कृष्ण-कुंज खाली हो गया।खाली!सब कुछ होते हुए भी एक खालीपन! सूनापन। न कृष्ण हैं न कृष्णा। अम्मा-बाऊ जी की लिए ही तो छोटे ने खरीदा था यह घर। बड़की भाभी ने ढलती सांझ में घर से बाहर निकाल खड़ा कर दिया था तब बूढ़े बाऊजी और अम्मा किराए के मकान के लिए यहांँ-वहाँ भटकते रहे। दुर्वह कठिन समय!छोटा बाऊ जी से कुछ ज्यादा ही अटैच्ड था पर उसकी बहू उतनी ही डिटैच्ड। बड़के ने अपने कर्तव्यों से पल्ला झाड़ा तो छोटे ने कर्त्तव्यों के पल्ले की किनार पकड़ एक मकान अम्मा-बाऊ जी के लिए खरीद दिया।
“बुढ़ापे में आश्रय दिया है। तपती दोपहर में जलते सूरज से बचाया है।”अम्मा-बाऊ जी निहाल हो गए।
छोटे को आशीषों से मालामाल कर दिया।गृह-प्रवेश हो गया। घर कीमती सामानों से सज गया।
छोटी बहूरानी भी आईं।बड़ी ठसक से,घर की मालकिन जो ठहरी,घर उन्हीं के नाम था।कुतुबमीनार सी ऊँची नाक किए महारानी पलंग पर विराजी रहीं।
अम्मा जी को कोई गिला शिकवा न था।
“क्या है न बिट्टी छोटी अपनी ही तो है उसकी चाकरी करने में भी कोई बुराई थोड़े ही है।चार दिन को आई है, आराम कर ले और मेरा क्या है? मुझे तो काम करने की आदत है।” धीरे से मुझे समझा देतीं,पर मैं समझ कर भी कभी न समझ पाती। वो हँसते-मुस्कुराते छोटे और उसकी बहू के पीछे लगी रहतीं।यह बुढ़ापा भी आदमी को कितना असहाय बना देता है।छोटी और मैं सब देखतीं पर हम चुप थीं।पराई जो ठहरी! ‘लड़कियाँ पराई होती हैं।’ यह हमने बचपन से ही घुट्टी संग ऐसा पिया कि आँखों के आगे सब कुछ होता रहा पर बेटियों के होंठ न खुले मानों जीभ तालू से चिपक गई थी। पैर के अंगूठे के नाखून से ज़मीन खोदने की कोशिश करती रही नाखून टूट गया पर ज़मीन पर खरौंच तक नहीं आई,जस की तस बनी रही। आँखें भरभरा आईं! भरभराती आँखों को आँचल से पोंछ भी लेतीं, पर दुख की कालिमा फैलने का डर रहता।
“अम्मा तुम जाओ ,रसोई हम देख लेंगे।”
अम्मा को बेटियों से काम कराने में कोई गुरेज न था। छोटी और मैं दोनों जुट जातीं।सुबह का चाय-नाश्ता, दोपहर का खाना सब चटपट तैयार कर टेबल पर लगा सब के सब अम्मा-बाऊजी के कमरे में बड़े पलंग पर बतियाने बैठ गए। कितने समय बाद में सब बैठे बतिया रहे थे।ढेरों बातें! बचपन के गलियारों में दौड़ गए… कोरेगाँव का क्वार्टर… पंछियों के बसेरे… आँगन में नीम और पीपल के घने वृक्ष… कॉलोनी के पीछे आम की बगिया… जामुन, लसोड़े ,शहतूत,गमकते महुए के पेड़… तोतों के कुतरे मीठे आम… पुरानी बावड़ी जिस की सीढ़ियाँ उतर हम उसके के चारों ओर बने कमरों के दालान में जामुन उठाने चले जाते… नाले के पास खड़े खजूर, इमली और बेर के पेड़… स्कूल बस के आने तक पेड़ों से गिरे खजूर, इमली,बेर चुनकर अपने बस्ते के हवाले कर देते। “कितनी सुगम,सरल और सहज थी न जिंदगी।” एकाएक मेरे मुँह से निकल गया। बाऊ जी ने गहरी सांस भर कहा- “जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।”
बाऊ जी के चेहरे को गौर से देखा गौरवर्णी, रक्ताभ, तेजपूर्ण आत्मविश्वास से लबरेज चेहरा।
रामचरितमानस के दोहे-चौपाई जिन्हें कंठस्थ हैं, ऐसे बाऊ जी जीवन पथ पर कैसे विचलित हो सकते हैं।राम जी की कृपा मान सुख-दुख सब कुछ सहज ही नतशिर स्वीकार कर लिया। किसी से भी कोई गिला शिकवा नहीं।
हाँ! अम्मा जरूर बड़ी भाभी से नाराज थीं। शायद वे अपनी बड़बोली, बड़की बहू को उसके कर्कश बोलों के लिए कभी माफ नहीं कर पाईं।
अम्मा धीरे से बोलीं- “गुजर जाएगी बस ऐसे ही।”
चारों बच्चों में बड़के के लिए उनका प्रेम जग जाहिर था। इसीलिए शायद उनकी ममता को ठेस पहुँची थी।
दो-चार दिन रह कर सभी लोग अपने-अपने परिवारों संग अपने-अपने घर को चले गए।
रह गए अम्मा-बाबूजी, सरकारी नौकरी थी सो महीने के महीने पेंशन आती रही। जिंदगी ढर्रे पर आ गई।दाल, रोटी, छत सब कुछ था पर मन भूखा,शीतल छांव की तलाश में भटकता रहा। भरेपूरे परिवार के रहते अकेले।अभी तो दोनों थे पर दोनों भी कब तक? फोन आते …छोटा पहले हफ्ते में एक फोन कर हाल-चाल पूछ लेता, फिर दो हफ्ते में एक बार और अब तो इंतजार करते करते महीना भी हो जाता। “बड़ा अफसर है बेचारा! समय नहीं निकाल पाता होगा।”बाऊजी धीरे से कहते और अम्मा बाऊजी के गौरवर्णी क्लांत हो आए मुख को देख कुछ सहम जातीं। अपनी सूती धोती से चश्मा साफ कर फोन में झाँकतीं,कान की मशीन ठीक कर पति के कंधे पर हाथ रख धीरे से कहती-“हाँ सही है।टाइम नहीं मिला होगा।कितना बिजी रहता है।”और फिर उस दिन….. टी.वी. देखते- देखते ही अचानक बाऊ जी सीने पर हाथ रख थोड़ा बैचेन से हो कर बोले-“कुसुम कुछ ठीक नहीं लग रहा। जरा पड़ोस से बिट्टू को बुला लो। पर हां घबराने की जरूरत नहीं है।”
अम्मा का दिल बैठ गया। दौड़ी भागी बिट्टू के घर का दरवाजा खटखटाया।”ओ बिट्टू! देखो जरा तुम्हारे अंकल को, पता नहीं एकदम तबीयत बिगड़ गई। डॉक्टर को बुला ला रे बेटा।” डॉक्टर को बुलाने लाने की नौबत ही न आई।जब तक वे लौटी तब तक दरवाजे की ओर तकती बाऊ जी की आँखें निष्प्राण देह संग निष्प्राण हो गईं थीं।
“ऐ बड़के के बाऊ जी!ऐ बड़के के बाऊ जी!” बाऊ जी की निष्प्राण देह को वे झकझोरती रहीं। सप्ताह में चार दिन उपवास करने वाली सावित्री सी अम्मा, बाऊ जी को यमराज के हाथों से छुड़ाने की कोशिश करती रहीं! पर बाऊ जी में कहाँ प्राण लौटने थे। घर फिर बेटे-बहुओं और पोते पोतियों से भर गया पर अम्मा का संसार तो सूना ही था।
बड़का भी अपने परिवार संग आया था पर अम्मा की शून्य में तकती आँखें अबोली ही रहीं। थकी-निढाल अम्मा! अब अम्मा का क्या होगा?मन में चिंता सुलगती रही पर…. लड़की हूँ, मुँह से एक शब्द न निकला। पराई हूँ।मायके की बातों में परायों का कैसा दखल? छोटी भी मुझसे अलग कहाँ थी? फिर भी मुँह में चिपकी ज़ुबान से धीरे से निकल ही गया-“अम्मा को ले जाऊँगी अपने साथ।”
अम्मा ने आँखें उठाकर देखा…कुछ पिघला, कुछ बहा और फिर एक शांति छा गई।
“बेटा मैं यहीं रहूँगी। तुम्हारे बाऊजी के संग।”
निगाह घुमा कर बेटों की ओर देखा।दोनों की उलझन दूर हो गई थी।एक गहरी सांस भरकर दोनों बाऊ जी की हार चढ़ी तस्वीर को देखने लगे।
तेरह दिन बीत गए, तेरहवीं भी हो गई।सब ने अपना-अपना सामान बाँधा और निकल गए। बेटियाँ भी अपने पतियों के साथ हो लीं। पर साथ जाकर भी वे साथ न जा पाईं। लग रहा था कि अम्मा के साथ अम्मा के अंगना में ही बहुत कुछ छूट गया है।
बाऊ जी की यादों को सीने से लगाए अम्मा सुबकती हुई अकेली रह गईं।
“कैसी हो अम्मा? खाना खा लिया? क्या बनाया?”
दिन-रात फोन कर अम्मा के हाल-चाल पूछतीं और जैसे ही परिवार में सास-ससुर से अनुमति मिलतीं अम्मा के पास दौड़ी चली आतीं। “अम्मा डॉक्टर के पास आँखें चैक करानी है न? मोतियाबिंद की दवाई लानी है न? दाल-चावल किराना भर दें”। पूरा घर चाक-चौबंद कर,पाँच -सात दिन बाद फिर अपने-अपने घर चली जातीं पर मन अम्मा के आँगन में ही विचरता रहता। दो दिन से अम्मा की तबीयत ठीक नहीं चल रही। “कुछ खास नहीं बेटा!सर्दी जुकाम-बुखार ही है। ठीक हो जाएगा।”
“अम्मा हम आ रहे हैं आप चिंता मत करो।”
“अरे नहीं रे बिट्टू है न। बहुत अच्छा लड़का है। माँ जैसा ही मानता है। ईश्वर उसे खूब खुश रखे।”
हम अम्मा के पास पहुँचते उससे पहले ही बिट्टू का फोन आ गया।
“अम्माजी को चैक अप के लिए अस्पताल ले गए थे। सब ठीक था। एकदम से अटैक आ गया।”
“नहीं!नहीं! अम्मा तुम नहीं जा सकतीं।”मेरा क्रंदन दूर-दूर दीवारों के पार तक फैल गया।”नहीं !अम्मा नहीं! हम आ रहे थे न।जरा रुक नहीं सकती थीं। हमेशा अपनी मर्जी की करती रही और…अनर्गल प्रलाप रास्ते भर रोती रही
‘कृष्ण कुंज’ पहुँच गए पर द्वार पर राह तकती अम्मा न थीं। “अम्मा! अम्मा! तुम्हारी बड़की बिटिया आई है।इस बार हमारे आने की तुमने कोई तैयारी नहीं की”? प्रलाप जारी था “अम्मा! अम्मा!” ।अंदर का दुख सभी बांध तोड़ कर बाहर उमड़ आया।
चेहरे मुस्कान लिए चिरनिद्रा में लीन अम्मा। मुख पर क्रोध,क्षोभ, चिंता का कोई निशान नहीं।अम्मा!बाऊ जी!आह! दोनों ही छोड़ कर चले गए। जलती आँखें फिर बरस पड़ीं। छोटी भी आ गई थी। अम्मा को देख पछाड़ खा कर गिर गई। खुद को संभाल , मैंने छोटी को पानी देने के लिए फ्रिज खोला… चीनी मिट्टी के कटोरे में दहीबड़े, दूसरे कटोरे में खीर, बड़े डोंगे में पकोड़े वाली कढ़ी… तो क्या अम्मा को उनके जाने और हमारे आने का अहसास हो चला था ! फूट कर रो पड़ी मैं।
“अम्मा तुम तो हमारे आने की तैयारी करके गई हो।” हमेशा कहतीं-“तुम बेटियाँ तो पराए घर की हो। तुम पर हमारा कोई अधिकार नहीं है।” मैं कितना कहती रही पर मेरे बहुत कहने पर भी मेरे पास चार दिन न रहीं। सिर पर प्यार से हाथ रख धीरे से कहतीं -“लड़की के घर नहीं रहते लाडो।” लड़की! पराई होने का दर्द पीती रही मैं और शायद अम्मा साथ में तुम भी इसी दर्द को अपने अंतर में उतारती रहीं। तभी तो जाते-जाते भी इस पराए धन के लिए इतना मोह। उमड़ते सैलाब को संभाल फ्रिज बंद कर दिया। अम्मा! तपती धूप का ताप अधिक महसूस हो रहा है। तुम्हारे आँचल की छाँह जो सर पर न रही अब।
सब है पर बिखरा -बिखरा सा….चार दिन में ही सभी रीति रिवाज हो गए । भरे मन और धुंधलाई आँखों से कृष्ण-कुंज से आखरी बार विदा ली… पराए घर की ,पराए धन वाली तुम्हारी अपनी बिटिया ने पर…अपने अंक में समेट मेरे कंधे आँसुओं से भिगोने और मेरे आँसू पोंछने वाला अब कोई न था। न कृष्ण, न कृष्णा और न ही कोई कुंज।
यशोधरा भटनागर
देवास
मध्यप्रदेश
455001 फ़ोन नंबर -9425306554
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