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वो रिक्शा-अवनीश

बहुत पुरानी याद आप के साथ बांटना चाहता हूँ, ये याद है बालपन की। ये बालपन भी अजीब है, रहता है हम सभी के अन्तर्मन में, बहुत सी भूली बिसरी व कुछ पत्थर की अमिट लकीर सी खिंची यादों के रूप में।अब तो मैं  भी वरिष्ठ नागरिक की कैटेगरी में आ गया हूँ,दिखता भी वैसा ही हूँ, जब उम्र 65-70के मध्य हो तो रंगीन टी शर्ट,जीन्स,गोगिल,बालों की डाई आपकी बढ़ी उम्र छुपा नहीं पाती।बालों की सफेदी,बढ़ता गंजुपन,पॉवर वाला चश्मा सभी चश्मदीद गवाह बन जाते है आपकी अवस्था का, पर एक चीज़ जो बची रहती है वो है आपका अंतर्मन और उसमें जो है वो है आपका बचपन व उससे जुड़ी अनेकानेक यादें ,जो बहुत अच्छी भी होती है,मधुर भी व ढ़ेरों दुखी करने वाली भी।आप अपनी बाल्यावस्था के तन को तो याद नही कर पाएंगे, फोटो आदि यदि होगी तो भले ही कुछ कल्पनाओं में आ जाये पर आपका मन क्या चाहता था वो जरूर जरूर काफी कुछ याद रहता है,अभी भी जब आप उम्र दराज़ हो चुके है और कुछ ही समय बाद वहाँ पहुंच जाएंगे जहाँ से कोई भी वापिस नही आ पाता तब तक तो भी बालपन की यादें नहीँ बिसरती।

खैर, तो मैं बाँट रहा था अपनी  बचपन की याद जो जुड़ी है एक रिक्शे के साथ।अब मित्र ! मेरी इस रचना की भूमिका ये है कि मुझे बिल्कुल बचपन में ही मेरे दादाजी अपने साथ ले गए थे, वो रिटायर्ड थे दादी के साथ अपने दूसरे शहर के दूसरे मकान में रहा करते थे,मेरे पिता दूसरे शहर में जहां नौकरी वहाँ मेरे तीन भाइयों व माँ के साथ रहा करते थे।तीन चार महीनों में मेरे पिता अपने पिता व अपने बच्चे से मिलने आ जाया करते थे, कब आयेंगे कुछ तय नहीँ होता था।वो ट्रेन से आते थे और घर अक्सर दोपहर 2-3बजे तक।मैं यूँ ही रोज कि तरह अपने स्कूल से लौट रहा था,जैसे सभी बच्चे उस जमाने में लौटते थे मतलब पैदल ही,रास्ते मे पड़ी संतरे की गोली,गटागट वाली गोली,चमकते शीशे के पीछे सुंदर व स्वादिष्ट मिठाई,चूरन आदि की दुकानों को लालायित नजरों से देखते हुए।रास्ते मे यदि कोई टूटा डिब्बा या गोल सा पत्थर मिल गया तो उसे ठोकर मारते मारते घर कब पहुंच जाते मालूम ही न पड़ता,पीछे दोनो कंधे पर डोरी वाला मोटे से कपड़े का बस्ता,लीक करता नीली स्याही वाला पेन,स्लेट बत्ती ,कुछ रंगीन किताबे जिसमे कुछ मज़ेदार कहानियां व कविताएं होती थी,कुछ वर्ण माला अंकगणित बिल्कुल ही बिल्कुल शुरुआती दौर की शिक्षा होती थी।

रास्ते में कई रिक्शे घण्टी मारते निकलते रहते,उस दिन भी कुछ ऐसा ही था,मैं यूँ ही बस्ता लटकाए,आधी कमीज निक्कर  में आधी बाहर निकाले, छोटे छोटे काले जूतों से किसी भी चीज़ को ठोकर मारता हुआ स्कूल से घर लौट रहा था, एक चौराहा जैसा पड़ता था रास्ते में, जहां अक्सर भीड़ भाड़ रहती थी, मैं अनमना सा था कि अचानक मेरी निगाह रिक्शे में बैठी सवारी पर पड़ी मेरी मां व पिताजी मुझे खुशी से देख रहे थे,रिक्शा रुक चुका था,माँ ने जल्दी से उतर कर मुझे गोद में भर लिया,दोनो गालों पर ,माथे पर सभी जगह अपनी ममता की झड़ी लगा दी,पिताजी ने बस्ता ले लिया और मुझे रिक्शे पर संग बैठने को इशारा किया ,पर शायद भीड़ भाड़ थी और मैं रिक्शे के संग संग दौड़ते हुए घर तक आ गया,माँ की नजर मुझ से नहीं हट रही थी,शायद उन्हें में कुछ कमज़ोर लगा,या एक स्त्री बेहतर समझ सकती है कि बगैर माँ की ममता के बच्चा कैसा हो सकता है। कई बार मैंने उन्हें अपनी साड़ी की कोर से अपनी नम आंखों को पौंछते देखा।

घर आ गए ,एक दो दिन बाद मेरी माँ पिताजी के संग वापिस लौट गई, जाते जाते मुझे एक रुपये का सिक्का सबकी निगाह बचा कर दे गई।उस समय दादाजी मुझे रोज़ 2 पैसे या 3 पैसे का सिक्का रोज़ दिया करते थे जो स्कूल के बाहर बैठे गुब्बारे वाले या लाल खट्टे मीठे कुछ गीलापन लिए चूरन वाले की बिक्री का हिस्सा बनते थे,एक रुपया उस समय एक रुपया था,एक गरम दूध का मोटी मलाई से ढका कुल्हड़ एक रुपये में आता था,और ये कुल्हड़ मुझे अक्सर दादाजी छुट्टी वाले दिन अता फरमाते थे।खैर माँ चली गई,मेरी ज़िंदगी वही दादाजी कि देखरेख में कटने लगी,स्कूल की दिनचर्या चलती रही।हर दिन स्कूल से लौटते वक्त निगाहें उस चौराहे पर स्टेशन की तरफ से आते हर रिक्शे पर रहती ,जब रिक्शा हमारे घर वाली सड़क पर आता तो उसमें बैठी सवारी को बड़ी हसरत बड़ी उम्मीद से देखता, पर वो कोई भी होते मेरी मां व पिता उसमें नहीँ होते।

पर मां तो मां ही होती है,पता नहीं किस दवाब में,या श्वसुर का अकेलापन दूर करने हेतु मुझे उन्होंने दादाजी को सौप दिया होगा पर ये विरह यह अप्राकृतिक  कठोर व्यवहार अधिक न चल सका,मैं यह नही कह रहा कि दादाजी लाड़ दुलार नहीं करते थे सभी कुछ करते थे पर वो माँ न थे।जब मैं पिताजी के शहर,अपने भाइयों के पास लौटा गर्मी की छुट्टियों में तो फिर वापिस दादाजी के शहर नही लौटा। मेरा बचपन फिर लौट आया,भाइयो की संगति, हम सभी के मध्य दो तीन बरस का ही अंतर था,वो कैरम,बेताल,मैंडरेक की कॉमिक्स,कंचे,साइकिल,पतंग,लट्टू,लूडो,सांप सीढ़ी न जाने क्या क्या।तभी समझ आने लगा था  कि भाई चौबीसों घण्टे साथ रहता है और दोस्त कुछ ही समय। बड़े भाई की उपस्थिति ही आपको सुरक्षा दे जाती है और छोटो की रक्षा व पिटाई करने के लिए आप हो ही,ये मज़ा दोस्तो में कहाँ।बचपन बीत गया, जवानी भी।भाई भी अब बुज़ुर्ग हो गए है,अलग अलग परिवार है,रिश्ते की मस्ती अब बढ़ती उम्र की भेंट चढ़ गई है।अब तो न  दादाजी हैं न माँ ही रही, न ही पिताजी,सभी की तस्वीरें  घर की दीवारों पर स्थापित है व  मन मे अमिट यादे। ये यादे तब तक तो रहेंगी ही, जब तक ये मन इस तन से जुदा नहीं हो जाता। फिर भी जब तक ये मन है  न जाने क्यों तब तक हर स्टेशन से आने वाले रिक्शे पर एक  झूठीआस लगी ही रहती है ,एक अतृप्त निगाह अपनी अधूरी  व नितांत झूठी तलाश लेकर वापिस लौट आती है पर अब एक ही अंतर है,अब ये आंखे व दिल पथरा चुके है,नमी नहीँ आती,शायद ढीठ हो गए हैं। पक्का जान गए हैं अब आंखों, बालों ,माथे पर दुलार देने वाली इस दुनिया से ही जा चुकी है,अब न आएगी कभी भी।

पर एक विश्वास एक अटूट आस्था है कि यदि इस जहां में वो कहीं भी है तो मुझे मेरे हिस्से का लाड़-दुलार जरूर दे रही है और जो बच गया है वो तो अगले जनम में मैं उसका फिर बेटा या बेटी बन पैदा होऊंगा और अपने हिस्से का प्यार पा ही जाऊंगा।फिर न करूँगा  कभी उस रिक्शे का इंतजार।इसी आशा विश्वास के साथ शेष जीवन खुशी खुशी  ऐसी ही बचपन की अमिट यादों के संग काट रहा हूँ। आप सभी का सादर सप्रेम

अवनीश, बड़ौदा

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