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मनीष की कहानी संशय

बांध वाले रोड पर चलते हुए विमल जी घोष दा के साथ काफी दूर निकल आए थे। सामने गंगा का धवल प्रवाह डूबते सूरज की हलकी धूप में चमक रहा था। घोष दा तर्जनी से उन्‍हें नदी के दूसरे तट पर पेड़ों की कतारों से निर्मित पृष्‍ठभूमि को दिखा रहे थे। सब कुछ बेहद प्राकृतिक और आकर्षक था। ऐसे में दोनों सज्‍जनों का ध्‍यान सड़क के एक तरफ फैली झुग्गियों और उनके इर्द-गिर्द व्‍याप्‍त गंदगी से हट गया था। अर्धनग्‍न बच्‍चे बिखरे बालों और जीर्ण शरीर के बावजूद उत्‍साह से इधर-उधर भाग रहे थे। बेपरवाह सूअर कीचड़-मिट्टी में थूथन छुपाए कुछ अभीष्‍ट खोज रहे थे। मुर्गियों के दो-चार समूह कुछ चुगने में व्‍यस्‍त थे। यह इलाका शहर के बिल्‍कुल एक छोर पर था। दूर तक फैला खुला मैदान गंगा के कछार का था। नदी का स्‍वच्‍छ प्रवाह,खेतों की हरियाली इसकी रौनक को बढ़ाती थीं। लेकिन झुग्गियों का झुण्‍ड,सुअरों का घूमना और आसपास की गन्‍दगी मजा किरकिरा कर देती थी। फिर भी विमल जी को घोष दा के साथ या जो भी समान विचार वाला सज्‍जन मिल जाए,यहॉ सायंकाल विचरण करना बेहद पसंद था। यहॉ टहलते हुए साहित्‍य- समाज और राजनीति पर बेबाक चर्चा की जाती थी या फिर निशब्‍द अवलोकन करते ह्दय में आनन्‍द लिया जा सकता था। कभी-कभी वे लोग बेटों,बहुओं और रिश्‍ते-नातों की बातें करके व्‍यक्तिगत दुख-सुख और संबंधों में आए बदलाव की बात भी कर लिया करते। ऐसा करने से कुछ हो चाहे न हो दिल बहल जाता था।

जमाना बहुत बदल गया है। आज के युवाओं की पसंद कुछ और है।विमल जी ने कहा। यह एक पुराना जुमला प्रतीत होता था। लेकिन बातचीत की शुरुआत करने के लिए विषय बुरा नहीं था। छोडि़ए साहब घोष दा मुस्‍कराए सृष्टि का नियम है। कोई किसी पर अपनी राय नहीं लाद सकता। ऊपरी तौर पर उदारता का प्रदर्शन करने के बावजूद दोनों को इस बात पर रंज था कि आज लोग परिवार के हितों की परवाह किए बिना एकतरफा निर्णय लेते हैं। जबकि पहले ऐसा नहीं था। विमल जी साहित्‍य-कर्मी थे। विद्यार्थी जीवन से ही लेखन से जुड़े हुए थे। पिछले दिनों एक कहानी- संग्रह प्रकाशित हुआ था। लेकिन साहित्‍य-जगत में इसकी विशेष चर्चा नहीं हुई। इससे तनिक खिन्‍न थे। इससे पूर्व भी दो पुस्‍तकें उपन्‍यास और निबन्‍ध-संग्रह के रुप में छपी थी। घोष दा रंगमंच से थे। कहीं न कहीं दोनों की अभिरुचियॉ मिलती थीं। यही मित्रता का आधार था। अवस्‍था और वय भी समान थे। पचास-पचपन के पश्‍चात् लोग खुद के बारे में कम और संतान तथा उसके भविष्‍य के विषय में ज्‍यादा फिक्रमंद हो जाते हैं। इसके अतिरि‍क्‍त बातचीत के कतिपय और विषय भी थे। पुराना समय अच्‍छा था। तब यह होता था। और बीच में यह कहना कि आज की जेनेरेशन को यह पता नहीं है। विमल जी को घोष दा ने एक बार मछली की खरीदारी के सिलसिले में यह बताया कि पहले मोलभाव का जो आनन्‍द था और जिस प्रकार का मिठास भरा संवाद ठेलेवाले और ग्राहक के बीच होता था अब वह नहीं रहा। कोई किसी को जानता नहीं। परवाह नहीं करता। विमल जी ने भी एक गंभीर मुद्दा उठाते हुए कहा कि हमारे देश में कारीगरों को कौडि़यों के भाव मजदूरी मिलती है। इन्‍हें जरा सिखाया-पढ़ाया जाए तो ये लोग सारे टेकनिकल काम भी कर सकते हैं। ऐसा हो जाए तो सफेदपोश नौकरियों के लिए होड़ नहीं मचेगी। न ही ऐसे वातावरण में सरकारी नौकरी को लेकर राजनीति की जाएगी। इस तरह का बौद्धिक वार्तालाप दरअसल मानवीय संवेदना से भी भरा होता था।
सड़क के नजदीक तक फैली झुग्गियों में से किसी के रोने की आवाज ने दोनों को आकर्षित किया। नजर घूमाने पर द्दश्‍य भी दिख गया। एक लड़की जोर-जोर से रो रही थी। पास में खड़ी अधेड़ उम्र की औरत जो कि संभवत: उसकी मॉ होगी,कठोर शब्‍दों में उसे डॉट रही थी। पास में उपस्थित पॉच-छह औरतें और दो-चार पुरुष मजमा लगा कर खड़े थे। सोलह-सत्रह साल की लड़की का जार-जार रोना दोनों सज्‍जनों के ह्दय को द्रवित करने के लिए पर्याप्‍त था। भीड़ में विमल जी को कोई परिचित चेहरा दिखा। उसका नाम रामभरोसे था। वह मकान बनाने वाला मजदूर था। शायद अब मिस्‍त्री बन गया हो। दो-एक बार उनके घर में भी उसने काम किया था। बात क्‍या है? वे आगे बढ़कर उससे पूछने लगे। वह सामने पड़ जाने पर नमस्‍ते करने के बाद बताने लगा। साहब ये लोग बंगलादेशी हैं। बाप रिक्‍शा चलाता था। मॉ भी कुछ घरों में चौका-बर्तन करती थी। काम करने वालों को रोजी की कमी नहीं है। लड़की की शादी हो चुकी है। मर्द से नहीं बनी। यहीं पड़ी है। कल दुबारा ससुराल छोड़ कर आ गयी। उसी को लेकर कलह हो रहा है।इस वृतान्‍त के बाद विमल जी को इस निष्‍कर्ष पर पहुचने में देरी नहीं लगी कि लड़की परिस्थिति की मारी हुई थी। उसकी दर्द भरी आवाज संग में खड़े घोष दा की संवेदना को जगाने के लिए भी काफी थी। मामले को समझने के लिए जिन्‍दगी पड़ी थी। ऐसे लोगों के मामले में पड़ना भारी पड़ सकता था। अनपढ़ और जाहिल लोग थे। फिर भी कोमल लेकिन यथासंभव स्‍वर में द्दढ़ता लाते हुए विमल जी बोले, भई क्‍या बात है? आप लोगों की परेशानी क्‍या है?औरत कुछ नहीं बोली। भीड़ में से एक मर्द ने जवाब दिया,;बाबूजी तिरिया चरित्‍तर कोई नहीं जान सकता है। यह मॉ-बेटी किसी की समझ से बाहर हैं।'' इस पर बिफर कर वह औरत उस व्‍यक्ति पर टूट पड़ी। उसके घर-खानदान इत्‍यादि पर अचूक निशाना लगाती हुई शब्‍दों के प्रक्षेपास्‍त्र का संधान करने लगी। अच्‍छा खासा युद्व का द्दश्‍य उपस्थित हो गया। इस अवस्‍था व माहौल में कोई भी पढ़ा-लिखा और शरीफ व्‍यक्ति खड़ा नहीं रह सकता। इसके बाद भी यदि वे दोनों सज्‍जन खड़े थे तो यह बताने की जरुरत नहीं कि उनका मन मानवीय संवेदना से पूर्ण एवं पर- पीड़ा को समझने वाला था।
भला हो रामभरोसे का जिसने उस औरत को कहा क्‍या बकती जा रही है। देख नहीं रही बाबूजी लोग खड़े हैं।इसका शायद उसपर आंशिक प्रभाव पड़ा क्‍योंकि इसके पश्‍चात् उसकी वाणी की कर्कशता और उच्‍चारण की तीव्रता दोनों मंद पड़ गयी। अवसर कुछ अनुकूल देखकर विमल जी ने दुबारा पूछा ;भई क्‍या बात है? औरत ने क्रोध व दुख में जो कुछ बताया उसका सार यही था कि पति को छोड़कर आयी लड़की किसके भरोसे रहेगी। यहॉ कौन सा खजाना गड़ा है। वहीं उसके साथ पटरी बैठाकर रहती। घोष दा थोड़े जोश में आ गए। क्‍यों नहीं अलग रह सकती। मर्द अगर जानवरों जैसा सलूक करेगा तो भी वही पड़ी रहेगी। मजाक है क्‍या। काम करने वालों को खाने की दिक्‍कत नहीं होती। उनकी इस बात से समस्‍या का एक समाधान दिखा। विमल जी भी विचार करने लगे। श्रीमती जी दीर्घकाल से किसी कामवाली की तलाश में हैं। कायदे की कामवाली का मिलना एक टेढ़ी खीर थी। यहॉ तो हर दूसरे महीने महरियॉ छोड़ कर चली जाती या उन्‍हें जाने को कह दिया जाता। कभी-कभी उन्‍हें ऐसा लगता कि गृहणी और कामवाली के मध्‍य संबंधों को दीर्घजीवी होने के लिए जिस सूझबूझ और कूटनीति की आवश्‍यकता है वह दो राष्‍ट्रों के द्धिपक्षीय।
संबंधों से कम नहीं है। पिछले साल भर में तीसरी कामवाली से झगड़ा हुआ था। कमला भी जरा तेज मिजाज की थी। अब क्‍या कहे। पति से तो ढ़ंग से बात नहीं करती। खैर अपनी स्‍त्री थी। यह सब सार्वजनिक तौर पर तो नहीं कह सकते थे। वे चिन्‍तन छोड़कर बाह्य संसार में आए। लड़की की मॉ से बोले देखो बहनजी,दुनिया में ऐसा कौन है । जिसके हिस्‍से दुख न हो। लेकिन मुसीबत के सामने हार नहीं मानते हैं।; अनपढ़ औरत उनके तत्‍वज्ञान से कितना प्रभावित हुई यह तो नहीं पता लेकिन यह आभास उसे हो गया कि सामने खड़ा सज्‍जन कुछ कायदे की बात कह रहा है। उन्‍होंने रामभरोसे को संक्षेप में बताया कि उनके यहॉ एक कामवाली की जरुरत है। वहलड़की को उसकी मॉ के साथ घर लाए। ऐसा करने से कमला भी दोनों का साक्षात्‍कार लेने के बाद किसी निष्‍कर्ष पर पहुचेगी। कामवाली रखने के उसने कुछ मानक निर्धारित किए थे। समय पर आना,नागा न करना,विन्रमता,ईमानदारी यानि घर की चीजें ऑख बचाकर गायब न करना,जरुरत पड़ने पर अतिरिक्‍त काम के लिए मना नहीं करना वगैरह। वाजिब मेहताना से ज्‍यादा की उम्‍मीद न रखना भी इसमें सम्मिलित था। इनमें से कुछ तो बाद में ही मालूम होते हैं। पिछली कई कामवालियों को निकालना या उनके स्‍वयं चले जाने के पीछे मानकों को पूरा न कर पाना उत्‍तरदायी था। लड़की