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भारतीय संस्कृति -हिंदी सिनेमा, बाजारवाद और नारी

नारी हमारे घर, परिवार, समाज, देश व दुनियां की वह धुरी है जिसके बगैर इस सृष्टि की कल्पना करना ही संभव नहीं है। ब्रह्मा जी अवश्य इस सृष्टि के रचयिता हैं किन्तु उनके लिए भी नारी के बिना इस सृष्टि की रचना कर पाना असंभव ही था। एक नारी ही है जिसे प्रकृति ने इतना सक्षम व सशक्त बनाया है कि वह नौ महीने तक अपने भीतर एक जीव को संपूर्ण आकृति देती है तथा उसका सृजन करती है। सृजनात्मकता की यह प्रक्रिया इतनी सहज व सरल नहीं होती है, उसे नाना प्रकार की पीड़ा, कष्ट व वेदनाओं से हो कर गुजरना पड़ता है, जो नारी की सहनशीलता का प्रतीक है। नारी की सहनशीलता, सृजनात्मकता ही उसे इस धरा पर विशिष्ट होने का मान देती है। 
भारतीय संस्कृति –   हमारी भारतीय संस्कृति में नारी क‌ई रूप में पूजनीय है, वंदनीय है। नारी ही नारायणी व आदिशक्ती का स्वरूप है। ऐसा माना जाता है कि-      “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्तें तत्र देवता:”  प्राचीन काल से ही हमारी भारतीय सभ्यता व संस्कृति इतनी समृद्ध व विकसित रही है कि हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी को उनकी माता के नाम से कौशल्या नंदन कह कर पुकारते हैं, श्री कृष्ण जी को देवकीनंदन, गणपति जी को गौरीनंदन, श्री हनुमान जी को अंजनी पुत्र के नाम से जाना जाता है। इतना ही नहीं हमारे भारत की गौरवशाली संस्कृति व सभ्यता यह भी प्रमाणित करती है कि नर से पूर्व नारी का स्थान हमारे समाज में आदि काल से रहा है जैसे राधा-कृष्ण, गौरी-शंकर, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण। 

