बचपन मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय है। बचपन हर प्रकार की चिंता से कोसों दूर होता है। यह वह समय है, जब एक बालक या बालिका अपना जीवन बिना किसी छल-कपट, राग-द्वेष, ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा सहित अन्य विरोधी भावनाओं से परे रहकर व्यतीत करता या करती है। बचपन एक व्यक्ति के समाजीकरण की शुरुआत का समय भी होता है। बच्चा अपने परिवार से सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है। उसकी पारिवारिक जीवन में बनी अनेक धारणाएं, सामाजिक जीवन से विरोधाभास में होती हैं या दूसरे स्वरूप में होती हैं। इससे बच्चों में कभी-कभी भ्रम, विरोधाभास या विद्रोह जैसी भावनाएं पनपती हैं। बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि बचपन पूरी तरह से मनुष्य की सहज, स्वाभाविक तथा पूर्ण प्राकृतिक अवस्था है, जो पूरी तरह से भविष्य की चिंता से मुक्त होकर तथा भूतकाल के व्यवहार से अप्रभावित रहकर वर्तमान में ही जीना सिखाता है।
जिस प्रकार समय परिवर्तनशील है, उसी प्रकार आज बचपन की अवधारणा में भी बहुत परिवर्तन आया है। आज का समाज डिजिटल समाज है। समाज में रिश्ते-नातां तथा पारिवारिक सम्बन्धों का स्थान इलेक्ट्रॉनिक गैजेट जैसे मोबाइल, टी0वी0, सिनेमा, विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने ले लिया है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब समाज में इन डिजिटल उपकरणों का या तो अभाव था या उनकी उपलब्धता बहुत सीमित थी। इसके साथ ही, पारिवारिक व सामाजिक ताना-बाना भी हाल के वर्षों में बहुत हद तक परिवर्तित हो गया है। परिवार संयुक्त से एकल होते जा रहे हैं। समाज में लोग अब अपनी कृत्रिम और आभासी दुनिया में व्यस्त होने का नाटक करते देखे जा सकते हैं। ऐसे में इन परिवर्तनों का सर्वाधिक दुष्प्रभाव हमारे बचपन पर पड़ा है।
हमारे भावी कर्णधार, जिन पर आने वाले समय में देश, राज्य तथा समाज की बागडोर सम्भालने की जिम्मेदारी होगी, वह आज के समय में अपने बचपन में ही विरोधी भावनाओं तथा दूसरों और अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं। इस मजबूरी को बढ़ाने में कहीं ना कहीं अभिभावकों की महत्वाकांक्षा ने भी बड़ी भूमिका का निर्वहन किया है। आधुनिक संचार माध्यमों ने पूरी दुनिया को छोटे से मोबाइल में समेट दिया है। अब विश्व के सुदूर हिस्से में घट रही कोई घटना रियल टाइम में हमारे पास स्क्रीन पर मौजूद है। टी0वी0, सिनेमा, प्रिंट मीडिया सहित अनेक मंचों पर बच्चे अपना हुनर प्रदर्शित करते हैं, जिसे लाखां-करोड़ों लोग देखते हैं और अपने-अपने अनुसार इससे प्रोत्साहित भी होते हैं। अभिभावक भी इससे अछूते नहीं हैं। आज बच्चे तरह-तरह के रियलिटी शोज में अपनी अलग-अलग प्रस्तुतियां करते हैं, जिन्हें अन्य बच्चों के अभिभावक भी देखते हैं और वैसा ही करने के लिए अपने बच्चों पर दबाव डालते हैं। यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति अपने जीवन में जो परिणाम या सफलता हासिल नहीं कर पाता है, उसे येन-केन-प्रकारेण अपने बच्चों पर पूरा करने के लिए थोपता है। बच्चा और उसका बचपन अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने का माध्यम बन जाता है।
पूरी दुनिया में श्रेष्ठ बनने और अपने बच्चों को श्रेष्ठ बनाने की अन्धी दौड़ चल रही है। दूसरों के बच्चों की सफलता को देखकर अभिभावक अपने बच्चों पर भी ऐसा ही करने का दबाव डालते हैं। नतीजा बच्चों में तुलना करने और प्रतिस्पर्धा में आगे रहने का दबाव बनता है। बालमन इस दबाव को झेलने में नितान्त असमर्थ होता है। इसका परिणाम बच्चों में मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में सामने आता है। बच्चे बचपन में ही अवसाद तथा कुंठा के शिकार बन जाते हैं। उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है। ऐसा हाल के दिनों में राजस्थान के कोटा में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने गए छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं से समझा जा सकता है।
अभिभावकों द्वारा हर हाल में अपने बच्चों से अव्वल आने की चाह बच्चों को असमय तनावग्रस्त कर रही है। डिजिटल डिवाइस यथा मोबाइल तथा अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी दिग्भ्रमित करने वाली सूचनाओं से भरे पड़े हैं। यह बच्चों को अधकचरा ज्ञान परोस रहे हैं, जिससे वे बेहद दुविधा और दबाव में हैं। जिस उम्र में बच्चों को संस्कारवान बनाया जाना चाहिए, उन्हें अपनी अच्छी परम्पराओं की जानकारी दी जानी चाहिए, बच्चों में अच्छी व स्वस्थ आदतों का विकास किया जाना चाहिए, उसी बचपन में बच्चा दबाव ग्रस्त हो जाता है। इसका परिणाम परिवार व समाज के लिए अत्यन्त भयावह होता है। अक्सर अभिभावक व समाज बच्चों की दुविधायुक्त मनोदशा को समझ भी नहीं पाते और अपना दबाव बनाकर बच्चों से अच्छे प्रदर्शन की झूठी उम्मीदें पाले रहते हैं।
बचपन से अत्यधिक अपेक्षाओं ने बच्चों का आत्मविश्वास तोड़ दिया है। अव्वल आने की चाह बचपन को नैसर्गिक रूप से विकसित नहीं होने दे रही है। बच्चों में कृत्रिमता भर गई है। अब बच्चे मिट्टी से खेलने में डरते हैं। उन्हें यह बताया जाता है कि मिट्टी में गन्दगी होती है। मिट्टी के खिलौनों का स्थान वीडियो तथा मोबाइल गेम्स ने ले लिया है। अब बच्चे सामूहिकता तथा सामाजिकता सीखें कैसे, जब अभिभावकों ने उन्हें अपने ही समाज में एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया है। निःसन्देह यह सकते हैं कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षा में बचपन खो गया है। इसमें समाज में आधुनिक युग के अन्धाधुंध विकास की भी बड़ी भूमिका है।
हमें यह समझने की जरूरत है कि हर बच्चे की अपनी अपनी क्षमताएं, रुचियां, सोच प्रवत्ति तथा संस्कार होते हैं। बच्चे अपनी स्वाभाविक रुचि से आगे बढ़ेंगे, तो सहज व स्वभाविक जीवन जी पाएंगे और राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाएंगे। उन पर कोई भी प्रतिस्पर्धा थोपी नहीं जानी चाहिए। उन्हें जीवन की चुनौतियों का सामना करने योग्य बनाना अभिभावकों तथा समाज की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। डिजिटलीकरण, सोशल मीडिया और विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज के युग में आज चुनौती बच्चों पर बने दबावों को दूर करने की है।
आज बच्चे पैदा ही इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के बीच में हो रहे हैं। यह आधुनिक युग की सच्चाई है। ऐसे में बच्चों से इनसे दूर रहने की उम्मीद करना गलत है, परन्तु यदि थोड़ी सावधानी के साथ बच्चों की रुचियां का पता लगाकर उन्हें विकास के अवसर प्रदान किए जाएं, तो वे स्वस्थ मन, मस्तिष्क तथा शरीर से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकेंगे। भोगवादी संस्कृति से अलग बच्चों को प्रकृति के बीच जीवन जीने के अवसर देने चाहिए। उन्हें संस्कारवान बनाना हमारी जिम्मेदारी है। बच्चों को हमारे प्यार, दुलार तथा देखभाल की आवश्यकता है। बचपन अभिभावकों की इच्छापूर्ति का साधन नहीं है, बल्कि उनका अपना स्वयं का स्वतंत्र अस्तित्व है। हरेक बच्चा विशिष्ट है और सभी बच्चों की क्षमताओं के अनुसार उन्हें विकास के अवसर उपलब्ध कराकर ही हम उनके साथ न्याय कर सकते हैं।
प्रदीप कुमार गुप्ता
साहित्य सरोज लेखन प्रि