बचपन के दिन भी क्या दिन थे, उड़ते फिरते तितली बन”… यह गीत तो हम सबने सुना ही है और खूब मन लगा कर गाते भी होंगे। कभी हमने सोचा है कि बचपन आखिर क्यों सबको इतना प्यारा होता है? हम क्यों अपने बचपन को छोड़ नहीं पाते? इसका जवाब होगा…..स्वतंत्रता, निश्चिंतता व अल्हड़पन, इन स्वभाव के साथ हम अपने बचपन को भरपूर जीते हैं लेकिन आज के भागदौड़ और आधुनिक युग में अगर कोई सबसे ज्यादा पीस रहा है तो वे हैं बच्चे। अब बच्चों का बचपन 15-16 की आयु से सिमट कर 2-4 वर्षों का ही रह गया है। होता यह है कि बच्चों के आने से पहले ही माता-पिता उसके भविष्य की योजना बनाने लगते हैं जिसमें बच्चों का मासूम बचपन ही कहीं खो जाता है। दो-तीन वर्ष की उम्र से ही बच्चों पर पढ़ाई का बोझ लाद दिया जाता है। उन पर मिलट्री रूल लागू कर दिये जाते हैं, कब उठना है, कब खेलना है, कहां खेलना है, कब खाना है और कब सोना है। पहले संयुक्त परिवार होता था जहां दादी-नानी जब सोने लगते थे तो अपने पास बच्चों को लिटा कर कहानियां सुनाया करते थे, राजाओं की, परियों की, महाभारत, रामायण की। कभी-कभी बुजुर्गों द्वारा पहेलियां भी बुझाई जाती थीं, इससे बच्चों को बहुत कुछ सीखने मिलता था। मिलकर काम करना, साथ बनाये रखना, एक दूसरे की मदद करना, सभी का सम्मान करना, मिल बांट कर खाना, अभाव में भी संतुष्ट होना आदि ऐसे स्वभावित गुण हैं जो संयुक्त परिवार में बचपन से ही विकसित होने लगते हैं। फिर संयुक्त परिवार खत्म हो गए, एकल परिवार हो गया जहां बच्चों के कमरे भी अलग हो गए। माता-पिता के पास समय ही नहीं होता बच्चों के लिये। इससे बच्चा घर की चार दीवारी से बाहर नहीं निकल पाता और वो बहारी दुनिया को समझ ही नहीं पाता।
दिखावे व बराबरी की भावना से ग्रस्त अभिभावक हैसियत न होते हुये भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की बजाय निजी स्कूल में डालते हैं। जबकि सरकारी स्कूल किफायती होते हैं और वे बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम आवश्यक बुनियादी ढांचा प्रदान करते हैं। सरकारी स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ, उनके शारीरिक विकास का भी ध्यान दिया जाता है और उन्हें खुद से सब काम करने के लिए कहा जाता है। जैसे, क्लास रूम की सफाई करना, अगर बाग बगीचे हैं तो उनकी साफ सफाई और देखरेख करना, क्लास को सजाना, चीजें ठीक करना आदि। सरकारी स्कूलों में पीटी की कक्षा भी होती है, जिसमें बच्चों को शारीरिक कसरत वगैरा कराए जाते हैं। मेरी भी पढ़ाई पांचवी तक सरकारी स्कूल में हुई है फिर आगे की पढ़ाई निजी स्कूल में, इसलिये मैंने दोनों स्कूलों में बच्चों पर होने वाले मानसिक दबाव को अनुभव किया है। सरकारी स्कूल में तो फिर भी बच्चा बहुत कुछ सीख जाता है, जहां पर एक समान व्यवहार होता है। निजी स्कूल निम्न आर्थिक समूह के छात्रों का दाखिला ही नहीं करते। सरकारी स्कूलों में सांस्कृतिक कार्यक्रम बच्चों द्वारा तैयार किये जाते थे, इस तरह से उनका साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में स्वतः ही विकास होता रहता था। जबकि निजी स्कूलों में यह संभव नहीं है वहां पर सिर्फ पढ़ाई कराए जाते हैं, बच्चों को ऐसे प्रोजेक्ट बनाने पड़ते हैं जिनमें खर्च बहुत आता है, मंहगी फीस होती है जिसकी वजह से माता-पिता का भी दबाव बच्चों पर बहुत होता है कि पढ़ना है और अच्छे मार्क्स लाने हैं। इंजीनियर, डॉक्टर बनने पर जोर दिया जाता है, अब माता-पिता अपनी इच्छा बच्चों पर लादने लगे हैं और उन पर जबरन संगीतकार, डॉक्टर, अभिनेता, वैज्ञानिक, इंजीनियर बनने के लिए दबाव डालते है। बच्चा समझ ही नहीं पता है