युग युगांतर से एक मात्र नारी ही‌ है जो हमारी भारतीय सभ्यता व संस्कृति की वाहक रही है किंतु आज के आधुनिक युग में हमारी भारतीय संस्कृति व सभ्यता, जो संपूर्ण विश्व में हमारी शान, मान व पहचान है, चरमराती, डगमगाती व क्षीण होती दिखाई पड़ रही है। इन सब के पीछे क‌ई छोटे बड़े कारक है जो विचारणीय है। ऐसा नहीं कि आज की तथाकथित आधुनिक, सबला एवं सशक्त नारी उन कारकों से अनजान हैं। वह भी उन कारकों को जानती हैं और उनसे समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभाव से भी भलीभांति अवगत है किन्तु स्वयं को आधुनिक व नारीवाद की पक्षधर सिद्ध करने हेतु नयन मीचे, मौन धारण किए हुए हैं और आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो कर अपनी सभ्यता व संस्कृति से दूर होती जा रहीं हैं। 
भारतीय हिन्दी सिनेमा और नारी – भारतीय हिन्दी सिनेमा के माध्यम से नारी की छवि के संग खिलवाड़ किया जा रहा है। उन्हें अर्धनग्न व खुलेपन के साथ हम सभी के समक्ष अत्यंत अशोभनीय  व अश्लीलता के साथ परोसा जा रहा है। नारी की अस्मिता व गरिमा को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है जिससे नारी की छवि तो धूमिल हो ही रही है, उसके अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह उठ खड़े हुए है। केवल इतना ही नहीं आधुनिकता की आड़ में स्त्री को उपभोग एवं विलासिता की वस्तु समझ कर रजतपटल पर उसकी नुमाइश की जा रही है। ” 1980 के दशक में हिंदी सिनेमा पाश्चात्य के प्रभाव में आने लगा जिससे नग्नवाद की ओर मुड़ा।”  यह वह दौर था जब भारतीय हिन्दी सिनेमा में नारीवाद के नाम पर नायिका के किरदार में बहुत बड़ा बदलाव दिखाई देने लगा। ऐसे पटकथा लिखे जाने लगे जिसमें नायिका के किरदार को अत्यधिक आकर्षक, स्वछंद और भारतीय मूल्यों को नकार कर उस पर प्रश्न चिन्ह उठाते हुए दर्शाया जाने लगा। नायिका को नारी मुक्ति व नारीवाद का जामा पहना कर नारी की ही छवि व भारतीय संस्कृति व सभ्यता पर प्रहार का सिलसिला चल पड़ा, जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा है बल्कि समय के साथ यह बढ़ता ही चला जा रहा है।  
   “अगर नग्नवाद की बात करें, स्त्री सबलीकरण एवं संस्कृति की बात करें तों वह भी पाश्चात्य अनुकरण के चपेट में आ ग‌ई।”    भारतीय हिन्दी सिनेमा में नारीवाद, नारी मुक्ति, नारी अधिकार जैसे बड़े बड़े शब्दों को आधार बनाकर अभिनय की आड़ में नारी देह प्रदर्शन का विषय अत्यंत ही चिंतनीय है। जिस्म, मर्डर, हेट स्टोरी वन, टू, थ्री ,ऐ दिल है मुश्किल जैसे क‌ई अन्य फिल्मों ने नारी समाज संस्कृति की हदें ही लांघ दी तथा भारतीय संस्कृति व सभ्यता को तोड़कर चकनाचूर व धराशायी कर दिया है। इस तरह की हिंदी सिनेमा नारी को नारीवाद के नाम पर दिग्भ्रमित कर रही है और उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति से विमुख व दूर कर रही है।      नारी हमारे समाज की आधार होती है उनका भारतीय सभ्यता व संस्कृति के प्रति उदासीनता का सीधा असर हमारी संस्कृति व सभ्यता पर अब आंशिक रूप से दृष्टिगोचर भी होने लगा है और यही कारण है कि हमारी भारतीय संस्कृति व सभ्यता की जड़ें खोखली व कमजोर होने की ओर अग्रसर  है. 
बाजारवाद और नारी –    हमारे  इर्द-गिर्द बाजारवाद का ऐसा आकर्षक माया जाल फैला हुआ है जिसमें विज्ञापन के नाम पर अश्लीलता व नारी अंग प्रदर्शन की भरमार है. आधुनिकता की आड़  में नारी को कामुक मुद्राओं के साथ अब टेलीविजन के माध्यम से हमें हमारे घर पर ही पूरे परिवार के समक्ष नग्नता दिखाई जा रही है। ” चंद दिनों पहले ही मार्केट में परफ्यूम का एक विज्ञापन आया, जिसने क‌ई सवाल खड़े किए। ऐसी क्या वजह है कि विज्ञापन के केंद्र में रखकर महिलाओं की अश्लील छवि परोसी जाती है । हांलांकि दिल्ली महिला आयोग ने विज्ञापन पर आपत्ति जताई, जिसके बाद उसके प्रसारण पर रोक लगा दी गई।” लेकिन यहां पर सवाल ये उठता है कि क्यों नारी को केंद्र बनाकर इस तरह के अश्लील विज्ञापन बनाएं जा रहे हैं। हमारी भारतीय संस्कृति को तार-तार किया जा रहा है। जिस देश में नारी को देवी का स्वरूप माना जाता हैं ,उसी देश की भूमि में नारी देह पर बाजारवाद का साम्राज्य स्थापित किया जा रहा है। एक शोध के अनुसार विज्ञापनों की दुनिया आज के समय में अरबों रुपए की हो चली है। असल में बाजारवाद के इस दौर में विज्ञापन कंपनियां अपने उत्पाद की बिक्री बढ़ाने हेतु नारी का इस्तेमाल कर रही है। नारी कामुकता एवं अंग प्रदर्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है और अपने  इस कृत्य को सही ठहराने के लिए इस पर आधुनिकता एवं नारीवाद का भ्रम जाल फैलाया जा रहा है। विज्ञापनों के जरिए पुरूषों के बनियान व जांघिया पर मोहित होती स्त्री को प्रदर्शित किया जाना नग्नता व अश्लीलता की चरम सीमा है। ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि क्या हमारी युवा पीढ़ी या फिर आने वाली पीढ़ी नारी को सम्मान की दृष्टि से देख पाएंगी….!  सम्मान दे पाएगी….! क्या नग्न एवं अंगप्रदर्शित करती नारी पूजनीय समझीं जाएगी और क्या नारी को ऐसा समझना उचित होगा? ऐसे अनेक प्रश्न है जिनका उत्तर हमें हमारे अन्तर्मन से पूछना होगा।

