बच्चों को फूलों की उपमा दी जाती है। हंसते-खेलते, प्यारे-प्यारे, मासूम बच्चे किसे अच्छे नहीं लगते? बच्चों का मन कोरा होता है। जीवन का सबसे बड़ा विद्यालय होता है बच्चों का बचपन, उनके छोटे-छोटे सपने और अनमोल कल्पनाएं। बच्चे तो हर ज़माने के चुलबुले और समझदार ही रहते हैं मगर आज के बच्चे कुछ ज्यादा ही समझदार, कुछ ज्यादा ही चुलबुले हैं। बचपन माने मस्ती और ढेर सारी खुशियां, कोई चिड़चिड़ापन नहीं। पर गौर करें तो पायेंगे कि क्या आज के बच्चों में दिखती है मासूमियत?
मुझे याद है जब मेरा छोटा बेटा केन्द्रीय विद्यालय मे पहली क्लास में पढ़ता था तो अक्सर उसकी टीचर उसकी पढ़ाई और खराब हैंडराईटिंग के लिए मुझे बुलाती और मेरे बेटे की शिकायत के साथ-साथ मुझे भी कहती कि आप ज़रा भी अपने बच्चे पर ध्यान नही देतीं। मैं हर बार चुपचाप क्लास टीचर की बात सुनती, घर आकर बेटे को समझाती, पर नतीजा फिर वही का वही, यह सिलसिला हर महीने चलता। एक बार फिर मुझे क्लास टीचर ने बुलाया और फिर वही सब दुहराया, मैं क्लास टीचर को आश्वासन देकर बेटे का हाथ पकड़कर घर जाने के लिए स्कूल के गेट तक जैसे ही पहुंची, मेरा बेटा मुझसे बोला अम्मा मैं अपने बैग से राउंडर निकालूं? मैंने पूछा क्यों, तो वो बोला यह मेरी क्लास टीचर की कार खड़ी है, मैं उनकी कार के पहिये मे यह चुभो देता हूं, उसकी यह बात सुनकर मैं अंदर तक सहम गई। सबसे अहम बात यह थी कि हम उसी साल इंदौर शिफ्ट हुए थे और अगर बेटा यह शरारत कर दे तो? मैं इस बात का अंजाम सोचकर ही सिहर उठी, मैंने तुरंत उसे प्रेम से समझाया बेटा ऐसा कभी मत करना। यहां स्कूल में छिपे कैमरे लगे हैं तुमको तुरंत स्कूल से निकाल दिया जाएगा। स्कूल से निकालने की बात सुनकर बेटे को भी समझ आ गया, शरारतें तो उसने बचपन मे बहुत की। एक बार छत का दरवाजा अंदर से लगाकर पानी से भरी सिंटेक्स की टंकी पर चढ़ गया, और एक बार तो कैंची उठाकर अपने ही आगे के बाल कुतर लिए।
जयशंकर प्रसाद के शब्दों मे कहें तो बच्चों का ह्रदय कोमल थाला है, चाहे इसमे कंटीली झाड़ लगा दो, चाहे गुलाब के पौधे – शरारतें करना हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है, पर शरारतों की भी एक सीमा होनी चाहिए, जब भी शरारतों का अतिक्रमण हो जाता है, फिर यही शरारतें मां-बाप के लिए सजा बन जाती हैं, मां-पिता को अपने बच्चे की हर उस गलत शरारत पर सजा देना चाहिए जब बच्चों की शरारत से किसी का भी नुक़सान हो रहा हो।अक्सर बच्चे एक-दूसरे का मजाक बनाते हैं, यह भी शरारत का एक हिस्सा है, इसे हरगिज़ न होने दें। अभिवावक की जिम्मेदारी बच्चों के जन्म से प्रारम्भ हो जाती है। शरारत का प्राकृतिक भाव हर बच्चे मे जन्मजात होता है। आज का समय बहुत बदल गया है, जिसमे न केवल बच्चों के संस्कार बल्कि बच्चों के बचपन का आकार-प्रकार भी बदल गया है। और तकनीक ने इतनी तेजी से तरक्की की है कि बच्चों ने सब छोड़कर मोबाइल की दुनिया को ही अपनी दुनिया मान लिया है, इसलिए जरूरी है कि बच्चों की शरारत को सकारात्मक दिशा दी जाए
सृष्टि उपाध्याय
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