हमारी माता स्व शांतिदेवी वार्ष्णेय और स्व पिता प्रेमपाल वार्ष्णेय जी ने खून – पसीने से परिवार हेतु प्यारा दिव्य , भव्य आध्यात्मिक, स्वधर्म , स्वघर ‘ शांति निकेतन ‘ बनाया था। वे संसार से चले गए , पर वह घर शांति निकेतन ईंट – गारे का नहीं था । वह घर हम सब भाई – बहनों , माँ -पिता के मधुर संबंधों के जुड़ाव का था, जिस तरह घर में हर कमरा आपस में प्यार , भाईचारे से जुड़ा होता है, जीवन के दुःख -सुख , संवेदनाओं के साथी होते थे , जहाँ नकारत्मकता का तमस नहीं था , वहॉं दैवीय गुणों और सात्विकता का वास था , मूल्यों की ज्योत संस्कारों के रूप में प्रज्वलित रहती थी , उसी प्रकाश में मेरा मस्त , अल्हड़ , मनचला , सहज , बेफिक्र बचपन संस्कारित हुआ। जब मैं छोटी थी तब ऋषिकेश,( उत्तरप्रदेश )अब उत्तराखण्ड में भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डॉ राजेंद्र प्रसाद जी आए थे । मैंने राष्ट्रपति की महिमा में स्वागत गान गाया था ।उनसे मेरी मुलाकात , सान्निध्य, आशीर्वाद की फोटो संलग्न है। इस पर मैंने आलेख भी लिखा ।
भाई – बहनों के साथ मुझे , समाज को साक्षर करने में माता -पिता की सोच , मूल्यों , संकल्पों , विचारों परहित में देश , समाज के कल्याण के लिये शैक्षिक क्रांति की । जो उनके सोच की ऊँचाई को दर्शाता है ।घर में पढ़ना – पढ़ाना को ही मेरे बचपन ने देखा था। माँ सरस्वती , लक्ष्मी , दुर्गा तीनों देवियाँ हमारे घर में साक्षात विराजमान थीं । हम सब भाई -बहनों का बिस्तर से उठने पर नित्य सुबह का आगाज अपने हाथ देखकर इस श्लोक के साथ होता था ।
ॐ कराग्रे बसते लक्ष्मी ,कर मध्ये सरस्वती ।
करमूले च गोविन्दः , प्रभाते करदर्शनम्।।
श्लोक बोलने से हमारी सुबह की शुरुवात होती थी, फिर हरि , भू माता की कृपा पाने के लिए पैर जमीन पर रखने पर यह श्लोक का मैं ताउम्र वाचन करती हूँ।
समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्श क्षमश्र्वमेव।।
आज इन्हीं संस्कारो को मैंने अपनी दोनों बेटी डाक्टर हिमानी , डॉ शुचि के संस्कारों में घोला है । मैं भारतीय संस्कृति संवाहिका बन नयी पीढ़ी को मूल्यों से जोड़ रही हूँ , क्योंकि मुझे मूल्यों की विरासत मेरे अंतर्मन को मिली हैं। राष्ट्र मूल्यों से जिंदा रहता है। मानव जीवन मूल्यों से जीवित रहता है। आज की नयी पीढ़ी में मूल्यों में गिरावट आयी है। इसी वजह से राष्ट्र , समाज सामाजिक विषमताओं , हिंसा , आत्महत्या , अवसाद , सामाजिक बुराइयों , लैंगिक असमानता, भ्रूण हत्या आदि से जूझ रहा है।हम किसी भी इंसान में जबरदस्ती मूल्यों को थोप नहीं सकते हैं । बचपन के परिवेश से , संस्कारों को अर्जित किये जाते हैं ।ताउम्र हमारे जीवन सफर में चलते हैं क्योंकि मनुष्य का बचपन उसके व्यक्तित्व की नींव होता है।शख्स तो हर कोई होता है लेकिन शख्शियत तो स्वयं को बनानी होती है। मुझे खुशी है कि ये श्लोक जिन स्कूलों में मैंने पढ़ाया है , उन स्कूल के छात्रों , समाज के दिलों में भी घर कर पाए।इन मूल्यों से गढ़ा चरित्र से निर्मित चेतना ही भारत को आध्यात्मिक ऊँचाई के साथ , विकसित देश बना सकती है। हमारे माँ – पिता की तप – तपस्या की साधना का परिणाम है कि हम सातों भाई – बहन पढ़ – लिख के समाज सेवा , राष्ट्रीय विकास , राष्ट्र के नव निर्माण में योगदान दे रहे हैं।हमारे बड़े भाई स्व विजय कुमार वार्ष्णेय आई.ए.एस बने , अब वे नहीं रहे है । इनकी श्रवण कुमार- सी भक्ति , मात -पितृ सेवा ऋषिकेश परिवार ,समाज , राष्ट्र की मिसाल है।
हमारी विदुषी माँ हमारे साथ शिक्षिका ही नहीं थी , बल्कि वह नारियल की तरह बाहर से कठोर और अंदर से यानी हृदय से नारियल की गिरी की तरह मुलायम थी । घर में अनुशासन के साथ एक दोस्त की तरह ममता , प्यार लुटाती थी। हर खाने की चीज को हम सब में बाँट कर खाती थी, जिससे हम सब में बाँट के खाने का संस्कार आया। उन्हें मूल्यों से गढ़ी रामचरित मानस की चौपाई , गीता के श्लोक कंठस्थ थे और हमें सिखाती थी , जिससे हमारे में साकारात्मक ऊर्जा के साथ मानवीय मूल्यों की चेतना जागी। ‘ महाभारत ‘ , चारों वेद ‘ गीता आश्रम ‘ , ऋषिकेश से हमारे पढ़ने के लिए लाए थे । घर में विविध विषयों , लेखकों की किताबों का बड़ा -सा पुस्तकालय था। बाल – पत्रिका चंदामामा , नन्दन , पंचतंत्र भी हम सबने पढ़ी , अब नयी पीढ़ी के बच्चों के लिये बाल- साहित्य की किताबें कम हो गयी हैं । ये चंदामामा , नंदन जैसी दोनों पत्रिका बंद हो गयी हैं । हिंदी साहित्य के मनीषियों को बाल साहित्य की दिशा में अपनी कलम ज्यादा चलाके बाल साहित्य के दायित्व को निभाना होगा ।
डॉ मंजु गुप्ता
वाशी , नवीमुम्बई