उसका जन्म लेना भी जैसे कोई कयामत था। खबर सुनते ही पिताजी फट पड़े और खुशखबरी सुनाने वाली दाई को ही डांट दिया- “चुप कर…लड़की हुई है तो क्या करूं, ये भी कोई खुशी की बात है जो तुम्हें ईनाम दूं।…चल भाग यहां से।“ बेचारी क्या कहती, कुछ समझ ही ना पाई कि सेठ जी को अचानक क्या हो गया। पर भीतर कमरे में लेटी सेठानी को सब समझ में आ गया था। पहले ही दो बेटियाँ जन चुकी सेठानी जानती थी कि सेठ जी को पुत्र की चाह खाये जा रही है, पर वो क्या करती। कितना तो भगवान से मिन्नतें की थी, हाथ-पैर जोड़े थे उनके सामने, दान-दक्षिणा की भी हामी भर ली थी, पर फिर भी भगवान का दिल न पसीजा, लड़की दे दी। आंखों में बेबसी के आंसू लिए सेठानी ने अपनी नवजन्मी बिटिया की तरफ देखा। सांवली, गोल-मटोल सी वो नन्हीं मजे से सारी चिंताओं से मुक्त हो कर सो रही थी। मां की ममता अपने जिगर के टुकड़े को अपने से अलग नहीं कर सकती थी। सो मां ने अपनी बेटी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और चुपचाप उसके पास लेट गई।
दिन पंख लगाये उड़ने लगे। वर्ष फुदकता हुआ निकल रहा था। मां ने अपनी बेटी का नाम बड़े प्यार से कजरी रखा। कजरी घर परिवार की बेरूखी से अनजान, बड़ी होने लगी। नटखट और मासूम, सबकी हां में हां मिलाने वाली। कोई काम बोलो तो फट से दौड़ के कर देती जबकि उसकी दोनों बहने बहुत सिरचढ़ी थीं। देखने में गोरी चिट्टी सुंदर थी पर आदतें ऐसी जैसे कोई काटने को दौड़ता हो। इस पर भी पिताजी उनके ही सिर पर हाथ फेरते, सहलाते, पुचकारते। मासूम कजरी दूर खड़ी सब देखती रहती। उसका बालपन इन सब बातों को समझ नहीं पा रहा था। फिर एक दिन मंझली बहन किसी बीमारी की चपेट में आकर चल बसी। मां खूब रोईँ, रोये तो पिताजी भी थे, पर जल्दी ही उन्होंने अपने आपको संभाल लिया। अब उनका सारा प्यार-दुलार बड़ी बेटी किरण पर आकर ठहर गया। कजरी अपेक्षित सी पलती रही। तब इतनी बुद्धि ही कहां थी कि अपनी अपेक्षा को ही महसूस करती। वो तो खुश थी, उसकी मां थी उसके पिताजी थे। भगवान के बाद उसे मां-पिता ही दिखते थे। विश्वास ऐसा कि तोड़े से न टूटे। उधर किरण पिताजी की आँखों का तारा बनी हुई थी। बात बात पर पिताजी से झूठी शिकायत कर कजरी को मार-डांट खिलाने में उसे बड़ा मजा आता था। धीरे धीरे यह उसकी आदत में शुमार हो गया। कजरी कभी समझ ही नहीं पाई कि उसे डांटा क्यों जा रहा है या क्यों मार पड़ रही है। हां इतना जरूर हुआ कि समय बीतने के साथ साथ कजरी चुपचाप रहने लगी, अपने में खोई खोई। उसका न कोई दोस्त था, न संगी। खुद से ही बातें करती और खुद से खुद को समझा लेती। मां से अगर किरण की शिकायत करती तो मां किरण की धुनाई कर देती थी, जो कि उसे अच्छा नहीं लगता था। आखिर किरण थी तो उसकी बहन ही।
समय ने रफ्तार पकड़ी, दोनों बड़ी होती चली गई। कजरी को पुस्तकों से लगाव हो गया। होता भी क्यों नहीं, वही उसके संगी साथी थे। उन्हें पढ़ती और उनके अमूर्त पात्रों के साथ कल्पना में खोई रहती। उसने अपनी एक अलग ही दुनिया बना ली थी। इस दुनिया से बाहर उसे दो ही चीज़ें अत्याधिक प्रिय थीं एक मां, दूसरी पढ़ाई। अब उसे उपेक्षा की दृष्टि की पहचान हो गई थी। कोमल सा मन था, जो आहत होना सीख गया था। उसे भी अपनी पिता जी की नज़रों में अच्छा होना था। कसूर का तो पता नहीं था पर इतना अवश्य समझने लगी थी कि शायद उसके अंदर कोई खूबी नहीं होगी तभी पिता जी उसे प्यार से नहीं पुचकारते। उसने सोच लिया कि वह खूब पढ़ेगी और ऐसा कुछ करेगी कि उसके पिताजी उसे भी प्यार करें, अपनी गोद में बिठायें। तरसती, लरजती कजरी अपनी धुन में रमी पढ़ाई में डूबी तो बहन किरण को जरा भी अच्छा नहीं लगा। वो अक्सर ताने मारती कजरी को- “ओह तो कालुटी अब कलेक्टर बनेगी। बड़ी आई पढ़नेवाली।“ यह कहते हुए वो उसकी किताबें फाड़ देती और पिताजी से झूठी शिकायत कर कजरी को ही मार खिलवाती। मां समझती तो थी पर पिताजी यह कह उनका मुंह बंद कर देते कि “तुम चुप रहो…..जो बेटा हुआ होता. इसकी जगह, तो शान से जीता।“
अब किरण कालेज जाने लगी थी और कजरी हाईस्कूल में। जहां कजरी उपेक्षित वातावरण में पलते हुए शांत और मृदुल स्वभाव वाली बन गई थी वहीं दूसरी तरफ किरण अधिक लाड-प्यार से अभिमानपूर्ण रवैय़ा अपना चुकी थी। मां की बात सुनना तो उसने सीखा ही नहीं था। अपनी मर्जी, अपना शौक और अपनी इच्छा बस यही उसके दिमाग में हरदम रहता था। सब कुछ सामान्य ही चल रहा होता अगर वो मनहूस दिन न आता कजरी के जीवन में। पिता की लाड़ली प्रेम के चक्कर में पड़ कर किसी आवारा लड़के के साथ भाग गई। कजरी जब स्कूल से लौटी तो माँ ने उसे बताया। सुनकर कजरी सन्न रह गई। दो-चार दिन पहले ही मां ने शक के आधार पर उसकी पिटाई की थी, और आज यह जाहिर हो ही गया कि माँ का शक गलत नहीं था। माँ ने सिर पीट लिया। शाम को जब पिता जी घर लौटे तो उन्हें बताय़ा गया। पिताजी पर तो जैसे पहाड़ ही गिर पड़ा। बरसों की बनी इज्जत पर पानी फेर दिया लड़की ने। कितना तो दुलार प्यार से पाला था। कभी किसी चीज़ की कोई कमी नहीं होने दी। जो कहती फटाफट आ जाता था। उसके एक आंसू पर पिताजी न जाने क्या-क्या न्यौछावर कर देते। आज उसी लड़की ने उनकी परवाह किये बिना इतना बड़ा कदम उठा लिया था। अब क्या मुंह दिखायेंगे दुनिया को। यही सब सोच सोच कर वे दो दिन तक रोते रहे। मां भी रो रही थीं। कजरी का मन भी रो रहा था सबको दुखी देख कर परन्तु वो करती भी तो क्या। पिताजी की हालत इतनी बिगड़ी कि वे नर्वस ब्रेकडाउन के शिकार हो गये और गहरे डिप्रेशन में चले गये। अब घर में रह गई मां और कजरी। मां का रो रोकर बुरा हाल था। चौदह बरस की कजरी अचानक जैसे चालीस बरस की समझदार हो गई। उसने पिताजी को संभाला, मां को समझाया कि ऐसे रोया न करे पिताजी के सामने उन्हें और अधिक तकलीफ होगी फिर। वो अपने नन्हें हाथों से घर का सारा काम करती और भगवान से सब कुछ ठीक करने की दुआ मांगती रहती। मां पूरे दिन उदास आंसू बहाया करती, पिताजी गुससुम बस दीवार को घूर रहे होते या फिर मरने की सोचते। उफ्फ कितना कठिन समय आ गया था। एक एक पल पहाड़ की तरह बीत ही नहीं रहा था बल्कि बीताना पड़ रहा था।
इन सब चक्करों में वो स्कूल भी नहीं जा पाई। मन लग भी तो नहीं रहा था। सोचा घर की हालात सुधर जायेंगे तब सुचारू कर लेगी अपनी पढ़ाई। परन्तु भविष्य तो अपनी लेखनी लेकर साथ चलता है और वर्तमान उसके गुलाम की तरह वही करता है जो वो करने को कहता है, इसी में भविष्य का जीवन है।
मिट्टी में दबे बीज को देखा है ? कितनी छटपटाहट होती होगी उसे बाहर निकलने की… खुद से लड़ता भी होगा…. अपने ऊपर पड़ी मिट्टी हटाने के लिए….. कण-कण हटाता भी है….. जो जीत जाता है इस लड़ाई में वही नये कोपलों के साथ धरती का सीना चीर कर अंकुरित होता है… एक नया जीवन, एक नए स्वप्न के साथ….. इंसान के जीवन में भी ऐसा समय आता रहता है….. जब संसार की तकलीफें ही उसे मार देती हैं….इसके लिए उसे अलग से मरने की जरूरत नहीं पड़ती…..यही पिताजी के साथ हुआ। तीन साल का लंबा समय गुजार कर आखिर वो कजरी के अथाह सहयोग से मानसिक तनाव से बाहर आ ही गये।
बाहर आते ही उन्होंने सबसे पहला काम यही किया कि कजरी की पढ़ाई यह कह कर बंद करवा दी कि एक को इतने लाड से पाला तो उसने यह दिन दिखा दिया, अब तुझे पढ़ने नहीं भेज सकता। तुमने भी वही किया तो मैं मर ही जाऊँगा। कजरी तड़प उठी। जैसे कोई मछली को पानी से निकाल कर तेज़ धूप में छोड़ दे। हाय रे विधाता, क्या यही दिन देखना बाकी रह गया था। उसे अपनी छटपटाहट एक पल भी चैन से रहने न दे रही थी। सब कुछ अंधेरा अंधेरा सा हो गया। किसी ने उसके भविष्य का सूरज निगल लिया हो जैसे। कांटे ही कांटे कैसे उग आये थे उसके चारों ओर। कहां जाये, किससे कहे। सब खुशी स्वाहा हो गई।
उसने पिताजी से विनती की, मां के आगे हाथ जोड़े। लेकिन जो स्रोत सूख चुका हो वहां से अब क्या फूटता और क्यों। यह ईनाम था उसकी सेवा का। फिर कुछ न कहा कजरी ने, सिर झुका कर स्वीकार कर लिया उनके निर्णय को। मन में आवेग बहुत था और सामने कठोर चट्टान से अडिग पिताजी।…..आह ! एक ही सपना देखा था और वो भी पल भर में ही छन्न से टूट गया। कजरी पिताजी को तो बचा लाई पर वो स्वयं भीतर ही भीतर मर गई उसी पल। कोई सपना न बचा उसकी आँखों में और बिन सपनों के क्या कोई जीवन होता है भला। अब तो उसे मृत सपनों का बोझ उठाए ढोना ही था सारी उम्र। वो खुद भी कहाँ बची थी, पिताजी के मान-सम्मान के साथ उसका जीवन ही चला गया। मन में न हर्ष बचा था, न विषाद। न निर्वाण था न निर्माण। रो कर खुद की सलीब नहीं उठाई जा सकती थी इसलिए उसने भी एक झूठी मुस्कान तले उसने अपनी छटपटाहट को कहीं छुपा लिया था।
आशा गुप्ता ‘आशु’, पोर्ट ब्लेयर, अंडमान