कुछ प्रतिशत भारतीय महिलाएं नारीवाद, आधुनिकता एवं पाश्चात्य संस्कृति के मध्य जो सूक्ष्म रेखा है उससे अनभिज्ञ हैं अथवा अनभिज्ञता का अभिनय कर रही है। नारीवाद के अंतर्गत नारी मुक्ति, सशक्त नारी, स्वतंत्र अस्तित्व व स्वतंत्र विचार हर एक नारी का अधिकार है किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि स्त्रियां अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं मूल्यों को दरकिनार कर अपनी मानमर्यादा की सीमाओं को लांघ कर ही नारीवाद का परचम लहराए और उसे ही नारीवाद की संज्ञा दें। इसी तरह आधुनिकता का अर्थ पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करना बिल्कुल भी नहीं है।आधुनिकता विचारों में होना चाहिए ना कि केवल वस्त्रों के माध्यम से नारी स्वयं को आधुनिक दिखाने का प्रयास करें। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना आधुनिकता का मापदण्ड नहीं है यह मात्र फूहड़पन है। अब यह पूर्ण रूप से नारी पर ही निर्भर करता है कि वह स्वयं क्या चाहती है। आने वाली पीढ़ी के समक्ष वह अपनी कैसी छवि स्थापित करना चाहती है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता का निर्वाह एवं संचार करते हुए आज की नारी सही मायनों में स्वावलंबन, सशक्त व स्वतंत्र होना चाहती है या फिर आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति, नग्नता व अश्लीलता को अपना कर अपनी गौरवमयी सभ्यता से प्राप्त मान-सम्मान को मटियामेट करना चाहती है, उन्हें खोना चाहती है। अब यह सब नारी के स्वविवेक पर निर्भर करता है।
कुछ प्रतिशत भारतीय महिलाएं नारीवाद, आधुनिकता एवं पाश्चात्य संस्कृति के मध्य जो सूक्ष्म रेखा है उससे अनभिज्ञ हैं अथवा अनभिज्ञता का अभिनय कर रही है। नारीवाद के अंतर्गत नारी मुक्ति, सशक्त नारी, स्वतंत्र अस्तित्व व स्वतंत्र विचार हर एक नारी का अधिकार है किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि स्त्रियां अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं मूल्यों को दरकिनार कर अपनी मानमर्यादा की सीमाओं को लांघ कर ही नारीवाद का परचम लहराए और उसे ही नारीवाद की संज्ञा दें। इसी तरह आधुनिकता का अर्थ पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करना बिल्कुल भी नहीं है।आधुनिकता विचारों में होना चाहिए ना कि केवल वस्त्रों के माध्यम से नारी स्वयं को आधुनिक दिखाने का प्रयास करें। पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना आधुनिकता का मापदण्ड नहीं है यह मात्र फूहड़पन है। अब यह पूर्ण रूप से नारी पर ही निर्भर करता है कि वह स्वयं क्या चाहती है। आने वाली पीढ़ी के समक्ष वह अपनी कैसी छवि स्थापित करना चाहती है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता का निर्वाह एवं संचार करते हुए आज की नारी सही मायनों में स्वावलंबन, सशक्त व स्वतंत्र होना चाहती है या फिर आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति, नग्नता व अश्लीलता को अपना कर अपनी गौरवमयी सभ्यता से प्राप्त मान-सम्मान को मटियामेट करना चाहती है, उन्हें खोना चाहती है। अब यह सब नारी के स्वविवेक पर निर्भर करता है।

प्रेमलता यदु
बिलासपुर छत्तीसगढ़

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