओं का समर्थन,मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से असहमति,आधुनिक यंत्रों के उपयोग का समर्थन,स्वतंत्रता के लिए विदेश में समर्थन जुटाने हेतु श्यामजी कृष्ण वर्मा को इंग्लैड भेजना,मुस्लिम एवं ईसाइयों का शुद्धिकरण,गुण-कर्म-स्वभाव आधारित नई वर्णव्यवस्था का समर्थन,असंख्य क्रान्तिकारियों,समाजसुधारकों को प्रेरणा,विदेशी मत-मतान्तरों का पुनरीक्षण,धर्म में तर्क और विज्ञान की सोच,हिंदी भाषा का समर्थन तथा स्वदेशी आन्दोलन और गोरक्षा हेतु प्रथम गौशाला की स्थापना इत्यादि महत्वपूर्ण कार्य किया है। वेद के गलत अर्थों की हानि देखकर उन्होंने वेद के वास्तविक भाष्य को दुनिया के सामने रखा और लिंगभेद और जातिभेद से उठकर “वेद पढ़ने का अधिकार सबको है” की घोषणा की।धार्मिक अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों आदि पर जमकर प्रहार किया। स्त्री शिक्षा जो उस समय की सबसे बड़ी जरूरत थी, उसकी उन्होंने सबसे बड़ी वकालत की और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को उंच-नीच के भेद-भाव के चलते अलग-थलग कर दिया था, उसको उन्होंने समाज की मुख्य धारा के साथ लाने के लिए छुआ-छूत और ऊँचनीच को समाज की सबसे बड़ी बुराई बताते हुए उनके जीवन स्तर को उठाने तथा शिक्षा के लिए कार्य करने का आह्वान किया। देश में स्वदेशी वस्त्र पहनने और कारखाने लगाने के प्रबल पक्ष लिया। उन्होंने अनेक देशी राजाओं के साथ वार्तालाप कर उन्हें स्वदेशी के लिए प्रेरित किया।
दयानंद के जीवन की विशेष पहचान ब्रह्मचर्य का बल तथा सत्यवादिता का गुण था।अंग्रेज अफसर द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की उन्नति की कामना की प्रार्थना करने पर दयानंद का यह कहना कि मैं तो हमेशा ब्रिटिश साम्राज्य के शीघ्र समाप्ति की कामना किया करता हूं। यह उनकी निर्भीकता को दिखाता है।1857 के क्रान्ति से आप निरंतर देश को आजाद कराने के लिए प्रयत्नशील रहे और अपने शिष्यों को प्रेरणा देते रहे।परिणामस्वरूप श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय सरीखे महान बलिदानियों की एक लम्बी श्रृंखला तैयार हुई। दयानंद सरस्वती का प्रभाव हम 21वीं सदी में भी अनुभव कर रहे हैं और उनसे प्रेरणा पाकर उन सामाजिक कुरीतियों व धार्मिक अंधविश्वासों से लोहा ले रहे हैं जो दीमक बनकर समाज व धर्म को भीतर ही भीतर खोखला कर रही हैं। सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक जगत की व्याधियों, दुर्बलताओं तथा त्रुटियों का तलस्पर्श अध्ययन ऋषिवर ने किया था।अत: रोग के अनुसार ही उन्होंने उपचार किया। समग्र क्रांति के पुरोधा के रूप में ऋषिवर ने व्यक्ति और समाज के सर्वांगीण विकास तथा कायाकल्प के लिए जो आदर्श जीवन मार्ग दिखाया वह वस्तुत: विश्व इतिहास की अनमोल निधि के रूप में शताब्दियों तक देखा जाएगा।
महर्षि दयानन्द का चिंतन मूलत: वेद पर आधारित था जो अपने उद्भव काल से ही स्वप्रमाणित, चिरंतन और शाश्वत हैं। विज्ञान और तकनीक चाहे जितनी उन्नति कर ले मनुष्य की धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की भाव-भूमि वही रहेगी जो अनादिकाल से चली आ रही है और अनंत काल तक चलती रहेगी। जीवन के इस क्रम, सत्य, तथ्य व लक्ष्य को न विज्ञान बदल सकता है और न ही तकनीक। अतः महर्षि दयानन्द का दर्शन हर युग के मानव को दिशा-बोध प्रदान करता रहेगा और दयानंद सरस्वती हर युग में प्रासंगिक बने रहेंगे। आज सर्वत्र भ्रष्टाचार,व्यभिचार, नशाखोरी, आतंकवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, प्रदूषण, हिंसा, अपराधवृत्ति, शोषण, अन्याय, अज्ञान और अभाव का बोलबाला है। हर समाज व राष्ट्र इन सभी दोषों से आहत एवं व्याकुल है। इनके निराकरण के लिए महर्षि दयानन्द ने वेद, योग, यज्ञ, आयुर्वेद, इतिहास, संस्कृति, संस्कारों आदि के प्रति आस्था-भाव जगाकर ऋषिकृत परम्पराओं को पुनजीर्वित करने का प्रयास किया था जिन परम्पराओं ने अतीत में भारत को विश्वगुरु के पद पर स्थापित एवं प्रतिष्ठित कराया था। वस्तुत: उनका आंदोलन भारतीय पुनर्जागरण का आंदोलन न होकर समस्त मानव जाति को संस्कारित एवं प्रेरित करने का आंदोलन था।
आधुनिक युग तुलनात्मक अध्ययन का युग है। तर्क और विज्ञान की कसौटियों में लोगों का विश्वास पहले से अधिक बढ़ा है। अत: महर्षि दयानन्द के जीवन-दर्शन के फलने-फूलने के लिए यह सर्वोत्तम समय है। बहुत कम लोग जानते हैं कि ऋषि दयानंद ने दिल्ली दरबार के अवसर पर सभी सम्प्रदायों के आचार्यों को आमंत्रित करके एक ऐसी मानव आचार संहिता तैयार करने का आह्वान किया था जो सर्वानुमोदित हो।आधुनिक विश्व आज इसी ओर बढ़ रहा है। महर्षि दयानंद ने जो प्रयोग 150 वर्ष पूर्व किये थे।शनै:-शनै: उनके प्रयोग समय की कसौटी पर आज खरे उतर रहे हैं और विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त कर रहे हैं।आज आप द्वारा बनाए गए आर्यसमाज की शिक्षा के क्षेत्र में, सामाजिक कार्यों में स्वास्थ्य सेवा में, महिला उत्थान में, युवा निर्माण में, एवं राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियों के काम में सहभागिता प्रशंसनीय हैं। विश्व के तीस देशों और देश के सभी राज्यों में हजारों सशक्त सेवा इकाइयों के साथ आर्य समाज मनुष्य और समाजहित में निस्वार्थ भाव से समर्पित हैं।
डॉ.हरीश सुवासिया
आर.ई.एस.
देवली कलां (ब्यावर)