कि क्या करना है और कैसे करना है। ऐसे में बच्चे गलत दिशा पकड़ लेते हैं और इंटरनेट के जाल में उलझ जाते हैं। बेचारे बच्चे, समझ तो कुछ पाते नहीं, बस डरे सहमे से रहने लगते हैं या विद्रोही बनने लगते हैं। स्कूल में शिक्षकों का और घर पर माता-पिता का डर उन्हें प्राकृतिक रूप से पनपने ही नहीं देता। वे बजाय सामान्य तरीके से जीने के विशेष बना दिये जाते हैं जिससे उनका मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक विकास तीनों ही प्रभावित होता है। बच्चा कंफ्यूज रहता है और इसलिए उसे जो मां-बाप कहते हैं वह वही करता है और अंत में ऐसा होता है कि उसकी इच्छा ना होते हुये भी उसे वह पढ़ाई करनी पड़ती है।
अब बच्चों को रामायण, महाभारत , राजाओं और परियों की कहानियां कोई नहीं सुनाता है। मेले में बच्चे अब खिलौने की जिद भी नहीं करते, क्योंकि उन्हें मंहगे से मंहगे खिलौने पहले ही मिल जाते हैं। अब तो माता-पिता बच्चों को शांत करने के लिए वीडियो गेम या मोबाइल थमा देते है। आज की व्यस्त दुनिया में बच्चे दोस्तों के साथ पार्क में खेलने की बजाय वीडिओ गेम, कंप्यूटर, मोबाइल के साथ खेल रहे है। अब त्योहारों के मौके पर भी ऐसा लगता है कि बच्चों को साथ में तीज-त्योहार मनाने, दोस्तों के साथ पतंगबाजी, साथ बैठकर भोजन करने और मिलकर गपशप करने की तो फुर्सत ही नहीं है। उनके कंधों पर ऐसा भारी-भरकम बस्ता लाद दिया गया है कि उनका बचपन मायूस होकर मानो कहीं गुम-सा हो गया है।देखने में आता है कि निजी स्कूलों में रचनात्मकता की दृष्टि से भी बच्चे कमजोर पड़ जाते हैं, हर बात पर उन्हें इंटरनेट पर निर्भर रहना सीखा दिया जाता है। अब दुनिया एक स्क्रीन और अंगुली तक सीमित है। किसी से कोई मतलब नहीं। सोशल मीडिया पर फोटो डालने की होड़ सी मची है। सभी के बीच रहकर भी बच्चा खुद को नितांत अकेला महसूस करता है। अधिकतर बच्चे असफल होकर मन मे कुंठा पाल लेते हैं और डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। इस तरह से बच्चों में और माता-पिता के बीच तनाव पनपने लगता है। निजी स्कूलों मेंम उन्हें व्यावहारिक शिक्षा नहीं दी जाती, जिसके कारण जीवन में उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह सिर्फ पैसों को महत्व देने लगते हैं और पैसों के ही पीछे भागते भागते उनका पूरा जीवन गुजर जाता है।
निजी स्कूल में लगने वाले मोटी फीस व अन्य खर्चे, विविधता की संभावित कमी और अन्य चुनौतियाँ ऐसे कारक हैं, जो बच्चों के सर्वभौमिक विकास में बाधक हैं। हालांकि, अपने बच्चे के लिए सही शैक्षिक संस्थान का चुनाव व्यक्तिगत निर्णय है, फिर भी इन विकल्पों की खोज करके, माता-पिता यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके बच्चे की शिक्षा, उनकी सीखने की शैली, मूल्यों और लक्ष्यों के अनुरूप हो। अच्छा विकल्प प्रत्येक परिवार और छात्र की विशिष्ट आवश्यकताओं, मूल्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।अभिभावकों को चाहिये कि वे बच्चों को सामान्य तरीके से विकसित होने दें, बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास भी जरूरी है, उन्हें मिट्टी से जोड़े रखें, नैतिक मूल्यों की कसौटी पर कसें, जो कि सरकारी स्कूलों में संभव है। निजी स्कूलों की प्रतिस्पर्धाओं में उलझ कर बच्चों का बचपन खोता जाता है। यह धीरे-धीरे आपके बच्चों का बचपन खा जाता है और उन्हें मानसिक व शारीरिक रूप से कमजोर करता जाता है। इसलिये दिखावे के चक्कर में न पड़कर सही निर्णय ले ताकि आपके बच्चों का भविष्य सुनिश्चित हो और वे मजबूत बने।
लेखिका आशा गुप्ता आशु, पोर्ट ब्लेयर, अंडमान साहित्य सरोज लेखन प्र0