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अवनीश की कहानी -अब लौट भी आओ

चंदा अपने बापू की बहुत ही लाडली व इकलौती बेटी,बेहद खूबसूरत, युवा,चंचल, हर अंग तराशा हुआ।कोई भी उसकी खूबसूरती देख कर विश्वास नही कर पाता कि ये एक मछुआरे की बेटी है। इकलौती है तो लाड़ली भी,अपने बापू की बेटी भी बेटा भी।आस पास के घरों की भी लाड़ली, सबकी गोदी में जो बड़ी हुई थी,सबकी साझी बेटी। पर जवां होते शरीर की उठान व उमंगों को भला कोई बांध सका है,रोक सका है आजतक। चंदा बहुत ही अच्छी मच्छी मार भी है ,नाव भी अच्छी चला लेती है।गंगा मैया की गोद मे तो बड़ी हुई है,पर जब नाव चलाती है तो अपने भरोसेमन्द रघ्घू काका को साथ लिए लेती है। अब रात का समाँ है,बापू सोने जा रहे हैं,आसपास सभी मल्लाहों के घरों में दीपक बुझ चुके हैं, चंदा की आंखों से नींद कोसो दूर है,उसकी आँखों मे तो छवि घूम रही है दूसरी बस्ती के राघव की,जैसा नाम वैसा ही सब कुछ,सांवला रंग,मजबूत कद काठी,अच्छा कद,सांवले मगर तीखे नयन नक्श।अगर थोड़ा मेकअप व तैय्यार कर दिया जाए तो किसी राम या कृष्ण की जो कल्पना में मूरत है वैसा लगे। बापू$$ ओ बापू$$$$ इतनी अच्छी चाँदनी रात है,मैं काका के संग थोड़ा घूम आऊँ-?बापू :अच्छी बिटिया घूम आ अच्छी वाली नाव ले जाना, चप्पू भी लम्बा वाला और जो अभी अभी नया लिया वो ही,गहरे पानी मे वो ही ठीक रहेगा,काका तो साथ है न-? बापू एक सांस में बोल उठे । हाँ बापू हाँ, सभी कुछ वैसा ही जैसा आप बोले है।
चंदा ने काका को आवाज़ दी,काका गमछा समेटते हुए आ गए और अपनी खिवैय्या की सीट सम्भाल ली,नाव सधी रफ़्तार से नदी में बढ़ चली। पीछे कहीँ ये गीत बज उठा।
रात का समां, झूमे चन्द्रमा$$$
सही में पूरन मासी का चांद अपने पूरे यौवन पर था,नदी शांत कलकल बह रही थी।
जल पाखी,बत्तख,बगुले सब खूबसूरती बढ़ा रहे थे पर रात्रि काल था तो सभी अधखुली आंखों से सो रहे थे।आसपास लाल,पीले नीले सफेद रंगों के फूलों की बेले नदी किनारे उग आए पेड़ो पर झूल रही थी।वातावरण बेहद खुशनुमा था,बेला महक रहा था।छोटी छोटी रंग बिरंगी मछलियां भी शान्त भाव से उथले जल में विचर रही थी।रंग बिरंगे टिड्डे भी किसी भी चीज़ पर स्थिर हो ऊँघ रहे थे। चंदा, रग्घू काका के लेकर अपनी पसंदीदा नाव लेकर चांदनी रात की खूबसूरती का आनन्द लेने गंगाजी के शांत, खूबसूरत,निर्मल पानी में निकल पड़ी,नाव धीरे धीरे मंझधार में पहुंच गई ,चंदा कभी झुककर पानी के संग अठखेलियाँ करती, कभी झुक कर अपनी सुंदर छवी निहारती,कभी कुछ गुनगुनाने लगती। नदी के साफ पानी में कभी चांद को निहारती कभी खुद को,दोनो में कौन सुंदर ,तुलना कर बैठती।ऊपर नाव के संग संग चलता चांद भी इस तुलना से मुस्करा रहा था।
पता नही किस बेख्याली  में चंदा केशराशि बंधन से मुक्त कर बैठी, केश खुलकर कमर की निचली सीमा से जा लगे, चंदा खुद ही शर्मा उठी अपनी सुंदरता पर।गोरा रंग,घने लंबे केश,आकर्षक देहयष्टि, खूबसूरत चेहरा मोहरा,बड़ी बडी स्वप्निल आंखे और खुली आँखों से सपना देख रही है कि उसका प्यार दूसरी नाव का मस्तूल पकड़े उसीकी तरफ आ रहा है ,चांदनी रात,नदी का विशाल पाट, कलकल की सुमधुर ध्वनि व पास आती प्रियतम की नाव।पर ये सपना न था, हकीकत ही थी।
सच में राघव अपनी बड़ी सी नाव लेकर चंदा की नाव की ओर बढ़ रहा था, चंदा खुशी के अतिरेक से खिल ही उठी, गाल और अधिक रक्ताभ हो उठे, कभी पलकें उठा कर देखती,कभी झुका लेती, दोनो हाथ हिला हिलाकर ,अपने प्रियतम को अपनी उपस्थिति का एहसास करा बैठी,आँचल से यौवन कलश ढांक लिए,हाथ से मुंदरी घुमाने लगी,आंखे खुशी व लाज के बोझ से झुकने लगीं । पैर नर्तन कर उठे।काका से बोल उठी, काका बस दो ही मिनिट के लिए, राघव के पास जाऊंगी।
काका काका भी थे तो  ह्रदय के किसी कोने से मित्रवत भी,युवा ह्रदय की धड़कन समझते थे।हाँ बिटिया हाँ, पर देर न लगाना। राघव नाव पास ले आया,चंदा हिरनी की भांति उछल कर उसकी नाव में समा गई,मस्तूल की आड़ में राघव ने उसे अपनी मजबूत बाहों में भर ललाट पर व शर्म से बोझिल पलको पर चुम्बन ले लिया। चंदा अपने नाजुक हाथों की मुठ्ठियों से राघव के सीने को मार कर पूछने लगी। इत्ते दिन कहाँ थे,पता है तुम्हारे बिन कितना सूना सूना लगता है। राघव :पगली तेरे लिए ही तो सब कुछ कर रहा हूँ,तेरे बापू से तुझे मांगू तो रखूं कहाँ। कल ही प्रयाग में एक छोटा फ़्लैट नक्की किया है,बैठक,सोने का कमरा,नए ढंग की रसोई सभी कुछ।तुझे रानी बना कर रखूंगा, दिल की रानी तू है ही। कह कर फिर से आलिंगन पाश में बांध लिया। पीछे पार्श्व में कहीं गीत बज उठा।
चांद जरा छुप जा
ए वक्त जरा ठहर जा$$$$$
चंदा खुश तो बहुत हुई पर वो प्रेयसी के अतिरिक्त एक पुत्री भी तो है। पूछ बैठी: पर कान्हा, ये तो बताओ मैं बापू और काका को किसके भरोसे छोडूं,माँ होती तो और बात होती। अच्छा छोड़ो बाकी बातें फिर जल्दी ही मिलने पर काका इंतज़ार कर रहे है। फिर खुद ही झक कर राघव के उन्नत ललाट का चुम्बन लेकर शर्माती हुई अपनी नाव पर वापिस। विचारों की धारा को मंझधार में छोड़ चंदा गंगा की मंझधार पर इंतजार करती नाव पर आ गई। काका मुस्कराते हुए पुनः नाव खेने लगे। चांदनी मुस्करा उठी, नदी अपनी युवा होती बेटी के नवजीवन की शुरुआत से खुश थी,कलकल की आवाज़ से अपनी खुशी जतला भी रही थी। राघव की नाव भी लौट रही थी।  सुमधुर गीत मद्धम मद्धम बज रहा था। चांदनी रात में एक बार तुझे देखा है। कभी इठलाते हुए। कभी शर्माते हुए।
अचानक रघु दादा का हाथ गड़बड़ा गया,चप्पू छूटते बचा, चंदा का मनोहर स्वप्न भंग हुआ पर उसकी अठखेलियाँ बन्द न हुई और फिर सुदूर से आती बापू की  चिंतित आवाज़ बेटा । बहुत रात हो गई। अब लौट भी आओओ ओ ओ।

अवनीश भटनागर
बड़ौदा 390020
मो:8005054134

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