Breaking News

बेदर्द दिल -पूजा

अभी हम हवन करके उठे थे हवन में मेरे साथ मेरे पति राकेश दोनों पुत्र लव एवं कुश भी बैठे थे। वह शांति हवन हमने बाबूजी के लिए रखा था। सभी रिश्तेदार मित्र एवं परिचित भी इस अवसर पर आए हुए थे। पूजन हवन के पश्चात भोज का आयोजन किया गया था। हलवाई अपने सहयोगियों के साथ पकवान खीर पूरी मिठाइयां तैयार कर रहा था।
हमारे द्वारा हाथ जोड़कर आग्रह करने के पश्चात लोग पंक्तिबद्ध होकर भोजन हेतु बैठने लगे। तभी एक बुजुर्ग ने सलाह दी कि सर्वप्रथम बाहर इकट्ठे भिखारियों को पेट भर भोजन करना चाहिए। बाबूजी की आत्मा की शांति के लिए भूखे व भिखारियों को तृप्त करने हेतु पत्तले लगाकर ले जाई जाने लगी, तत्पश्चात बैठे हुए सभी लोगों के लिए भोजन परोसा जाने लगा। अंदर भंडार में मेरी व मेरे पति की बहने, भाभियां रखी हुई भोज्य सामग्री निकाल कर देने एवं अफसोस जाहिर करने आई महिलाओं को भोजन परोसने का कार्य कर रही थी। पुरुष वर्ग में भी भाई-भतीजे लग गए थे। भोजन की महक मेरे नाक में प्रवेश करती, ना जाने कितना कुछ बीता हुआ याद दिला रही थी।
इस तरह के भोजन बाबूजी को कितने पसंद थे। वह खाने के लिए मांगते हुए कभी-कभी तो गिड़गिड़ाने की हद तक उतर आते थे। मगर राकेश ने उन्हें ये सब देने से या तो मना कर रखा था या देते तो बहुत थोड़ा-सा, जिससे बाबूजी कभी संतुष्ट नहीं हो पाते थे। इतनी सारी सामग्री औरों को खिलाकर क्या अब हमें सुख प्राप्त हो सकेगा या बाबूजी की आत्मा को तृप्ति मिल सकेगी? यही सब सोच कर मैं बेचैन हो उठी। जो हुआ वह सब सही था या गलत, इसकी विवेचना करने का वक्त अभी कहां था? मगर मन भी गुजरे वक्त को किसी जिद्दी बच्चे की भांति बार-बार धकेल कर नजरों के सामने ला खड़ा करता था। मैं विवश-सी वही रखी चटाई पर बैठ गई। छोटी बहन सुप्रिया ने मुझे गुमसुम-सा बैठा देखा तो वह भी समझी कि मैं अपने पितातुल्य ससुर की मृत्यु पर अफसोस कर उदास हो उठी हूं। वह मुझे समझने लगी, “धैर्य रखो दीदी, ऐसे कैसे चलेगा? उधर जीजा जी भी बेहाल हो रहे हैं और इधर आप ऐसे बैठी हैं। बाबूजी तो देवतुल्य पुरुष थे, लेकिन अच्छे व्यक्तियों को भगवान के घर में भी जरूरत रहती है ना। उठो और अपनी संपूर्ण संवेदना, श्रद्धा के साथ उन्हें विदा करो।” सुप्रिया के साथ-साथ अनु भी मुझे समझा रही थी। अनु मेरी रिश्ते की ननंद थी। मैं स्वयं को रोक न सकी, रुंधे कंठ से बिलख उठी। जो ये कह रही है, क्या वही मैं भी सोच रही हूं? मेरे अफसोस का कारण तो कुछ और ही था। बाबूजी की ऐसी मुक्ति की कामना मैंने कभी नहीं की थी। उधर राकेश ऐसे व्यवहार कर रहे थे, जैसे अपने पिता के श्रवण कुमार एक वही थे। अभी मेरे दोनों जेठ भी आए हुए थे। उनमें से बड़े व उनकी पत्नी प्रिन्सिपल थे। दोनों मिलकर शहर में अपना बड़ा सा स्कूल चला रहे थे। ३०-४० लोगों का स्टाफ था और बड़ी सी इमारत शहर के बीचो-बीच जेठानी के पिता की दी हुई जमीन पर बनी हुई थी। छोटे जेठ दूसरे शहर में एक निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर थे। कंपनी की दी हुई गाड़ी-बंगला एवं समस्त सुविधाएं उपलब्ध थी। जेठानी नहीं आ सकी थी, कारण बच्चों की परीक्षाएं निकट थी। राकेश श्वेत धोती-कुर्ता पहने कई लोगों से घिरे बैठे थे। लोग मातम मनाने के लिए आ रहे थे। वे थोड़ी देर रुककर हमें सांत्वना देते, फिर भोजन करके चले जाते।
किसी को भी पता न था कि सत्य क्या है? राकेश के पिता कैसे मरे? उन्हें क्या हुआ था? मृत्यु पूर्व क्या वाक्या घटा था। जो राकेश के द्वारा बताया जा रहा था, वे उसे ही सच मान रहे थे। सच की कोई गुंजाइश नहीं थी। ‘होनी को कौन टाल सका है? अमरफल खाकर कौन आया है? सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। क्या इस छलावे, मुंहदेखी कहने वालों की दुनियाँ में कुछ लोग भी ऐसे नहीं है, जो खरी-खरी कह सके कि राकेश तुमने अपने पिता को कितना तरसाया? उनके साथ क्या-क्या सुलूक किया। जब जानते थे कि उनकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति इस लायक नहीं थी तो उन्हें कुंभ में ले जाने की क्या आवश्यकता थी? वहां वे कैसे मृत्यु को प्राप्त हुए? क्या आज पिता और पुत्र के मध्य शाश्वत विश्वास, स्नेह और सहानुभूति की उष्मा को पैसे एवं स्वार्थ का घुन चट कर गया है? सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु का होना और बात है, मगर छलपूर्वक मृत्यु ला दिया जाना एक घनघोर अपराध। कितना बेदर्द दिल है जो ऐसा कुकृत्य करने पर दिल भी नहीं कांपता। परिवार-समाज के लिए एक व्यक्ति का होना, ना होना, उसका जीवन-मृत्यु बहुत कुछ मायने रखता है, सुख-दुख का कारण बन सकता है। मैं अन्तर्यात्रा करती मौन बैठी थी।
क्या मैं भूल सकती हूं वह सब? मन-ही-मन मैं स्वयं को इस गुनाह में शामिल मान रही थी। ना मानती तो अपराधबोध से क्यों ग्रसित होती? लेकिन राकेश के तो वे जनक थे। उनके सुख-दुख की परवाह, उन्हें मुझसे अधिक होनी चाहिए थी। राकेश की रगों में उनका ही रक्त दौड़ रहा था। मेरे दोनों जेठ तो और भी निश्चिंत व दायित्वमुक्त थे। माता-पिता के प्रति बच्चों का कोई कर्तव्य भी बनता है, वे तो सोचना समझना भी नहीं चाहती थे। कोई कैसे इतना संस्कारहीन हो सकता है? बाबूजी कितने संस्कार वाले थे उनकी तपस्या ही बेकार चली गई। अम्मा जी यानी मेरी सास की मृत्यु पूर्व तक तो सब कुछ ठीक था। अम्मा स्वयं इतनी सक्षम थी कि बाबूजी के साथ-साथ अपनी भी परिचर्या कर लेती थी। यह सब तो अम्मा के दिवंगत होने के बाद हुआ। पत्नी की मृत्यु के पश्चात बाबूजी को न जाने क्या हुआ कि वे मानसिक एवं शारीरिक रूप से अस्वस्थ ही रहने लगे। कभी स्वाद लेकर खाते-पीते, तो कभी थाली फेंक देते। कभी धीमे-धीमे बड़बड़ाते तो कभी अवसादग्रस्त हो दो-दो दिन तक पड़े रहते। अनियमित दिनचर्या, रखरखाव की कमी से जल्द ही वे बीमार, चिड़चिड़े और कमजोर हो गए थे। तन्द्रा में पड़े पड़े उलजलूल बातें करते, चिल्लाते भी रहते।
