“वर्षों पहले पीछे छूट गया वो पुस्तेनी गांव?”कह मिस्टर डिसूजा ने अपनी बात पूरी की तो विस्मृति स्मृति की रेखाएं बरबस ही चेहरे पर खिंच गई। हां अवश्य केबिन में लगे पंखे की खटखट की ध्वनि विचारों में दखल दे रही थी, जिस पर माघमास ने अपना डेरा समेटा तो फागुन ने अपना पैर पसार लिया था,अतः वातावरण में गर्मी ने दस्तक दे दी थी।”यार होली भी तो आने वाली है। छुट्टियां में तुम अपने गांव घूम आओ?” दोपहर की अलसाई अंगड़ाई लेती हुए गर्मी में चुन्नीलाल ने फाइल पर कलम रखते हुए कहा।
“हां सही कहते हो मित्र! गांव जाने को मन तो बहुत लालायित है। जैसे बीता बचपन बुला रहा हो?”यह कह ,जीवन की अभी-अभी अर्ध शतकीय पारी खेल चुके मिस्टर डिसूजा ने मन ही मन ठान लिया था कि चाहे कुछ हो जाए, इस होली छुट्टियों में वे गांव अवश्य जाएंगे। फिर कोई साथ जाए या ना जाए? उसकी मौज।
रोजी-रोटी की चाह कहे या अधिक संग्रह का मोह या कहे शहरी जीवन की चकाचौंध या फिर दुनिया की देखा देखी ने पच्चीस बरस पहले ही मिस्टर डिसूजा को महानगरी दुनिया में ला पटका था ,किंतु मन तो आज भी गांव में रमता था। तभी उन्होंने पत्नी से साथ चलने का आग्रह किया ,तो पत्नी ने निवेदन को सिरे से खारिज कर कह दिया“गांव भी कोई घूमने लायक जगह होती है क्या?” धर्मपत्नी के मुखारविंद से अपने गांव का इस तरह उपहास हृदय को गहरा आघात दे गया, कि वे एक दिन अकेले ही गांव की ओर चल पड़े। रास्ते भर बाल सखाओं के हास्य परिहास, सरारते ,नादानी, बालमन को बार-बार गुदगुदा रही। अवसान की बेला करीब थी। रवि रज में सरलता सहजता आ गई थी। पहाड़ी गांव में प्रवेश करते ही मिस्टर डिसूजा को जैसे मिट्टी की सुगंध भाव विभोर कर रही थी ।कदमों में एक तेजी थी। पहुंचते ही दूर से परिजनों ने सेवा सत्कार में चाय पानी को पूछा ,किंतु मिस्टर डिसूजा ने मानो किसी की एक न सुनी और पेड़ों से आच्छादित पगड़ियों से, पहाड़ी के ढलान में दौड़कर नीचे उतरने लगे। फूल पलाश विविध वनपुष्पों लताओं से आती विशिष्ट खुशबू से मन तरोताजा हुआ जाता। नीचे उतरते ही प्रथम दृष्टि अमराई पर पड़ी।। आम्र की मौर पर मन जैसे अटक गया,सोचा पेड़ों से लिपटकर प्रेम अभिवादन स्वीकार कर लूं,तभी दूर सपाट पर लगी गेहूं की पकी दूधिया बालियां कोतूहल बस बुला रही थी ।अतःमिस्टर डिसूजा आगे बढ़े, चना, मटर को चखते जाते। यहां काम करती भोली भाली आदिवासी महिलाएं पुरुष, जो घुटने तक धोती पहने थे, शहरी बाबू को देखकर कुतूहल वश काम को कुछ विराम दे शहरी बाबू को देखने लगती। तो कुछ ने खेतों मेड़ों पर कूदते फांधते डिसूजा को विक्षिप्त ही समझा। यदा कदा कुछ पुराने लोग पहचान भी जाते। तभी एक बूढ़ा ध्यान से चेहरा पढ़ते हुए बोला_ “डिंसों!तुम डिंसो हो न?”
और मिस्टर डिसोजा गदगद हो जाते है। उनका बचपन जैसे पुनर्जीवित हो जाता है। करुणा वहम को पछाड़,अपनत्व स्वार्थ से परे, भावों से विभोर हो गई तो लगा जैसे धरा, प्रेम के अलौकिक दृश्य से स्वर्ग हो गई।तभी खेतों से होते हुए डिसूजा आगे सरिता की ओर बढ चले, जहां कभी घंटो वे नहाया तैरा करते थे। पर मन एकाएक तट पर लगी झरबेरी बेर पर लग जाता है। लालतख्त बेरो को बच्चों की भांति चुन चुन कर वे खाने लगे। फिर एकाएक बोल पड़े” नदी के किनारे जाम का पेड़ किसने रोपा है? जिन पर तीन पके जाम लगे हैं।” पहले तो डिसूजा ने एक खा ली।बहुत मीठी थे ,फिर दो को जेब में पत्नी और बच्चों के लिए रख ली ।सोचकर यह कोई वन देवी का प्रसाद हो। फिर बिल्कुल तट से सटे कौहा के पेड़ से लिपटकर नदी के जल में झुक कर अपनी परछाई देखने लगे। कितना वक्त बीत गया?खिचड़ी केश देख सोचने लगेअब तरुणाई अपने यौवन पर आरुण हो गई है। तभी वृक्ष से कौहवे का एक फल गिरा और सारे स्थिर जल को आंदोलित कर गया। मिस्टर डिसूजा समझ गए, संसार में स्थिर कुछ नहीं है,आज जो भी अच्छा या बुरा है,कल वह भी ढह जाएगा ।फिर पुनः कौहवे के फल की भांति दूर बहकर एक नया अंकुरण सृजन करेगा। मिटना बनना यह प्रकृति का रहस्य ही तो है ।फिर जल को अपने पंखों से छूकर उड़ते पक्षियों की अटखेलिया देख मन रम गया। डिसूजा सोच रहे थे कौहैवे के वृक्ष पर ऊपर डाली पे चढ़ जाऊं ,किंतु दूसरे ही क्षण स्थूल शरीर ने इसकी इजाजत न दी।
ऐसे विचारों की तंद्रा टूटी तो वे सरिता के किनारे किनारे चल पड़े।तभी थोड़ी दूर पर इमली के पेड़ के नीचे, मेड़ पर बैठे दो युवाओ को शहरी बाबू पर दया आ गई।वे जोर से चिल्लाये“बाबू जी! इधर आ जाओ,उधर आज ना मिलेगी ,त्यौहार की वजह से लाहनी ना रखी है।” थोड़ी देर तो मिस्टर डिसोजा अचंभित रह गए। फिर मन ही मन हंसे। सोचा मैं प्रकृति के विशुद्ध प्रसाद प्रेमानंद की तलाश में हूं और ये लोग शुद्ध महुआ के पुष्पों से निकले मादक द्रव्य की बात कर रहे हैं ।खैर इनके प्रेमभिवादन के जवाब में बस “ना”बोल डिसूजा आगे बढ़ते चले। रवि की अंतिम किरणें वृक्षों पर अटकेलिया खेल रही थी। वहीं “छाटा” घाट पर सरिता का जल चट्टानों पर उछलता कूदता बहा जा रहा था। उस पर रवि का लालिमा युक्त मद्धम प्रकाश श्रृंगार किये इठलाती ग्रामीण बाला सा प्रतीत होता। मिस्टर डिसूजा को अचानक स्मृति में आया कि यह वही घाट है जहां पहले कभी खूब नहाया था ।जल के बहाव में फिसलन से दूर तक बहना,मन को कितना भाया था। अरे याद आया यहां कभी बच्चों की टोली ने खीर बनाकर पिकनिक भी तो मनाया था। फिर एकाएक मिस्टर डिसूजा का मन डर से सिहर उठा“अरे यह वही घाट है जहां बारह_ तेरह बरस के डिसू ने एक बार अपने गाड़ीवान से गाड़ी चलाने की जिद कर, गाड़ी की पगहिया नन्हे हाथों में ले ली थी,फिर खूब मजे से बैलों को दौड़ाया था और अभी कुछ ही दूर गाड़ी चल पाई थी कि धुरी एक पेड़ के ठूंठ में ऐसी फंसी की जुवाड़ी बीच से दो टूक हो गई थी। उस पर बालमन कितना घबराया था ,किंतु घर जाते ही दादाजी के क्षमा पुरस्कार से मन दुविधा से सुविधा में आ गया था।”
अंधकार ने थोड़ा चादर पसारा तो मिस्टर डिसूजा गांव की और मुखर हो चले। जहां ढोलक टिमकी पर नाचते पगो की चाप, तो कहीं फांगो का उच्चास स्वर सुनाई पड़ रहा था। यहां कुछ विश्राम कर मिस्टर डिसूजा, डिसू के प्रफुल्लित बालमन को साथ लेकरअपने शहर की ओर लौट जाते हैं। घर पहुंचते ही धर्मपत्नी व्यंग्यात्मक स्वर में बोली “लौट आए! क्या मिला गांव में?” डिसूजा लंबी राहत भरी सांस ले मुस्कुरा कर मन ही मन बोले
” जो मिला वह कम न था,इतना कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता ।फिर सुनने वाला सहृदयी बाल मन भी कहां ?जिससे मन की कथा _व्यथा, आल्हादित किलकारियां,वो सुकून भरे पल ,कहे सुनाए जा सके। अतः डिसूजा ने मौजों में मौन व्रत धारण कर लिया।
अजय कुमार बोपचे
साहित्य सरोज लेखन प्र0