अपनी नई पोस्टिंग से सुजीत बहुत ही खुश थे। शहर का नाम सुनते ही उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। सोने पर सुहागा हो गया जब उन्होंने जाकर देखा कि पुलिस स्टेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट के बगल में ही था। नौकरी लग जाने के कारण वह अधिक पढ़ाई नहीं कर पाए थे लेकिन हमेशा से ही उनका सपना रहा था रिसर्च इंस्टीट्यूट में जाना। बेटे रोहन की परीक्षाएं अभी खत्म नहीं हुई थी इसलिए उनकी पत्नी सीमा पुराने शहर में ही रुक गई। उन्हे अकेले ही नए शहर में जाना पड़ा। ड्यूटी पर उनका दूसरा ही दिन था कि रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक छात्र ने पुलिस स्टेशन आकर एफआईआर दर्ज कराई।उसका आरोप था कि उसके गाइड ने उसके रिसर्च पेपर को अपने नाम से एक इंटरनेशनल जर्नल में प्रकाशित करवा लिया है। सुजीत को बहुत आश्चर्य हुआ यह जानकर कि कोई शिष्य भी अपने गुरु पर एफआईआर कर सकता है। उनके सामने इस तरह का यह पहला ही केस था। रिसर्च इंस्टीट्यूट की जो छवि उनके मन में बनी थी उसे भी धक्का लगा। रिसर्च इंस्टीट्यूट का ऐसा चेहरा भी हो सकता है सुजीत के लिए विश्वास करना मुश्किल हो रहा था। आए हुए भी कम ही समय हुआ था इसलिए व्यस्तता भी अधिक थी। उस दिन कोई कार्यवाही नहीं हो पाई। घर पहुंचकर खाना भी नहीं खाया था कि दरवाज़े की घंटी बजी। थोड़ा गुस्सा भी आया क्योंकि भूख लगी थी। जैसे तैसे थोड़ा बहुत बना पाए थे। फिर भी कदम दरवाज़े की ओर बढ़ गए। दरवाज़ा खोला तो एक सज्जन सामने खड़े थे। सुजीत के कहने से पहले ही वो अंदर कमरे में आ गए। काफ़ी परेशान लग रहे थे। सुजीत ने उन्हें कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और आने का कारण पूछने ही वाला था कि उन्होंने बोलना शुरू कर दिया।
“आप मुझे नहीं जानते हैं, इंस्पेक्टर साहब। मेरा नाम श्रीराम शंकर है। मैं रिसर्च इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर हूं। आज़ मेरे ही एक छात्र ने मेरे विरुद्ध थाने में एफआईआर दर्ज करवाई है। अब सुजीत को उनके आने का कारण समझ में आ गया। उसने उन्हे समझाने की कोशिश करते हुए कहा।”आपने बेकार ही तकलीफ़ की सर। यदि आपके उपर गलत आरोप लगाया गया है तो कोई भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। बस थोड़ा धैर्य रखिए।” प्रोफेसर साहेब काफ़ी असहज लग रहे थे। कुर्सी से उठे और एक लिफाफा सुजीत की ओर बढ़ाते हुए बोले।”आप मेरी बात का विश्वास कीजिए इंस्पेक्टर साहब। यह एफआईआर झूठी है। मैं एकदम निर्दोष हूं। कल वो पेपर आपके पास भिजवा दूंगा जिसमें पांच लोगों के हस्ताक्षर हैं। पांच लोगों ने मिलकर उस रिसर्च पेपर को लिखा है। लिखने का काम अमरदीप ने किया है। मैंने और मेरे तीन विद्यार्थियों ने रिसर्च करके लिखने लायक सामग्री एकत्र की है।” सुजीत को उनकी बात समझ में आ रही थी लेकिन थाने की रिपोर्ट घर पर कैसे सुलझा सकते थे ? उन्होंने प्रोफेसर साहेब से प्रश्न किया।”सर अगर आप सही हैं, तो मैं आश्वासन दे चुका हूं। आपको कुछ नहीं होगा। फिर इस लिफाफे की क्या ज़रूरत है ?” प्रोफेसर साहेब का चेहरा उतर गया। रुआंसे होकर बोले। “मेरी बहुत इज्ज़त है। सुजीत साहेब मेरे विरुद्ध आपका एक भी कदम सालों की मेहनत से कमाई इज्ज़त पर पानी फेर सकता है। आप अभी शहर में आए हैं। पता नहीं ऊंट किस करवट बैठे ? ख़ुद को भरोसा दिलाने के लिए यह लिफ़ाफा आपको दे रहा हूं।”
सुजीत लिफ़ाफा नहीं लेना चाहते थे। लेकिन प्रोफेसर साहेब ज़िद पर अड़े थे।”मेरी महीने की आधी तनख्वाह इस लिफ़ाफे में है। कोई छोटी रकम नहीं है।” उनकी मानसिक स्थिति को समझते हुए सुजीत ने उस समय लिफ़ाफा उनके हाथ से ले लिया और आश्वासन देकर उन्हें विदा कर दिया। अगले दिन थाने में पहुंचते ही प्रोफेसर श्रीराम शंकर की एफआईआर ध्यान से पढ़ी। उसके साथ एक पेपर भी लगा था जिस पर पांच लोगों ने हस्ताक्षर किए हुए थे। ड्यूटी पर तैनात सिपाही ने बताया कि कुछ देर पहले रिसर्च इंस्टीट्यूट का एक छात्र उस पेपर को देकर गया था। सुजीत ने तुरंत फोन करके एफआईआर लिखाने वाले छात्र को बुलाया। उस पेपर को देखकर वह चौंक गया। लगभग डरा हुआ प्रतीत होता था। कुछ देर चुपचाप बैठा रहा। जवाब नहीं देना चाहता था। बहुत दबाव देने पर बताया कि प्रोफेसर साहेब के विभाग के एक वैज्ञानिक के कहने पर उसने ऐसा किया था। बिना कहे उसने तुरंत ही एफआईआर वापिस ले ली। छात्र चला गया तो सुजीत ने फ़ोन करके प्रोफेसर साहेब को बताया। लिफ़ाफे पर उनका नंबर लिखा हुआ था। उसने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा।
“सर, शाम को मेरे क्वार्टर पर आइए आप। एक कप चाय साथ में पियेंगे।”
शाम को प्रोफेसर साहेब सुजीत के घर आ गए। उन्होंने तसल्ली से चाय पी और सुजीत को धन्यवाद दिया। जैसे ही वो जाने के लिए उठे सुजीत ने वह लिफ़ाफा उनके हाथ में रख दिया। प्रोफेसर साहेब परेशान होकर बोले। ,” काम नहीं हुआ इंस्पेक्टर साहेब ?” सुजीत ज़ोर से हंस पड़े। “आपके उपर अब कोई केस नहीं है, प्रोफेसर साहेब।” प्रोफेसर साहेब हैरान होकर बोले।
“फिर आप लिफ़ाफा क्यों लौटा रहे हैं? पूरा एक लाख रुपया है इसमें।” सुजीत ने विनम्रता से कहा। “इसीलिए लौटा रहा हूं, सर। आपके विरोधियों ने आपको फंसाने के लिए यह चाल चली थी। आप निर्दोष हैं। यह आपकी तनख्वाह का पैसा है। आपकी मेहनत की कमाई है। उस दिन आपको तसल्ली देने के लिए यह लिफ़ाफा मैंने अपने पास रख लिया था।” प्रोफेसर साहेब ने सुजीत के आगे हाथ जोड़ लिए। सुजीत ने आगे कहा। “मैं जानता था कि आपको मुझ पर विश्वास नहीं था लेकिन इन रुपयों पर था। आपका विश्वास तोड़ना नहीं चाहता था।” सुजीत की बातें सुनकर प्रोफेसर साहेब की आंखों से आंसू छलक पड़े। उन्होंने भरे गले से कहा।”तुम हिंदुस्तान के नहीं लगते हो, सुजीत। पहली बार ऐसे पुलिस वाले से मिला हूं जो लाख रूपए लौटा रहा है। बहुत तरक्की करोगे। इस मुल्क में तुम्हारे जैसे अधिकारियों की ही ज़रूरत है।” सुजीत उनकी बात पर हंसे जा रहे थे।
अर्चना त्यागी
मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश