रुचि की सहेली दीप्ति जब से ब्रिटेन से लौटी तब से मिलने के लिए बेचैन थी। बेचैन होने का कारण था रुचि का फोन पर अपनी शादी तय होने की बात शेयर करना। रुचि की एक ही तो बचपन की सहेली है दिव्या, जिससे वह अपने मन की हर बात शेयर करती है। खुद रुचि भी तो बहुत बेचैन थी दीप्ति से मिलने को। जब दीप्ति की शादी हुई तब भी वह कहाँ जा पाई थी उसकी शादी में तब उसका पीएचडी का वायवा जो था। जिंदगी का पढ़ाई का आखिरी पड़ाव और सहेली की शादी। बहुत पीड़ित हुई थी रुचि उस वक़्त। उसने गिफ्ट जरूर भिजवा दिया था लेकिन मन उसका सहेली की शादी में ही लगा रहा था। शादी हुई तो दिव्या का पति उसे ब्रिटेन ले गया। दरअसल वह ब्रिटेन में ही जॉब कर रहा था। हालाकि बीच में वीजा के चलते दिव्या एक बार वापिस आयी भी लेकिन समय की कमी और ससुराल की व्यस्त जिंदगी के चलते रुचि से नहीं मिल पाई थी।
इस बीच रुचि का पीएचडी का रिजल्ट भी निकल चुका था और उसने इधर-उधर अप्लाई करना भी शुरू कर दिया था। जॉब का अभी कुछ संयोग नहीं बन पाया था। रुचि थोड़ी परेशान जरूर थी लेकिन विचलित नहीं हुई थी। इस बीच रुचि के लेखन की चर्चा भी खूब हुई। उसकी पहचान एक बेहतरीन रचनाकार के रूप में होने लगी। लेखन की कोई विधा उससे अछूती नहीं रही। काव्य की कोई विधा हो या कथा-कहानी की, वह लगभग हर विधा का ज्ञान रखती। पीएचडी का विषय भी बहुत अलग था। उपन्यासों में शैक्षणिक विमर्श को लेकर विस्तृत अध्ययन । लेख भी सामयिक लिखती, जिनकी चर्चा समीक्षकों-आलोचकों के बीच खूब होती। मुख्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपती तो उसे आत्मिक सुख मिलता।
पिता को शादी की चिंता और रुचि को नौकरी की लगन। इधर उसकी रुचि लेखन में बढ़ती गयी और अलग-अलग संस्थाओं से निमंत्रण आते। प्रगतिशील विचारों के वाहक पिता ने कभी उसके कार्यक्रमो में आने-जाने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई। अब रुचि एक चर्चित नाम हो चुका था। सुबह ही दिव्या का फोन आया-“हेल्लो, रुचि कहाँ है तू?””घर पर ही हूँ। बता, आ गयी तू ब्रिटेन से, मिलने आ रही है या अभी भी…..।”
“हाँ बाबा, आ रही हूँ मिलने। कब से नहीं मिले हम, कितनी बातें हैं जो तुझसे शेयर करनी है। और तुझे भी तो बहुत कुछ शेयर करना है ना।””हाँ सखी, बस अब तू जल्दी से हवा बनकर आ जा।””आती हूँ , बस जितने समय गाड़ी ड्राइव करने और सड़क पर लगेगा उतना ही इंतज़ार कराऊंगी।”-कहकर दिव्या ने फोन रख दिया था।रुचि दिव्या का इंतज़ार करने लगी। वह ड्राईंग रूम से आपने रूम मे गयी तो उसे उदासी ने जकड़ लिया। पिताजी ने घर आकर सूचना दी थी कि रूपेश की फैमिली इंदौर से पटना आ रही है । शाम को यहाँ आएंगे रुचि को देखने। रुचि अगर उन्हें पसंद आ गयी तो वे लोग इसी साल शादी के लिए तैयार हैं। बस एक बार रुचि से मिल लें।
रूपेश और उसका परिवार शाम को करीब पांच बजे रुचि को देखने उनके पटेल नगर स्थित फ्लैट पर पहुँच गया था। प्रथम तल पर था उनका फ्लैट। घुसते ही एक बड़ा सा ड्राइंग रूम। उसके साथ ही डायनिंग हॉल जिससे लगता हुआ कमरानुमा किचेन और किचेन के अगल बगल में दो बैडरूम। एक बैडरूम रुचि का और दूसरा माँ-पिताजी का। आधुनिक जमाने में भी रुचि ने कभी माँ-पिताजी को मम्मा- पापा या डैड सब नहीं कहा था।रुचि परिवार में इकलौती थी। कोई भाई-बहन नहीं जिससे मित्रवत बातचीत कर सके। या अपने मन की बातें कर सके। रुचि कितनी ही बार खुद को अकेला महसूस करती। जब स्नातक के प्रथम वर्ष में एक क्लासमेट ने उसका रास्ता रोक तंग करना शुरू किया था तब भी उसे बहुत महसूस हुआ कि काश कोई भाई या बड़ी बहन होती तो उसकी इस नाजुक वक़्त में जरूर मदद होती। कितने ही दिन वह वेदना सहती रही थी लेकिन उसकी हिम्मत उस वक़्त माँ-पिताजी से कहने की नहीं हुई । जब पानी सिर से जाने लगा और उसने लगातार कॉलेज की छुट्टी की तो पिताजी ने ही पूछा था -” बेटा, क्या बात है आजकल कॉलेज की छुट्टियाँ हैं या तबियत ठीक नहीं है?” फूट पड़ी थी रुचि, उसने पिताजी को सुबकते हुए सारी बात कह दी थी। तब पिताजी स्वयं उसके साथ कॉलेज गए थे और उस लड़के को बड़ी नसीहते देकर रुचि से कहा था-“रुचि बेटा, अपनी लड़ाई यहाँ खुद लड़नी पड़ती हैं। अब स्नातक कर रही हो। अब नहीं तो कब बोल्ड बनोगी?”उस दिन रुचि ने मन में निर्णय लिया कि जीवन में कभी ऐसा दिन नहीं आने देगी जब वह खुद को असहाय समझे और इस तरह उसे पिताजी के सहारे की जरूरत इस तरह पड़े।
रूपेश और उसका परिवार पहुँचा तो उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाया गया। पिताजी आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति हैं, उन्होंने रुचि को आवाज लगाई। रुचि अंदर से ड्राइंग रूम में आई तो पिताजी ने परिचय कराते हुए कहा-” रुचि बैठो, देखो ये रूपेश हैं, और ये इनके मम्मी और पापा। और ये रूपेश की छोटी बहन विजया। रूपेश के पापा बोले-” अरे हरिमोहन जी आप भी कहाँ इतने औपचारिक हुए जाते हैं, कितनी छोटी थी रुचि तब से हम दोनो परिवारों का मिलना-जुलना है, बस रूपेश और रुचि ही नहीं मिले कभी एक-दूसरे से।”रूढ़ि ने देखा रुपेश का आकर्षक चेहरा है, साँवला रंग लेकिन नयन-नक्श बहुत ही तीखे। हीरो स्टाइल बाल, लंबे और घुंघराले। ऐसी ही एक छवि तो रुचि ने अपने होने वाले लाइफ पार्टनर की बना रखी थी। जाने क्यों उसे गौर वर्ण लड़के कभी पंसद नहीं आते थे। उसे लगता कि गेंहुआ या साँवला रंग लड़को का कितना मनभावन होता है। एक नजर में ही उसे रूपेश पसन्द आ गया था। उसकी ऑंखें देख रुचि मानो दीवानी हो गयी थी। रुचि को उसकी आँखों में एक आत्मविश्वास दिखा था, एक सच्चाई थी। साथ ही एक गंभीर व्यतित्व नजर आया रुचि को रूपेश के अंदर। उसने मन ही मन निर्णय कर लिया की ये ही मिले मुझे जीवन साथी के रूप में। रुचि की तंद्रा तब टूटी जब पिताजी ने कहा-” रुचि नौकर चाय रख गया है, प्यालियों में डालकर सर्व करो।”
रुचि उस पल झेंप सी गयी थी-जी” बस इतना ही कह पाई-” जी पिताजी।”उसे कुछ अंदाजा हुआ जब सबने जोर का ठहाका लगाया। रुचि ने ये देखना जरूरी समझा कि रूपेश भी तो उसकी चोरी पकड़े जाने पर मुस्कुरा तो नहीं रहा। वह रूपेश के चेहरे को देख संतुष्ट हुई कि वह शांत है।चाय का दौर खत्म हुआ तो पिताजी ने कहा-” अरे रुचि जाओ रूपेश को अपना कमरा दिखाओ।”रुचि ने पुनः मात्र जी पिताजी कहा और रूपेश को उठने का इशारा कर खुद सोफे से उठ खड़ी हुई।रूपेश रुचि के पीछे-पीछे चल पड़ा। अंदर दाखिल हुआ तो उसकी निगाहें किताबो की रेक पर जाकर स्थिर हो गयी। उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा-” पढ़ी हैं ये सब किताबे?””जी एकदम पढ़ी हैं, तभी यहाँ रखी भी हैं।”
रूपेश अगले पल निरुत्तर था, आगे क्या बात करें नहीं सूझा था।रुचि का कमरा बड़े करीने से सजा था। एक दीवार पर गिटार टंगा हुआ तो दूसरी दीवार पर हाथ से पेंटिंग की हुई। रूपेश को अंदाजा हो गया जरूर ये पेंटिंग भी रुचि ने खुद बनाई होगी। पूछना चाहता था लेकिन अब पूछने की हिम्मत न जुटा पाया। रुचि ने कहा-” बैठिए रूपेश बाबु।“”जी।”- कहकर रूपेश ने कमरे में चारो तरफ नजर दौड़ाई। बेड के साथ एक आरामकुर्सी और एक छोटी रीडिंग टेबल के साथ लकड़ी की आकर्षक कुर्सी। उसने कुर्सी को खींचा और उस पर बैठ गया।
दोनों ने एक दूसरे के डेट ऑफ बर्थ से लेकर हॉबी और न जाने क्या-क्या पूछ डाला। साहित्य राजनीति, फ़िल्म उद्द्योग, सब विषयों पर बात हुई। कुछ ही पलों में दोनों को लगा ही नहीं था कि ये पहली मुलाकात है। और वह शादी के लिए एक-दूसरे को पसंद/नापसन्द के लिए एक दूसरे के आमने-सामने बैठे हैं। रूपेश ने अपनी पसन्दगी उसके सामने जाहिर की तो उसने भी अपने इरादों से अवगत करा दिया।रुचि की बात करने के अंदाज और उसकी साहित्य की समझ को देखकर रूपेश दंग हुए बिना न रहा।सिर्फ भारतीय साहित्यकारों पर ही नहीं विदेशी साहित्यकारों पर भी वह गहरी समझ रखती थी। रुपेश खुश था कि उसका विवाह ऐसी लड़की से होगा जो मात्र घरेलू नहीं है, न ही सास- बहू सीरियल तक उसका ज्ञान सीमित है। उसे लगा कि रुचि के साथ देश-विदेश की राजनीति से लेकर समाज में घटित घटनाओं आदि पर खूब चर्चा हो सकेगी। उसे लगा कि एक परफेक्ट पत्नी की तलाश आज खत्म हुई। अभी बाते हो ही रही थी कि पिताजी का बुलावा आया गया। डिनर का समय था। नौकर सारा खाना तैयार कर चुका था। डिनर टेबल पर ही शादी की रजामंदी की बात होने लगी। रूपेश के परिवार ने शगुन के तौर पर इक्यावन सौ रुपये देकर अपनात की रस्म पूरी की। डिनर के बाद वह लोग चले गए।
रुचि की चेतना डोर बेल बजने से लौटी। वह दरवाजा खोलने के लिए मेन गेट पर पहुँच दरवाजे को खोलती है। सामने दिव्या खड़ी है। दिव्या को देख रुचि दौड़कर गले लगा लेती है। दोनो सहेलियां अंदर आती हैं। दिव्या से दोस्ताना इस कदर घना है कि उसके साथ ड्राइंग रूम में बैठने की बाध्यता एकदम नहीं है। रुचि और दिव्या सीधे बैडरूम का रुख करते हैं।चाय पानी की औपचारिकता के बाद रुचि ड्राई फ्रूट्स का डिब्बा खोल दिव्या के सामने रख देती है। दिव्या काफी देर तक अपनी और पति हिमांशु की बाते सुनाती रही। ब्रिटेन की बातें। टेम्स नदी के किनारे टहलने की बाते और हिमांशु के साथ करीब होने की बातें। साथ ही आने वाली खुशखबरी के अहसास की बातें। दिव्या अपनी भावनाओं में इतना बह गई कि उसे अहसास ही नहीं रहा कि रुचि भी बहुत कुछ अपने अंदर छुपाये है जो वह कहना चाहती है। जैसे ही उसे अहसास हुआ उसने कहा-“रुचि ये सब तो हुई मेरी कहानी अब अपना बता मेरी जान।,”
रुचि ने दिव्या से कहा-” दिव्या तुम्हें तो मालूम ही है कि मुझे साहित्य से कितना प्रेम है और अब तो रुचि भट्टाचार्य साहित्य की दुनिया में एक स्थापित नाम है। देश के कोने-कोने से इनविटेशन आते हैं। ये तय करने में भी कई बार परेशानी होती है कि किस कार्यक्रम में शिरकत करूँ और किसमें न आ पाने असमर्थता प्रकट करूँ।”“ये सब बातें जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। मुझे ख़ुशी है कि मेरी सहेली आज साहित्य में एक चर्चित नाम है।““हाँ दिव्या ये सच है लेकिन एक सच और भी है, इस समाज का सच, इस पुरुषसत्ता में जकड़े समाज का सच, आधुनिक होती दुनिया के दकियानूसी होने का सच।“-कहते-कहते रूचि का चेहरा गंभीर हो गया। दिव्या उसे ध्यान से सुन रही थी। रूचि ने कहना शुरू किया-“मेरी प्रसिद्धि का असर पूरे पटना में ये है कि यहाँ का हर चर्चित साहित्यकार रूचि भट्टाचार्य को नाम से जानता है, यहाँ की हर छोटी बड़ी संस्था के कार्यक्रम का इनविटेशन मुझे होता है, या फिर इवेंट ऑर्गनाइज करने का दायित्व मुझ पर होता है, नवहदित लेखकों में कोई ऐसा नहीं जो तुम्हारी इस सखी से परिचित न हो और उससे सलाह न लेता हो।“ये सब सुन मुझे फक्र हो रहा है रूचि, लेकिन इन सब बातों से तेरी परेशानी का क्या सम्बन्ध?”
“सम्बन्ध है सखी, मेरी प्रसिद्धि की ही वजह से पिछले हफ्ते मुझे देश की सर्वव्यापी और सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से एक बड़ी इवेंट ऑर्गेनाइज करने का मौका मिला, उस पूरी इवेंट को डिजाईन करने, आगंतुकों के चयन से लेकर साहित्यकारों के नाम तक चयन करने का अधिकार मुझे दिया गया। दिव्या ये इवेंट मेरी लाइफ का सबसे बेहतरीन मौका है। इस एक इवेंट से मैं राज्य स्तर से अन्तर्देशीय स्तर पर चर्चित हो जाऊँगी।““ये तो ख़ुशी की बात है लेकिन मुझे तेरी सब बातें अभी भी पहेलीनुमा लग रही हैं।“नौकर चाय रखकर चला गया, रूचि ने कहा-“पहले तू चाय पी फिर मैं तुझे बताती हूँ कि मैं किस जद्दोजहद से गुजर रही हूँ?”दोनों सहेली चाय के कप उठा चुस्कियां लेने लगी थी। सर्द शाम में चाय की गर्मी भी रूचि के दिमाग के सुन्न पड़े तारों को गर्माहट नहीं दे पा रही थी। रूचि फिर विचारों के अंधड़ में घिर गयी।
पीएचडी के दौरान वह डाटा इकठ्ठा करने के सिलसिले में एक संगठन के लोगो को इंटरव्यू करने गयी तो उसे पता चला कि इस संगठन की एक इकाई सवर्जन राजनीतिक दल के नाम से रजिस्टर्ड है जिसका उद्देश्य सामाजिक और राजनैतिक जागरूकता फैलाना है। संगठन के कार्य करने के तरीके और उद्देश्यों से वह इतना प्रभावित हुई कि वह खुद उसकी सक्रिय सदस्य बन गयी। पंचायत चुनाव के समय उन्होंने एक इवेंट पर काम करना शुरू किया, घर-घर जाकर प्रचार करना कि किसे वहट करें, किसे नहीं करें? और वहट क्यों करें? रूचि का विचार था कि हमें नोटा का प्रचार करना चाहिए। संगठन में काम करते हुए उसकी दिलचस्पी महिलाओं के विचार जानने की हुई, उसने महिलाओं से जब किसी व्यक्ति या पार्टी के लिए वहट करने के विचार जानने चाहे तो उसे जानकर आश्चर्य हुआ कि अधिकतर महिलाओं का कहना था कि जिसे उनके परिवार के पुरुष चाहेंगे वे उसी को वहट करेंगी। उसने आश्चर्य जताया-“ अरे वहट आपका निजी अधिकार है और गोपनीयता उसकी जरुरी शर्त है, आप इसे कैसे किसी के कहने से वहट कर सकते हो? ये सही नहीं है।“
लेकिन उन महिलाओं का तर्क था कि हमारे परिवारों में यही होता आया है यहाँ हर निर्णय पुरुष ही लेते हैं। बड़ा आश्चर्य ये कि पढ़ी लिखी बेटियां-बहुएं भी इसे सही ही मान समर्थन में थी। तब रूचि ने अपने प्रयासों से पढ़ी लिखी लड़कियों को समझाना शुरू किया कि कैसे चुनी हुई सरकार की नीतियों से हमारा जीवन प्रभावित होता है? उसकी मेहनत धीरे-धीरे असर लायी और अमुख चुनाव में नोटा ने रिकॉर्ड बना सबको चौंका दिया था, इस एक प्रयास से रूचि का रुतबा इतना बढ़ा कि उसे पार्टी-संगठन में बड़े पद दिए जाने की वकालत होने लगी। रूचि संगठन की सबसे सशक्त कार्यकर्त्ता थी। उसको किसी बड़े चुनाव में बतौर प्रत्याशी उतारने के कयास भी लगाये जाने लगे थे। हर मीटिंग, मार्च में उसी की चर्चा होती। अचानक हुई एक घटना के चलते उसने खुद को संगठन से अलग कर लिया था, किसी वरिष्ठ साथी के साथ उसका नाम जुड़ने से वह आहत हुई थी, अंततः उसने खुद को सब चीजों से अलग कर लिया था। चाय का कप ख़त्म कर दिव्या ने देखा रूचि कहीं खो गयी है। उसने कहा-“रूचि तुम्हारी चाय ठंडी हो गयी, तुम कहाँ खोयी हो?”
रूचि जैसे तन्द्रा से बाहर आई और उसने कहा-“ दिव्या चाय के साथ-साथ मेरे कितने अरमान यूँ ही ठन्डे हो गए। सत्तारूढ़ दल द्वारा दिए गए इस मौके को मैंने रुपेश से शेयर किया, मुझे लगा कि रुपेश इस बात से बहुत खुश होगा, मैं अपनी सी ख़ुशी को रुपेश से बांटे बिना खुद को नहीं रोक पाई थी।““रुपेश खुश ही हुआ होगा, इस बात को सुन?” -दिव्या ने कहा।“काश ऐसा हो पाता, उसने जो कहा उसे सुन मेरे हृदय को बड़ा आघात पहुँचा। उसने कहा, रूचि जिस पार्टी ने तुम्हें इवेंट ऑर्गेनाइज करने का जिमा सौंपा है, व्यक्तिगत रूप से मुझे वह पार्टी पसंद नहीं है इसलिए तुम उस इवेंट को नहीं कराओगी।““लेकिन वह ऐसा कैसे कह सकता है”-दिव्य ने कहा।
“बस दिव्या यही एक बात है, जिसके चलते मुझे झटका लगा, मैं उम्मीद नहीं कर सकती थी, जो मेरा जीवनसाथी बनने जा रहा है वह मुझे मेरे जीवन के एक बड़े इवेंट के लिए मात्र इसलिए मना कर सकता है क्योंकि उसे अमुख पार्टी पसंद नहीं है।““फिर तुमने की सोचा तुम इस इवेंट को करोगी?”-दिव्या ने आगे पूछा।“इवेंट तो मुझे करनी ही है लेकिन उससे पहले मैंने एक बड़ा फैसला लिया… ।““क्या?” “मैंने कल ही रुपेश को फोन करके बोला-रुपेश मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती, और मैंने उसे साफ-साफ शब्दों में स्पष्ट वजह भी बताई कि पढाई-लिखाई से मॉडर्न, कपड़ों से मॉडर्न लेकिन सोच से इतने रुढ़िवादी व्यक्ति को मैं अपना जीवनसाथी नहीं चुन सकती जो अपने विचार अपने पार्टनर पर थोपे, मैंने उसे कहा कि अच्छा हुआ शादी से पहले तुम्हारे विचारों का पता चल गया, वर्ना मेरी तो दुनिया ही तवाह हो जाती।बता दिव्य मैंने सही किया न?“
“जब निर्णय हो ही गया तो अब ये क्या सोचना कि निर्णय सही हुआ या गलत?घर में सब लोगो की क्या राय है?”“पिताजी और माँ कभी अपने फैसले मुझ पर थोपते नहीं, उन्हें मेरा ये निर्णय भी सहज रूप से स्वीकार है।“अभी दोनों सहेलियाँ बात ही कर रही थी कि रूचि के मोबाइल की घंटी बजी, उसने कॉल को पिक किया। उधर से आवाज आई-“ रुपेश हियर।“रूचि ने रॉंग नंबर कह कर कॉल को डिसकनेक्ट कर दिया। उसके होठो ने पुनः बुदबुदाया रॉंग नंबर।
सन्दीप तोमर
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