को दीन-हीन देखकर कमला मान जाएगी ऐसा उनका अनुमान था। वैसे ये लोग बोलचाल में थोड़ी रुक्ष तो होती ही है। शत प्रतिशत गुण ढॅूढ़ोगे तो कहॉ मिलेगा। शन्‍नो को काम मिल गया। तीन सौ रुपए पगार तय हुई थी। इसके लिए कमला और उसकी मॉ ने तसल्‍ली से द्विपक्षीय वार्ता की। दो दौर की वार्ता के पश्‍चात् यह समझौता हुआ कि पहले तीन सौ महीना मिलेगा। बाद में काम देखकर बढ़ाया जाएगा। अब वह सुबह-शाम दो बार आती और झाडू-पोछा,बर्तन कर जाती। कमला को आराम मिल गया। विमल जी को लगा कि उन्‍होंने एक नैतिक दायित्‍व पूरा कर लिया है। एक बेसहारा की मदद की तथा साथ ही पत्‍नी को भी रोजमर्रा की मशक्‍कत से छुटकारा मिला। शन्‍नो के लिए काम नया था। कमला धैर्य और उदारता से उसे समझाती। इसके एवज में कुछ नया काम मढ़ देती। जैसे बर्तन धोने के उपरान्‍त साफ कपड़े से उसे पोछकर सुखाना। कोई भी पहले वाली यह काम नहीं करती थी। कहने का भी सवाल नहीं था। कभी-कभार सुबह के अतिरिक्‍त शाम को भी झाडू लगवाती। बाकी कामवालियॉ एक बार भी ढ़ंग से झाडू लगा दे तो गनीमत था। कमला सफाईपसन्‍द थी। सब्‍जी काटना हो या आटा गूथना,वह हाथ सामने धुलवाकर काम करवाती। इन मामलों में वह कट्टरपन्‍थी नहीं थी। इंसान के हाथ बस साफ सुथरे होने चाहिए। कुल मिलाकर उसके कामकाज का बोझ पर्याप्‍त हल्‍का हो चुका था। विमलजी को लगा कि काम की अधिकता को लेकर उसकी ताने मारने की आदत अब दूर हो जाएगी। शन्‍नो को पगार के अतिरिक्‍त बची रोटियॉ,सब्‍जी और यदा-कदा चाय मिल जाती।

एक दिन यॅू ही खाली बैठे पति-पत्‍नी बातें कर रहे थे। कमला बोली सुनो,ये शन्‍नो की अपने मर्द से क्‍यों नहीं बनी जानते हो? वे उसकी ओर प्रश्‍नसूचक द्दष्टि से देखने लगे। क्‍या मालूम। दरअसल उन्‍होंने पुश्‍ते पर घटी घटना के बाद इस बारे में कोई पूछताछ की ही नहीं थी। औरतों की आदत होती है ऐसी बातों की तह तक जाने की। कुछ आदमी भी ऐसे ही होते हैं। इसका किसी और से चक्‍कर था। क्‍या… ? हॉ और क्‍या। बल्कि दो-चार से है।वे न मानने वाले अंदाज में देखने लगे। कमला उनका भाव समझ कर बोली। ;देखने से नहीं लगता है ना। बड़ी सीधी लगती है। वे सहसा बेहद गंभीर हो गए। दो बच्‍चे थे उनके। सौभाग्‍य से दोनों ही सुशील और अपनी उम्र से अधिक जिम्‍मेवार। सुधीर बाइस साल का। इंजीनियरिंग की तैयारी में लगा था। खैर उसका कोई क्‍या बिगाड़ेगा। लड़का है। रजनी उन्‍नीस की। कॉलेज में थी। लड़की जात। तमाम प्रगतिशीलता के बाजजूद मॉ-बाप को ख्‍याल तो रखना ही पड़ता है। कमला का कहना था-सुधीर बेहद व्‍यवहारिक लड़का है। दुनिया की समझ है उसमें। रजनी के बारे में कहती-बड़ी सेन्सिटिव है। यह एक ऐसा विषय था जिसपर अपवाद स्‍वरुप पति-पत्‍नी सहमत थे। पुरानी कामवाली अभी भी घर के चक्‍कर काटती। बहूजी न मालूम हम पर क्‍यों नाराज हो गयीं। अरे नागा कौन नहीं करता। पर्व-त्‍योहार पर फालतू काम भी तो कर जाती थी। एक-दो सौ फालतू लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उम्रदराज औरत थी। सभी घरों में उसे लोग जानते-पहचानते थे। उन्‍हें लगा कि किताबी बातों और बाहर की दुनिया में काफी फर्क है। घर-गृहस्‍थी वाले इंसान को बहुत कुछ देख-समझ कर चलना पड़ता है। विमल जी को लगने लगा कि उन्‍हें घोष दा सलाह लेनी चाहिए। हालॉकि दुनियादारी में वे उन्‍हें अपने से बढ़कर नहीं समझते थे पर फिर भी अपने स्‍वभाव वाले हैं। हित की बात करेगें। बताने पर घोष दा विचारमग्‍न हो गए। मुस्‍कराते हुए कहने लगे, यह सब पहले नहीं सोचा था। लड़की जात है। मुझे तो नहीं लगता कि इतनी दूर तक जा सकती है। फिर घर के संस्‍कार क्‍या उस अकेले से बिगड़ जाएगें? बात वह नहीं है घोष दा । वे बोले,;क्‍या हमारे पास कोई और कामवाली की इतनी कमी है।तो फिर हटा दीजिए ना भाई। घोष दा वीतरागी भाव से हाथ झटक कर बोले। घोष दा से मिलकर उन्‍हें संतोष नहीं हुआ। दो दिन बाद काम से घर लौटने पर उन्‍हें कमला का तनावग्रस्‍त मुखड़ा दिखाई दिया। क्‍या बात है? खैरियत है? खैरियत कहॉ। आज शन्‍नो रानी का घर वाला आया था। दोनों में लड़ाई हुई।हुआ करे। मियॉ-बीबी हैं। हमें क्‍या कमला उनकी बात सुनकर जरा झुझलायी,लेकिन हमारे घर की चौखट पर आने वाला वो कौन होता है विमल जी चौकन्‍ने हुए,क्‍या बात हुई? एक दिन तो वह इस चक्‍कर में घर में घुस जाएगा। कोई बदतमीजी तो नहीं की।हमसे क्‍या करेगा, वह रोष में थी,;अपनी घरवाली पर हाथ छोड़ने को बॉहें चढ़ा ली थी। वे विचारशील मनुष्‍य थे। कोई भी फैसला गुस्‍से या हड़बड़ी में नहीं लेते थे। शन्‍नो की मॉ को सामने बुलाकर उन्‍होंने सारी बात पूछी। माजरा यह था कि शन्‍नो ऐसे शराबी,दुर्व्‍यसनी व्‍यक्ति के पास वापस जाने को तैयार नहीं थी। उसका पति इस बात से खुफा था कि बीबी की कमाई ससुराल वाले उड़ा रहे थे। विमल जी को इस मामले में लड़की से सहानुभू‍ति थी। ज्‍यादा बात बढ़ी तो महिला आयोग को खबर करेगें। एक बार ऐसा विचार भी उनके जेहन में धूमकेतु की भॉति उभरा। परंतु धूमकेतुओं और पुच्‍छल तारों का अस्तित्‍व दीर्घजीवी नहीं होता। बाद में बात से तस्‍वीर पूरी तरह साफ हुई। शन्‍नो का किसी और से चक्‍कर चल रहा था या यूँ कहिए उसने किसी और मर्द को पसंद कर लिया था। जो भी हो वह समान बिरादरी का था। रोजगार में लगा था।
एक विशुद्ध बुद्धिजीवी की द्दष्टि से इसमें बुरा कुछ नहीं था। एक गलत वैवाहिक रिश्‍ते में आजीवन कारावास भुगतने की बजाए अपने को समझने वाले साथी का हाथ पकड़ना अनुचित कैसे है? लेकिन‍ लोकोपवाद भी कोई चीज होती है। हर समाज का द्दष्टिकोण अलग होता है। शन्‍नो की मॉ ने अपनी दास्‍तान सामाजिक-आर्थिक पृष्‍ठभूमि से प्रारम्‍भ की। उसने बताया कि कई जगह धक्‍के खाने के बाद वह यहॉ थोड़ी बहुत जमी है। इससे पहले जहॉ शन्‍नो और वह दोनों काम करते थे वहॉ किसी ठेकेदार के तत्‍वाधान में निर्माण कार्य चल रहा था। सरकार अभी भी हमारा रुपया वहॉ बकाया है। ठेकेदार कहता है कि पहले काम पूरा करवाएगें तब बाकी का हिसाब चुकाएगें। यह बड़ी नाइंसाफी है।उसकी आवाज भर्राई हुई थी। अब आप जैसे भले लोगों के बीच हमारी भी तकदीर थोड़ी सॅभल जाएगी। उपसंहार के रुप में उसने स्‍पष्‍ट किया कि वह उन लोगों का आसरा चाहती है। साथ ही यह भी जोड़ा कि वह अपने मरद के साथ रहने की बजाए जान दे देगी। अगर किसी और से इसका मन मिलता है तो हमें यह भी मंजूर है। कमला तनिक सहानुभूति से बात सुन रही थी। लेकिन उसके जाने के बाद वह सोच-विचार करने बैठी तो बोली,जब एक को छोड़कर दूसरे के साथ चल सकती है तो तीसरा भी मुश्किल नहीं है। पत्‍नी से लगभग हर मामले में मतभेद होने के बावजूद यहॉ वे सहमत होते नजर आए।
विमल जी वैचारिक अन्‍तर्द्धन्‍द्ध, पारिवारिक जिम्‍मेवारी और पिता के दायित्‍व सरीखे बड़े-बड़े चक्रव्‍यूहों में फॅस गए।सुबह-सुबह जब कमला पास के हनुमान जी के मंदिर में पूजा करने निकली तो पुरानी महरिन ने दुआ-सलाम के उपरांत बातचीत शुरु की। उसने सड़क पर ज्‍यादा बात न करते हुए इतना कहा कि जरा आधे घंटे में मेरे घर पर आ जाना। तुझसे कुछ बात करनी है। घर में संक्षिप्‍त बात करने के उपरांत पति-पत्‍नी से उसे पुन: काम पर रख लिया। वह भी पहले से ही इच्‍छुक थी। मुहल्‍ले की पुरानी कामवाली थी। पगार भी दोनों पक्षों के लिए संतोषजनक तय हो गयी।‍ उससे क्‍या कहोगे।कमला पति से आशंकित होकर पूछ रही थी। अरे इतनी फिक्र क्‍यों करती हो; वे आत्‍मविश्‍वास से बोले;अपना घर है जिसे रखना चाहे रखेगें। इसको पूरी पगार दे देना। बाकी महीने का भी दे देना और क्‍या। गरीब है बेचारी। दो-चार फालतू दे दिया तो हमारा कौन सा कम हो जाएगा। पर किसी ऐसी-वैसी को हम घर पर नहीं रख सकते। घर की प्रतिष्‍ठा मेरे लिए सबसे बड़ी चीज है।बोलते- बोलते उनके प्रौढ़ चेहरे पर आत्‍मगौरव उभर आया। और क्‍या,; कमला पति का आत्‍मविश्‍वास देखकर प्रभावित थी, ;ऐसे लोगों को वह ठेकेदार ही ठीक कर सकता है। हम नहीं। ऐसा मत कहो रजनी की मॉ वे अद्भुत उदारता से कहने लगे,;किसी की हाय नहीं लेनी चाहिए। जाते वक्‍त उसे अपने दो-चार पुराने कपड़े दे देना। आखिर हममें और ठेकेदार के आचरण में कुछ अन्‍तर होना चाहिए।अपना कर्तव्‍य पूरा करने का संतोष उनके मन में व्‍याप्‍त था।

मनीष कुमार सिंह
गाजियाबाद

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