सौरभ आफिस लौटकर ताज़े फलों का जूस पी रहा था तभी अंतरिक्ष दौड़ता हुआ आया और कहने लगा— ‘पापा आज दादू ने हमारी अलमारी के ड्राज में से इत्र की शीशी निकाल कर अपने बक्से में छुपा कर रख दी हैं।सौरभ अंतरिक्ष की बात सुनकर थोडा आश्चर्य चकित होकर अपने काम में लग गया और वह बोला—‘अच्छा ठीक है बेटे हम तुम्हारे लिए और ला देगें।’अंतरिक्ष पापा से वादा कराकर खुश होकर अपने भाई अनुसंधान के साथ खेलने भाग गया… उसे जाते देख सौरभ कहने लगा—-‘राशि आजकल पिताजी का स्वभाव बहुत अजीब होता जा रहा है कभी-कभी एकदम बच्चों जैसी हरकते करने लगते हैं।’
टेबल पर रखे हुए फूलो को टोकरी में सजाती हुई राशि बोली–‘ सौरभ इसमें सोचने की क्या बात है, यह उनका बूढ़ापा हैं, बूढ़ापे में आदमी बच्चा ही तो बन जाता हैं ।’ सौरभ ने प्यार भरे व्यंग्य लहजे में कहा — ‘हां राशि तुम तो जरूर अपने ससुर का पक्ष लोगी।’ राशि ने तुनक कर कहा __’सौरभ पक्ष लेने न लेने का प्रश्न नहीं हैं, पर मगर जब तुम स्वयं इस अवस्था से गुज़रोगे तो समझ जाओगे… चंचल मन और मस्ती से भरे बचपन के बाद प्रत्येक व्यक्ति के पास एक उद्देश्य होता हैं, चाहे वह लड़का हो या लड़की या कोई बचपन गुजरने के बाद अपने कर्तव्यों की पूर्ति में लग जाते हैं, जिन्हें वह कभी खुशी से तो कभी दुखी होकर तथा कभी मजबूरी में पूरी करता जाता हैं। कर्तव्य की राह पर चलते हुए वह इस दौरान अपने को भूल जाता है। जब वह अपने कर्तव्यों को पूरा कर लेता है तो उसकी वह अंतर भावना जागृत हो उठती हैं। और जब वह कर्तव्य को पूरा करने के लिए एक अवसर आता हैं तो पूरी कर लेता है जिसे हम कहते है, कि क्या बूढ़ापे में बच्चों जैसी हरकते करते हो या सठियाना गए हों।’
सौरभ हंसते हुए बोला –‘अच्छा…! अच्छा…!! अपने यह फालतू दार्शनिक विचार रहने दो राशि, वैसे हम कोई मनोवैज्ञानिक थोड़ी हैं ?’राशि ने मुस्कुराते हुए कहा—‘सौरभ तुम्हे यह मजाक लग रहा है, किन्तु यह जीवन की वास्तविकता हैं ,यदि पिताजी ऐसा नहीं करेंगें तो जीयेंगे कैसे, जीवन जीने के लिए उमंग, उत्साह, अध्यात्म, जागरूकता, दार्शनिक होना जरूरी है, मन का सुख सही मायनों में सुख है , भौतिक सुख तो नकली हैं, हमारे पौराणिक ग्रंथ, वेद- पुराण में भी यही कहा गया हैं। नहीं तो नीरस जीवन जीकर कोई व्यक्ति अधिक उम्र नहीं जी सकता। और स्वाभाविक हैं सच्चा सुख पाना तो असंभव सा हो जाता हैं।’ राशि, सौरभ इस विषय में बात ही कर रहे थे तभी मेज़ पर रखे सुंदर गमले के पास वाली खिड़की से दूर से ही उन्हें पिताजी आते दिखाई दिए। राशि ने कहा चलो! सौरभ पिताजी से इसी संदर्भ में बात करते हैं ,उनके बचपन को याद दिलाते हैं l’दोनों लपककर पिताजी के कमरे की तरफ गए। उन्हें देख पिताजी थोड़ा चकित हुए!! और कहने लगें-‘ क्यों क्या हुआ?’ सौरभ झुजलाहट ने झिझकते हुए कहा—-‘ कुछ नहीं थोड़ा आपसे बात करनी थीl’
सौरभ पिताजी को मुख्य कक्ष यानी बैठक कमरा (ड्राइंग रूम) में लेकर चला गया।तभी राशि शाम के नाश्ते के लिए रसोई घर में चाय बनाने लगीं। पिताजी एक नन्हे बच्चे के चंचल और कोमल मन की तरह जिज्ञासा से उसे देखते हुए बोले—‘ क्या बात हैं बेटा, कुछ समझ नहीं आ रहा है?’
सौरभ बोला—-‘ पिताजी हम आपके बचपन की शरारतों को सुनना चाहते हैं। आपकी सुनहरी यादें बचपन की बाते …l’
पिताजी जी थोड़ी देर आश्चर्य से सौरभ को देखा ,फिर हंसकर तकिए को दीवार के सहारे टिकाकर बैठ गए।उन तीनों को खिड़की के परदे के पीछे कमरे में बैठा देख कर, अंतरिक्ष और अनुसंधान भी हंगामा करते हुए बाबा के दाएं बाएं बैठ गए ।पिताजी अंतरिक्ष, अनुसंधान को देख मुस्कुराते हुए बोले जब में इस पाजी अंतरिक्ष के बराबर था तब एक बार चीनी मिट्टी के टूकड़ों के लिए तुम्हारे बाबा से बहुत पिटाई खाई थी…. पिताजी पुरानी स्मृतियों और सुनहरी यादों में खोकर बोले जा रहे थे,19 वी शताब्दी का दशक था बाल विवाह एक आम बात थी, जब हमारी शादी हुई तब हम दस वर्ष के थे और तब शेरवानी का रिवाज था, फिर कपड़े पहनकर तैयार हो गए। हमारे ताऊ इंग्लैंड में थे वे वही की नागरिक से विवाह कर चुके थे। वहा से वे यूरोप के फ्रांस से कई इत्र की शीशीयों को लाए थे। बहुत मन था, पर मांगने की इच्छा नहीं हुई ,तब लगा था दुल्हा तो हम बने हैं पर सेन्ट ताऊ के पास, उस दिन सोचा था ऐसा ही परफ्यूम खरीदेंगे पर बेटा, इस दौरान कभी खरीदने का ध्यान ही नहीं आया ये तो तुम्हारे भाई-बहनों ने बहुत लाकर दिए है किन्तु उस तरह की महकती हुई शीशी अंतरिक्ष के पास देखकर उन दिनों की याद आ गई,आज हमने यह शीशी अंतरिक्ष की ड्राज से निकाल ली हैं और उसके बदले यह ले आए हैं। ‘यह कहते हुए उन्होंने अपने कोट में दो शीशी निकाल कर अंतरिक्ष अनुसंधान को पकड़ा दी।
सौरभ पिताजी की बातों को सुनकर भाव विभौर हो उठा और उनकी गोद में लेटते हुए बोला–‘ पिताजी सचमुच बचपन कितना अच्छा होता हैं।’ पिताजी जी ने कहा पर आज अचानक तुमको हो क्या गया? अंतरिक्ष बीच में बात काटते हुए बोला दादाजी-दादाजी, मम्मी पापा से कह रही थी कि दादू अक्सर बचपन की बातें याद करते हैं। पिताजी ने राशि सौरभ को देखा और कहने लगे- सच है बेटा खाली समय में वहीं दिन याद आते हैं। दस वर्ष की उम्र में शादी हो गई थी और पन्द्रह वर्ष में एक बेटे के बाप बन गए थे इसके बाद तुम्हारे भाई-बहन आ गए। बाद में तुम लोगों की जिम्मेदारी आ गई। अब थोड़ी फुर्सत मिली हैं। राशि सौरभ को देख मुस्कुरा दी।
पिताजी ने उत्सुकता से उन दोनों को प्रश्न वाचक निगाहों से देखा lसौरभ बोला पिताजी राशि जीत गई हैं इसलिए। इसका कहना था कि अपने कर्तव्यों से निवृत होने के बाद जब व्यक्ति थोड़ा निश्चित हो जाता हैं, तो वह अपनी अतृप्त इच्छा को व्यहवारिक रूप में लाने की चेष्टा करता है। वह पुनः उन दिनों में लोटना चाहता हैं, अपने अपनो के साथ बिताए कुछ सुनहरी यादों को ताज़ा करता हैं। ‘
राशि बोली–‘शायद इसलिए ही आदमी बूढापे में, बच्चों जैसी हरकते करने लगता हैं।’
पिताजी ने कहा तुम लोगों का सोचना ठीक है किन्तु तुम लोगों ने अभी देखा ही क्या हैं। अभी बहुत कुछ समझना बाकी हैं।सौरभ, राशि निश्चिन्त होकर ड्राइंग रूम से बाहर निकले तो सौरभ को जूते पहनते देख राशि ने पूछा–‘ कहाँ चलने की तैयारी है ?’ ‘पिताजी के लिए चीनी मिट्टी के टूकड़े लाने के लिए ‘सौरभ ने कहा।
सौरभ तुम पिताजी, अंतरिक्ष, अनुसंधान को यह काम करने दो, इससे अच्छा हैं की अपना पेडिंग काम पूरा कर लो। और दोनो बच्चे भी पिताजी से कुछ न कुछ तो सीखेंगे। सौरभ ने राशि के साड़ी का प्लला खींचकर –‘कहा मेरी मनोवैज्ञानिक पत्नि ‘
राशि उसके आलिंगन से अपने को छुड़ाते हुए बोली___’ यह क्या बच्चो जेसी हरकते…?’
सौरभ उसे देखा बोला…’हा हा बूढ़ा जो हो गया हू तभी बचपनीं हरकते…l’ दोनों खिलखिला उठे I
लेखिका
डॉ. सुनीता श्रीवास्तव
इंदौर ,मप्र
9826887380