बुढ़ापा यूं भी शारीरिक बल को परास्त कर देता है, ऊपर से बाबूजी की ऐसी अजब स्थिति थी। अम्मा के हाथ की कढ़ी का स्वाद उन्हें हरदम याद आता, तो कभी छोले-भटूरे की याद में लार टपकाते वे मौका पाते ही रसोई घर में पहुंच जाते और कांपते-हांफते बनाने के आधे-अधूरे प्रयास करने लग जाते। सच कहा है कि बूढ़े और बच्चे बराबर होते हैं। बाबूजी की पाचन शक्ति को जानते हुए भी हम अक्सर उनकी उचित-अनुचित मांग नकार देते थे। ऐसे समय बाबूजी की बेबसी भरी दृष्टि मैं क्या भूल पाऊंगी? कभी-कभी मैं पिघल जाती तो बाद में गंदगी और बदबू से दो-चार होना ही पड़ता। डॉक्टर की जरूरत पड़ जाती, साथ ही राकेश शंकालु हो मुझसे ही तकरार पर उतारू हो जाते और साफ-सफाई के लिए मदद के वक्त झुंझलाते- झल्लाते बाबूजी के साथ-साथ मुझे भी कोसते।
कितने अफसोस की बात है कि जिन बाबूजी ने अपने बेटों व परिवार के लिए अपना स्नेह, प्यार एवं समस्त पैसा रुपया कमाई खर्च कर दिया, उन्हें हम सबके बीच खुशी के पलों में शरीक तक करना किसी को गवारा न था। एक बार तो बाजार से मंगाकर कुछ खा-पी लेने पर बाबूजी की चाय में राकेश ने दस्त लगने वाली गोलियां ही मिला दी थी, जिसके कारण वे खाट से लग गए एवं कुछ भी अंट-शंट ना खाने के लिए बार-बार माफी मांगते रहे थे।
राकेश मेरे पति थे, उनके विरोध की कल्पना मेरे अंदर बैठी भारतीय संस्कारी नारी कैसे कर सकती थी। मगर राकेश के अंदर छिपी शैतानियत को अनुभव कर मैं कांप जाती। क्या इसी दिन के लिए बाबूजी ने अपने बच्चों को पिट्ठू चढ़ाया होगा। चलना, बोलना और दुनियांदारी को समझने की शक्ति का अनुभव कराया होगा। क्या ये व्यक्ति यही सब कुछ बूढ़े, आसक्त बीमार या अचेत होने पर मेरे साथ भी कर सकता है? तब मुझे राकेश अनजाने, अजनबी, क्रूर व हिंसा के पुतले दिखते। मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों के चलते पति के प्रति प्रेम, प्यार व मान-सम्मान धीरे-धीरे नफरत में बदलने लगा। कल को हमारे बेटे लव व कुश हमारे साथ यही सब या इससे भी बढ़कर करने लगे तो क्या होगा? मैं चिंता में रहने लगी। मगर राकेश में हैवानियत के साथ-साथ धूर्तता भी कम न थी। जो भी करते प्रायः बेटों से छिपकर ही करते थे।
मेरे दोनों जेठों को रुपया-पैसा मकान के साथ ही बाबूजी की भी दरकार ना थी, अतः बाबूजी हमारे ही होकर रह गए थे और अपनी समस्त चल-अचल संपत्ति राकेश के नाम ही लिख दी थी। अभी परिचितों-स्वजनों के सामने घर के सब लोग ऐसा दिखावा कर रहे थे कि बाबूजी के जाने का सबसे अधिक गम उन्हीं को हो रहा है। लेकिन मन-ही-मन सब निश्चित थे कि चलो अच्छा हुआ, बाबूजी की मुक्ति हुई। मगर मुक्ति का सवाल बड़ा पेचीदा है। हम सब तो बाबूजी सहित कुंभ के मेले में स्नान के लिए गए थे। लोग तो आँख मूँद कर मान लेते हैं कि तीर्थ क्षेत्र में हुई अकाल मृत्यु भी मोक्ष के लिए काफी है। मगर इंसानियत के नाते सोच कर देखिए कि एक वृद्ध जिसके भीतर अदम्य जिजीविषा मौजूद है, जो अच्छा खाना-पीना एवं परिवार की खुशियों के बीच रहकर उन्हें महसूस करता हुआ जीवित रहना चाहता है, वह अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाए, यह क्या गहन अपराध नहीं? क्या इसकी कोई सजा मुकर्रर कर सकते हैं आप? क्या समाज का ढांचा अब इतना चरमरा गया है कि कोई पिता अपने पुत्र पर भी विश्वास ना करें। आने वाले समय में नैतिकताबोध सिर्फ क्या किस्से-कहानियों में बचेगा या अपवाद स्वरूप कहीं नजर आएगा? आप यह तो मानते होंगे कि प्रत्येक इंसान के अंदर दैवीय एवं आसुरी शक्ति का वास होता है। यह हमारे ऊपर निर्भर होता है कि हम किसको जगाए रखते हैं। अपने निर्दोष निष्कलुष मन की दैवीय शक्ति के सामने अपने अच्छे-बुरे प्रत्येक कर्म का लेखा-जोखा सभी को देना होता है। इसलिए मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में ईश्वर के समक्ष हम खड़े होते हैं।
तभी सुप्रिया ने आकर मेरी तन्द्रा भंग कर दी।”,दीदी जरा सुनना तो…”
पश्चाताप और ग्लानि से भरे अपने विचारों में व्यवधान आते ही मैं घबरा उठी, नहीं… नहीं… मैंने तो कुछ नहीं किया। किया तो राकेश ने है, बाबूजी का हाथ नदी की गहरी धारा में राकेश ने छोड़ा था। मैं तो लव और कुश के साथ तट पर थी। बाबूजी की वे कातर निगाहें एवं फैली हथेलियां क्या कभी भूली जा सकती है?
“बेटा मुझे छोड़कर ना जाओ…” उनके अंतिम शब्द-रात दिन मुझे दिग्दिगंत से आते महसूस होते हैं। कनपटियां घमघमाती है। क्या राकेश को कुछ महसूस नहीं होता? सिर हिलाते हुए इनकार किया जा रही हूं, “बाबूजी बच जाएंगे, देखना वे आएंगे एक दिन। ऐसा नहीं हो सकता। वे जीवित है। यह शांतिपाठ किसलिए? भोज क्यों कर रहे हो? हमारे घर पर किसी की मृत्यु नहीं हुई है।”
सुप्रिया ने मुझे झकझोर कर चिंतातुर स्वरों में राकेश को पुकारा। राकेश आकर आग्नेय नेत्रों से मुझे तकते हुए डपते,” क्या उल्टा-सीधा बके जा रही हो? फिर मेरा हाथ थामकर मेरे आंचल को व्यवस्थित करते हुए स्नेह प्रदर्शन करने लगे और भीतर बाबूजी के कमरे में ले जाकर बैठा दिया। क्या मैंने बाबूजी के स्थान की प्रतिपूर्ति की है? क्या मेरे लव और कुश, जिन्हें मैंने अपने हृदय से लगाकर पल-पल बड़ा किया है। रक्त, मज्जा, आंचल की धार से सींचा है, क्या वे भी राकेश की तरह एक दिन मुझसे तंग आकर कहीं किसी कुम्भ में मुझे मोक्ष प्रदान कर देंगे? मैं भयभीत-सी बाबूजी के बिस्तर पर सिकुड़ी बैठी हूं। राकेश ने द्वार की कुंडी बाहर से बंद कर दी। बाहर बाबूजी की मुक्ति का अनुष्ठान चल रहा था। मैं सोच रही हूं, बहुत से लोगों के दो चेहरे होते हैं एक नकाब पर, दूसरा उसके भीतर। जो इतने बेदर्द इंसान होते हैं जिनके दिल भी नहीं होते। जो इंसान को संस्कारहीन बना देते है। अदम्य शांति ऊपर बरसती रहती है और भीतर असली चेहरा वीभत्सता का पर्याय होता है।

पूजा गुप्ता ,मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)
साहित्‍य सरोज लेखन प्र‍ि

About sahityasaroj1@gmail.com

Check Also

डॉक्टर कीर्ति की कहानी सपना

डॉक्टर कीर्ति की कहानी सपना

कहानी संख्‍या 50 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024 बात उसे समय की है जब …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *